बिहार के मोकामा में बाहुबली दुलारचंद की हत्या और अनंत सिंह की गिरफ्तारी ने राज्य की राजनीति को फिर से बाहुबल और सत्ता की कड़वी सच्चाई को सामने ला दिया है। इसी पृष्ठभूमि में प्रशांत किशोर का 150 सीटों का दावा और भाजपा का जन-असंतोष तथा वोट चोरी के आरोपों के बावजूद सत्ता में आने का आत्मविश्वास यह सवाल खड़ा करता है कि क्या राज्य में राजनीति महज जनता और मुद्दों की लड़ाई है या फिर कहीं अदृश्य रणनीतियां और समझौते तय कर रहे हैं कि सत्ता की कुर्सी पर आखिर कौन बैठेगा? क्या ‘पीके’ और भाजपा के बीच कोई अंदरूनी समझ विकसित हो चुकी है या यह मात्र राजनीतिक गणित की स्वाभाविक चाल है?
बिहार की राजनीति हमेशा से सत्ता, अपराध और सामाजिक समीकरणों के बोझ तले कराहती आई है। लेकिन इस बार हालात एक नए मोड़ पर खड़े दिखते हैं। पटना से लेकर गांवों की गलियों तक चर्चा है कि इस बार चुनाव सिर्फ राजनीतिक दलों के बीच नहीं, बल्कि सत्ता की निर्णायक प्रयोगशाला में तैयार हो रहे एक नए माॅडल, जनता के बीच सीधे उतरकर राजनीति गढ़ने के माॅडल और परम्परागत सत्ता संरचना के बीच है। मोकामा में
बाहुबली दुलारचंद की हत्या और बाहुबली अनंत सिंह की गिरफ्तारी इस बात की याद दिलाती है कि बिहार में अपराध, बाहुबल और राजनीति अब भी एक-दूसरे के बगैर अधूरे हैं। लेकिन इसी घटनाक्रम के बीच प्रशांत किशोर का यह दावा कि वे 150 सीटें जीतेंगे और भाजपा का यह आत्मविश्वास कि तमाम जन असंतोष, बेरोजगारी, महंगाई और वोटिंग प्रक्रिया पर सवालों के बावजूद वह सत्ता प्राप्त करेगी, सवाल उठाता है कि आखिर ऐसा हो क्या रहा है? बिहार में बाहुबली राजनीति कोई नई चीज नहीं है। लेकिन मोकामा की ताजा हिंसक घटना इस बात की गवाही देती है कि आज भी सत्ता का रास्ता कई जगहों पर बंदूक से होकर ही जाता है। दुलारचंद की हत्या केवल एक आपराधिक घटना नहीं, बल्कि सत्ता संरचना के उस अंधेरे कोने का आईना है जहां कानून अक्सर राजनीतिक हितों के सामने झुक जाता है। दूसरी तरफ अनंत सिंह जो खुद वर्षों तक बिहार की राजनीति में बाहुबल का चेहरा रहे, की गिरफ्तारी उसी पुराने अध्याय की पुनरावृत्ति प्रतीत होती है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या बिहार सच में बदल रहा है या फिर केवल चेहरे बदल रहे हैं, खेल वही है?
