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vad 52 16-06-2018
 
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दुनिया 
 
^लाम^ के लिए लामबंदी
लोकसभा चुनाव में एक साल बाकी है। लेकिन सत्ताधारी और विपक्षी सभी दलों ने मेल-मिलाप की कवायदें तेज कर दी हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपने-अपने तरीके से दोस्तों को तलाश रहे हैं। पुराने मित्र दलों से मिलकर नाराजगी दूर कर रहे हैं। नए मित्र बनाने की राह में हैं। बड़े होने के दंभ को दोनों ने ही अगले चुनाव तक अपने कंधे से उतार कर नीचे रख दिया है। यह काम कांग्रेस ने पहले किया। वह भूल गई कि वह देश की सबसे पुरानी पार्टी है जिसने दशकों शासन किया है। उसका एक मात्र मकसद अभी भाजपा को फिर से सत्ता में आने से रोकना है। इसके लिए वह अपना मन मारकर छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों से भी हाथ मिला रही है। यह मन नहीं] हालात राजनीतिक मौसम बदलने का मामला है। मौसम अनुकूल होते ही मन भी बदल जाएगा इसकी गारंटी है।

पिछले लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत आने के बाद भाजपा के भीतर भी ^दंभ^ ने जगह बना ली। एक के बाद एक राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी जीत ने उसका दिमाग खराब कर दिया। लेकिन गुजरात] उत्तर प्रदेश के उपचुनाव और कर्नाटक प्रकरण ने उसके दंभ के विस्तार की गति को तोड़ा है। भाजपा के दंभपूर्ण रवैये से उसके कई सहयोगी दल नाराज भी हुए। कुछ ने अलग राह पकड़ी] कुछ सोच रहे हैं।

ऐसे में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह सहयोगियों को मनाने निकल पड़े हैं। वे कुछ ऐसी सत्ता-संस्थानों व्यक्तियों से भी मिल रहे हैं जो उनको आगामी लोकसभा चुनाव में जीत दिलवाने में मददगार साबित हो सकते हैं। भाजपा के इस नए मुहिम का नाम दिया गया है- ^संपर्क फॉर समर्थन।^

^संपर्क फॉर समर्थन^ अभियान के तहत भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे से उनके निवास पर बात की। इस मुलाकात से पहले शिवसेना ने ऐलान किया था कि वह २०१९ में होने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा से हाथ नहीं मिलाएगी। इसी कारण ठाकरे को मनाने अमित शाह उनके ?kj गए। इस मुलाकात में दोनों नेताओं ने २०१९ चुनाव से पहले गठबंधन की संभावनाओं के बारे में चर्चा की। एक लंबे वक्त से दोनों के दरम्यान तानातानी चल रही है। हद तो तब हो गयी जब उद्धव ठाकरे के लोकसभा चुनाव चुनाव लड़ने के बयान के बाद शिवसेना सांसद संजय राउत ने भाजपा को शिवसेना का सबसे बड़ा राजनीतिक शत्रु बताया। उन्होंने यहां तक कहा कि देश को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी नहीं चाहिए। देश कांग्रेस या जेडीएस एचडी देवगौड़ा को स्वीकार कर सकता है। 

स्मरण रहे गठबंधन के साथी शिवसेना और भाजपा ने बीते दिनों महाराष्ट्र के पाल?kj विधानसभा उपचुनाव में एक दूसरे के खिलाफ लड़ा था। इसके बाद ही मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस ने एक बार फिर दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन पर जोर दिया। भाजपा अध्यक्ष मुंबई में उद्धव ठाकरे के अलावा लता मंगेश्कर] माधुरी दीक्षित और रतन टाटा से भी मिले।

भाजपा को फिर से सत्ता में आने से रोकने के अभियान ने पूरी तरह से जुटी कांग्रेस राज्यों में गठबंधन कर रही है। मध्य प्रदेश] छत्तीसगढ़ और राजस्थान में गठबंधन के लिए उसकी बसपा से बात चल रही है। ऐसे में खबर है कि अब कांग्रेस महाराष्ट्र में अगले साल होने वाले विधाानसभा-लोकसभा चुनाव के लिए भी बसपा के साथ गठबंगधन की तैयारी चल रही है। महाराष्ट्र में लोकसभा की ४८ सीटें हैं जो उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा हैं। उत्तर प्रदेश में पहले ही कांग्रेस-बसपा] सपा साथ लड़ने का मन ही नहीं बना चुके हैं] बल्कि ऐलान भी कर दिया है। रालोद के उपाध्यक्ष जयंत चौधरी ने कहा है कि दूसरे दलों से गठबंधन बनाने और निभाने के मामले में कांग्रेस भाजपा के मुकाबले कहीं बेहतर पार्टी है।