इसी परिदृश्य में प्रशांत किशोर उर्फ पीके की एंट्री ने राजनीतिक तापमान और बढ़ा दिया है। पीके कहते हैं कि ‘‘वे सिस्टम बदलने आए हैं, राजनीति को जनता के हाथ में वापस सौंपने आए हैं और बिहार को ‘सही मायनों में विकसित राज्य’ बनाना चाहते हैं। 665 दिन पैदल चलना, हजारों गांवों में संवाद, संगठन का निर्माण, फीडबैक सिस्टम, यह सब उन्हें बाकी नेताओं से अलग बनाता है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या यह जनयात्रा महज रणनीतिक आकलन है या सच में जनता की शक्ति को संगठित करने का ईमानदार प्रयास? उससे भी बड़ा सवाल यह कि 150 सीटों के उनके दावे के पीछे कौन-सा गणित है? बिहार की सामाजिक बनावट में जाति ही सबसे बड़ा कारक है। चाहे वाम दल हों या भाजपा, राजद या जेडीयू, हर दल अपनी-अपनी जाति समीकरणों के अनुसार रणनीति बनाता है। पीके इस पूरी संरचना को तोड़ने की बात करते हैं। लेकिन क्या वाकई जाति समीकरणों को एक चुनाव में तोड़ा जा सकता है? अगर ऐसा होता तो शायद बिहार आज इस मोड़ पर नहीं खड़ा होता कि एक तरफ बेरोजगारी ने युवाओं में बेचैनी भर दी है और दूसरी तरफ राजनीतिक बहसें अब भी जातीय चैखट में बंधी हैं। पीके राज्य में जाति को राजनीतिक मुख्य कारक से हटाने के प्रयास की बात करते हैं, लेकिन यह लड़ाई कितनी कठिन और लम्बी होगी इसका अंदाजा बिहार की दशकों पुरानी राजनीतिक परम्परा से लगाया जा सकता है।
अब दूसरी तरफ भाजपा है जिस पर विपक्ष वोट चोरी, वोटिंग मशीन में हेर-फेर, प्रशासनिक दबाव जैसे आरोप लगातार लगाता रहा है। राजनीतिक भाषणों में जनसरोकारों से अधिक धार्मिक और राष्ट्रवादी विमर्श प्रमुख दिखाई देता है। बिहार में भाजपा का जनाधार मजबूत है, लेकिन उसके खिलाफ भी असंतोष गहराता दिखता है। फिर भी भाजपा का आत्मविश्वास कम होने का नाम नहीं ले रहा। सवाल यह है कि आखिर यह आत्मविश्वास किस पर आधारित है? क्या यह संगठन और हिंदुत्व की क्षमता है, क्या यह उसके राष्ट्रीय नेतृत्व का प्रभाव है या फिर जैसा कई विश्लेषक कह रहे हैं, कोई अदृश्य राजनीतिक समझौता अदरक की तरह नीचे ही नीचे पक रहा है? इस संदर्भ में एक दिलचस्प तथ्य यह है कि प्रशांत किशोर का अतीत भाजपा से जुड़ा रहा है। वे 2014 में नरेंद्र मोदी के चुनावी अभियान के रणनीतिकार रहे। यह भी सच है कि बाद में वे मोदी सरकार और भाजपा के कई फैसलों के आलोचक बने। लेकिन क्या राजनीति में आलोचना रिश्तों का अंत होता है? इतिहास बताता है कि भारतीय राजनीति में आज के विरोधी कल के सहयोगी होते हैं। पीके आलोचना करते हैं, भाजपा इस आलोचना को जवाब नहीं देती, यह शांति ध्यान खींचती है। भाजपा के बड़े नेताओं के भाषणों में पीके का नाम तक नहीं आता। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि यह शांत दूरी संयोग है या रणनीति।
एक और दिलचस्प बिंदु यह है कि पीके घोषणा कर चुके हैं कि वे मुख्यमंत्री पद की दौड़ में नहीं हैं और चुनाव नहीं लड़ेंगे। ठीक वैसा ही ऐलान चिराग पासवान ने भी किया था। यानी दो ऐसे युवा चेहरे जो सम्भावित रूप से वोट काट सकते हैं, दोनों चुनाव से बाहर। संयोग? या रणनीति? यदि चुनाव परिणाम भाजपा के अनुकूल जाते हैं तो क्या यह साफ होगा कि मैदान दरअसल शुरुआत से ही भाजपा के लिए अनुकूल बना दिया गया था? और यदि महागठबंधन को नुकसान होता है तो क्या यह मान लिया जाए कि पीके के मैदान में उतरने का अंतिम परिणाम वही हुआ जिसका डर तेजस्वी यादव बार-बार जताते आए हैं, वोट बंटवारा और विपक्ष का नुकसान? यह भी ध्यान देने योग्य है कि पीके ने खुद कहा कि ‘‘जो पुरोहित विवाह करवाता है, वही श्राद्ध भी करवाता है।’’ यानी जो सरकार बनवा सकता है, गिरा भी सकता है। यह वाक्य बिहार की राजनीति में एक खुला संकेत है। क्या यह संकेत भाजपा की तरफ है? या राजद की तरफ? या यह केवल सत्ता में अपनी भूमिका के प्रति आत्मविश्वास का बयान?
2020 के चुनाव में महागठबंधन मात्र 15 सीटों से हार गया था और 40 सीटों पर हार-जीत का अंतर दो प्रतिशत से भी कम था। यानी यदि वोट का बंटवारा थोड़ा भी अलग होता, परिणाम अलग होते। इस पृष्ठभूमि में पीके की एंट्री और उनके दावे को कमतर आंकना भूल होगी। पर सवाल यह भी है कि पीके की यह रणनीति जनता के हित में है या सत्ता की जंग में एक नए प्रकार की कन्सल्टेंसी राजनीति को स्थापित करने की कोशिश? दूसरी तरफ तेजस्वी यादव हैं, युवाओं में लोकप्रिय, बेरोजगारी के मुद्दे पर मुखर, मगर दागी अतीत से घिरे। यदि पीके सच में बिहार को जाति राजनीति से बाहर निकालना चाहते हैं तो क्या उनकी रणनीति तेजस्वी जैसे नेताओं को राजनीतिक तौर पर कमजोर करने में भी योगदान देगी? और यदि ऐसा हुआ तो क्या इसका लाभ भाजपा को नहीं मिलेगा? यह सवाल सिर्फ विपक्ष का नहीं, राजनीतिक विश्लेषकों का भी है। इसी क्रम में सबसे बड़ा प्रश्न है कि क्या पीके और भाजपा के बीच कोई अदृश्य समझौता है? इस सवाल का कोई प्रत्यक्ष उत्तर नहीं है, न किसी नेता ने इस पर स्पष्ट टिप्पणी की है। लेकिन राजनीति में कई बार मौन भी संकेत होता है। भाजपा पीके पर हमला नहीं करती। पीके भाजपा को मुख्य लक्ष्य बताने से बचते हैं और ज्यादा फोकस नीतीश और राजद पर रखते हैं। क्या यह महज रणनीतिक फ्रेमिंग है या राजनीतिक सौहार्द? इस सवाल का उत्तर बिहार की जनता आने वाले समय में देगी।
इसी राजनीति के बीच याद रखना होगा कि बिहार आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के संकट में है। मोकामा की गोलीबारी और अनंत सिंह की गिरफ्तारी हमें यकीन दिलाते हैं कि विकास का दावा तभी सार्थक होगा जब कानून का शासन, अपराध का अंत और नीति का वर्चस्व स्थापित होगा। पीके का माॅडल सफलता पाए या नहीं, भाजपा फिर सत्ता में लौटे या महागठबंधन कमबैक करे, बिहार की जनता को यह पूछना ही होगा कि आखिर सत्ता में आने वाले दल की प्राथमिकता क्या होगी? युवाओं का भविष्य या केवल राजनीतिक समीकरण? जो तय है वह यह कि इस बार का चुनाव केवल सीटों का गणित नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रयोगों की परीक्षा भी है। अगर पीके जीतते हैं तो यह भारतीय राजनीति में एक नया माॅडल बन सकता है। यदि भाजपा फिर जीतती है तो यह साबित होगा कि राष्ट्रीय नेतृत्व और संगठन का प्रभाव अभी भी अटूट है और यदि तेजस्वी वापसी करते हैं तो यह नई पीढ़ी की राजनीतिक चेतना का संकेत होगा। पर बिहार की असली जीत तब होगी जब सत्ता का चेहरा चाहे जो हो, राज्य अपराध मुक्त, बेरोजगारी मुक्त विकास की राह पर स्थाई रूप से आगे बढ़ता दिखे। राजनीति बदले या न बदले, जनता बदल रही है। और इस बदली हुई जनता के बीच अब कोई चुनावी चतुराई लम्बे समय तक नहीं टिकती। बिहार का जनादेश केवल सीटें नहीं, सियासत का भविष्य तय करेगा और शायद इस बार जनता सच में तय करेगी कि कौन आएगा और कौन जाएगा।