विपक्षी एकता के सामने सबसे बड़ा संकट यह है कि उसके पास मोदी के बरक्स कोई बड़ा चेहरा नहीं है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ओर कुछ लोगों ने देखना शुरू किया था। मगर वह राष्ट्रीय जनता दल का साथ छोड़कर भाजपा के समर्थन से सरकार चला रहे हैं। इसलिए यह संभावना ही समाप्त हो जाती है। कांग्रेस को सबसे ज्यादा राजस्थान] मध्य प्रदेश] उत्तर प्रदेश से उम्मीदे हैं जहां भाजपा को भारी झटका अगले लोकसभा चुनाव में मिल सकता है। इसलिए वह कोई भी मौका गंवाना नहीं चाहती।

कांग्रेस खुद को पीछे रखकर एक बड़ी रणनीति पर काम कर रही है। वह यह कि उसका मकसद फिलहाल खुद के लिए सत्ता पाना नहीं है] वह बाद की बात है। चुनावी नतीजे आने बाद ही नयी स्थितियों में कुछ भी हो सकता है। लेकिन अभी कांग्रेस का एकमात्र मकसद किसी तरह से भाजपा को सत्ता में आने से रोकना है। वह नरेंद्र मोदी के बढ़ते कदम को थामने की फिराक में है। इसलिए वह छोटे दलों के साथ भी गठबंधन करने के क्रम में खुद को झुका रही है। गठबंधन के प्रति कांग्रेस के आक्रामक अंदाज से भाजपा भयभीत नहीं भी तो सचेत जरूर हुई है। नतीजतन भाजपा अध्यक्ष संपर्क फॉर समर्थन की मुहिम पर निकल गए हैं।


आक्रामक अप्रवासी नीति

  • प्रेम भारद्वाज

 

ग्रीस के बाद यूरोप का दूसरा सबसे पुराना राष्ट्र इटली इन दिनों चर्चा में है। अमूमन अस्थिर और खबरों में बने रहने वाले इस देश का सुर्खियों में रहना दिलचस्पी पैदा करता है। इन दिनों इटली के खबरों में बने रहने की वजह अप्रवासियों के बाबत उसकी नई नीति है जिसे काफी आक्रमक माना जा रहा है।

इटली सरकार के गृहमंत्री मात्तेओ सलबीनो ने अपने अप्रवासी विरोध द्वारा इरादे जाहिर कर दिए। गृहमंत्री की लीग पार्टी का मानना है कि अप्रवासियों की बढ़ती भीड़ से इटली में रोजगार की स्थिति बदतर हुई है। बकौल मात्तेओ ^जिंदगियां बचाने का बेहतर तरीका यही है कि लोगों को नाव पर सवार होने से रोका जाए। मैं यूरोपीय सहयोगियों और उत्तरी अफ्रीकी देशों के साथ इस पर काम करूंगा ताकि उन लोगों का यह भ्रम टूटे कि इटली में सबके लिए ?kj और नौकरी है] यहां इतालवी लोगों के लिए भी ?kj और नौकरियां नहीं हैं।^ मात्तेओ यही नहीं ठहर जाते हैं] बल्कि उनका यह भी मानना है कि सिर्फ नए अप्रवासियों को रोकने से काम नहीं चलेगा] अलबत्ता जो पहले आ चुके हैं उन्हें जल्द ही वापस भेजना होगा।

इटली सरकार का यह निर्णय उस देश की परंपरागत सोच के विपरीत है। इसलिए इस फरमान को लेकर दुनिया में हैरानी का भाव है। इटली दुनिया में अप्रवासियों का चहेता देश था जहां सबके लिए द्वार खुले रहते थे। शायद यही वजह रही जो यहां लोग ज्यादा संख्या में आए। छोटे से इस देश में बाहरी लोगों की तादात बढ़ गई।

अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार मान रहे हैं कि इटली के बढ़ते हुए मूड के मूल में यूरोपीय la?k का भेदभावपूर्ण रवैया भी रहा है। इटली लंबे समय से शरणार्थी समस्या का सामना कर रहा है। लेकिन उसकी समस्या के समाधान की दिशा में यूरोपीय la?k ने कभी भी किसी किस्म की कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। अब इटली सरकार के इस फैसले से यूरोपीय la?k भी खुद को असहज महसूस कर रहा है। उसको भी इसका अंदाजा नहीं था कि सरकार ऐसा कठोर फैसला ले लेगी। इटली का जो आधुनिक रूप आया वह १८६१ से माना जाता है। इसका क्षेत्रफल ३ लाख १३०० वर्ग मीटर है जो महाराष्ट्र के क्षेत्रफल से ५ हजार किलोमीटर कम है। यह १० जून १९४६ यानी भारत की आजादी के साल भर पहले एक लोकतांत्रिक देश बना यहां दुनिया की आठवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है] यहां के लोगों का जीवन स्तर बहुत ही बढ़िया है।

असल में अप्रवासी मामले में आक्रामक नीति का आना वहां की सरकार में कट्टरवादी दल के सत्तासीन होने का नतीजा माना जा रहा है। अपने अस्थिर राजनीतिक इतिहास के लिए अभिशप्त इटली में दूसरे विश्व युद्ध के बाद अब तक ६६ सरकार बदल चुकी हैं। मार्च २०१८ में हुए चुनावों के बाद लगभग तीन महीने की अस्थिरता से गुजर कर उसे एक नया प्रधानमंत्री मिला। अब वहां गठबंधन की सरकार है। और जो गठबंधन सरकार की मुश्किलें होती हैं वह भी साथ हैं। नए प्रधानमंत्री बने कानून के प्रोफेसर रहे जुनैद कोंते की मुश्किल यह है कि वह मजबूरी में साथ आए दो बेमेल विचार दलों की गठबंधन सरकार के मुखिया हैं। यह गठबंधन व्यवस्था विरोधी फाइव स्टार मूवमेड पार्टी और धुर दक्षिणपंथी पार्टी लोक यानी नार्थ यांग के बीच है। जो गृहमंत्री ने अप्रवासी की नीति में बदलाव लाए हैं वह नार्थ लीग पार्टी के ही हैं।

सिर्फ इटली ही नहीं पूरी दुनिया में कुछ समय से कट्टरपंथी ताकतें सत्तासीन हुई हैं। सत्तासीन होते ही वह अपनी कट्टरता को इसी तरह की फैसले के जरिए अभिव्यक्त कर रही हैं। कई बार लगता भी है कि कहीं फिर से सौ साल पहले १९३० का वह दौर तो नहीं आने वाला है जब पूरी दुनिया में कट्टरता बढ़ी थी- हिटलर-मुसलोनी सरीखे राष्ट्र अध्यक्ष उभरे थे। लाखों लोगों को केवल नस्लीय आधार पर कल्लो गारद किया गया था। दूसरे विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि बननी शुरू हो गयी थी। अमेरिका] ब्रिटेन] रूस] फ्रांस] कोरिया] इटली में कट्टरपंथी ताकतें लगातार मजबूत हो रही हैं।

जहां तक इटली का प्रश्न है तो इस छोटे से देश का राजनीतिक इतिहास बहुत विविधतापूर्ण रहा है। यहां उन्नीसवीं शताब्दी में राष्ट्रभावना उभरी। कई सालों के विदेशी प्रभाव से मुक्त होकर १८७७ तक इटली तकरीबन एकीकूत हो चुका था और एक बड़ी शक्ति बन गया था। इसके बाद पहले विश्वयुद्ध में जीत। फिर राजनीतिक अस्थिरता का दौर भी आया। फासिस्ट पार्टी के नेता बेनितो मुसोलिनी इटली के तानाशाह बने। दूसरे विश्वयुद्ध में इटली को पराजय का साथ करना पड़ा। १९४६ में जनमत संग्रह के बाद इटली को गणतंत्र ?kksf"kr किया गया।

जानकारों की राय में इटली की वर्तमान सरकार में शामिल लीग पार्टी ने अपने उदय के साथ ही अप्रवासी विरोध अपनाया था। इसकी सोच में ही कट्टरता है और वह उत्तरी इटली और दक्षिणी इटली को बांटकर देखती है। बहरहाल भारी आर्थिक संकट से जूझ रहे इटली में गठबंधन की सरकार देश को कहां ले जाएगी] इसे लेकर वहां के लोगों में अनिश्चितता है।

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क्या 2019 में मोदी के खिलाफ विपक्ष महाघठबंदन बना पायेगा

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उत्तर प्रदेश के दो प्रमुख राजनीतिक दलों के नेता इन दिनों खुद को cs?kj होने से बचाने की कवायद में जुटे हैं। दलितों और पिछड़ों के नाम पर राजनीति करने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती और खुद को समाजवादी

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