सौ वर्षों की यात्रा में आरएसएस निश्चित रूप से एक विशाल संगठन बन चुका है। उसके सामाजिक कार्यक्रमों और अनुशासन की सराहना की जा सकती है। परन्तु भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास में उसका स्थान एक दर्शक के समान रहा, न कि एक सेनानी के रूप में। यह फर्क इतिहास को झुठलाने से नहीं मिटाया जा सकता। आखिरकार, स्वतंत्रता-संघर्ष केवल किसी विशेष विचारधारा का नहीं, बल्कि पूरे भारतीय समाज के सामूहिक जागरण का परिणाम था और उसमें वे सब शामिल थे जिन्होंने किसी धर्म, जाति या समूह से ऊपर उठकर आजादी को अपना लक्ष्य बनाया। आरएसएस का योगदान इस कहानी के राजनीतिक अध्याय में नहीं, बल्कि सामाजिक अध्याय में लिखा जाएगा
पंद्रह अगस्त 2025 की सुबह लाल किले की प्राचीर से जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्र को सम्बोधित किया, तो उनके भाषण का एक हिस्सा इतिहास के गलियारों में गूंज। प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के 100 वर्ष पूरे होने का उल्लेख करते हुए कहा कि ‘‘आरएसएस ने देश की आजादी और राष्ट्र-निर्माण में अद्वितीय योगदान दिया है। लाखों स्वयंसेवकों ने समाज-सेवा और राष्ट्र के उत्थान के लिए कुर्बानियां दी हैं।’’ प्रधानमंत्री का यह वक्तव्य असाधारण था, क्योंकि यह पहली बार था जब स्वतंत्रता दिवस जैसे संवैधानिक प्रतीक-मंच से किसी प्रधानमंत्री ने आरएसएस की इस रूप में प्रशंसा की। यह कथन केवल राजनीतिक नहीं था, बल्कि यह एक ऐतिहासिक संकेत भी था, जो अतीत की उस परत को छूता है जहां से आरएसएस की भूमिका पर दशकों से बहस चल रही है। क्या वास्तव में आरएसएस ने भारत की आजादी की लड़ाई में योगदान दिया था? और अगर दिया था, तो वह किस रूप में था?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्म 27 सितम्बर 1925 को नागपुर में डाॅ. केशव बलिराम हेडगेवार ने किया। हेडगेवार मूलतः कांग्रेस से जुड़े हुए थे और खिलाफत आंदोलन में उन्होंने सक्रिय भागीदारी की थी। उन्हें एक बार जेल भी जाना पड़ा था। किंतु मापला विद्रोह और खिलाफत आंदोलन के धार्मिक स्वरूप ने उन्हें यह सोचने पर मजबूर किया कि स्वतंत्रता-संघर्ष की दिशा हिन्दू समाज को सशक्त किए बिना अधूरी रह जाएगी। इसी पृष्ठभूमि में उन्होंने आरएसएस की नींव रखी कृ एक ऐसा संगठन जो राजनीतिक संघर्ष से अलग रहकर हिन्दू समाज को एकजुट करने और अनुशासित बनाने का लक्ष्य रखे। आरएसएस की शाखाओं में देशभक्ति, अनुशासन और सामूहिक जीवन के मूल्य सिखाए जाते थे, लेकिन संगठन ने स्वयं को ‘राजनीतिक’ नहीं बल्कि ‘सांस्कृतिक’ बताया।
इस प्रारम्भिक विचारधारा का असर यही रहा कि आरएसएस ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध किसी प्रत्यक्ष राजनीतिक आंदोलन में भाग नहीं लिया। आरएसएस के इतिहास पर गहराई से काम करने वाले अध्येता प्रो. शम्सुल इस्लाम लिखते हैं कि आरएसएस का मुख्य उद्देश्य अंग्रेजों को देश से बाहर निकालना नहीं बल्कि ‘हिन्दू समाज का पुनर्गठन’ था। अंग्रेजी पत्रिका ऑर्गेनाइजर (Organizer) जो संघ का मुखपत्र थी, ने 14 अगस्त 1947 के अपने अंक में राष्ट्रीय ध्वज के रूप में तिरंगे का विरोध किया था और लिखा था कि ‘‘तीन रंगों का झंडा अशुभ है, हिन्दू इसे कभी स्वीकार नहीं करेगा।’’ यह विचारधारा बताती है कि संघ की राष्ट्र-परिकल्पना उस समय के जन-राष्ट्रवाद से भिन्न थी।
आरएसएस के पहले सरसंघचालक हेडगेवार ने एक बार नमक सत्याग्रह में भाग लिया था, लेकिन इतिहासकारों का मानना है कि यह सहभागिता संगठनात्मक नहीं बल्कि व्यक्तिगत स्तर पर थी। हेडगेवार के बाद जब माधव सदाशिव गोलवलकर ‘गुरुजी’ के रूप में संघ के दूसरे प्रमुख बने, तो यह रुख और भी स्पष्ट हो गया। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक Bunch of Thoughts में लिखा, ‘‘हमें यह याद रखना चाहिए कि अपनी प्रतिज्ञा में हम धर्म और संस्कृति की रक्षा के माध्यम से देश की आजादी की बात करते हैं इसमें अंग्रेजों को यहां से भगाने का कोई उल्लेख नहीं है।’’
यह उद्धरण आरएसएस की राजनीतिक स्थिति को पूरी तरह स्पष्ट करता है- संगठन का ध्यान ब्रिटिश सत्ता के विरोध में नहीं, बल्कि ‘आंतरिक शक्ति-संगठन’ में था। 1942 के आंदोलन के दौरान जब पूरा देश जल रहा था, आरएसएस के भीतर विचार हुआ कि क्या इसमें भाग लिया जाए। गोलवलकर ने बाद में लिखा, ‘‘1942 में कई लोगों के मन में व्याकुलता थी, पर संघ ने स्वयं सीधे कोई कार्यवाही न करने का निश्चय किया।’’ यह स्वीकारोक्ति बताती है कि संघ ने जानबूझकर ब्रिटिश विरोधी आंदोलन से दूरी बनाए रखी।
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में जिस‘कुर्बानी’ का उल्लेख किया, उसका संदर्भ शायद चिमूर जैसी घटनाओं से जोड़ा गया होगा। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान विदर्भ के चिमूर और अस्टी इलाकों में जनता ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह किया था। आरएसएस के कुछ समर्थक लेखों में दावा किया गया है कि वहां संघ के स्वयंसेवक सक्रिय थे और उन्होंने अंग्रेजी थानों पर हमला किया। किंतु इस दावे का ऐतिहासिक समर्थन कमजोर है। ब्रिटिश प्रशासन की रिपोर्टों में आरएसएस का उल्लेख नहीं मिलता। इतिहासकारों के अनुसार यह विद्रोह कांग्रेस और स्थानीय ग्रामीण नेतृत्व के तहत हुआ था, संघ की संगठनात्मक भूमिका का कोई पुख्ता प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
स्वतंत्रता के बाद जब भारत विभाजन की विभीषिका सामने आई, तब आरएसएस ने सक्रिय राहत कार्य किए। दिल्ली, पंजाब और बंगाल में स्वयंसेवकों ने शरणार्थी शिविरों में काम किया, महिलाओं और बच्चों को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाने में मदद की। इस मानवीय भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। पर यह गतिविधि ‘ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्वतंत्रता- संघर्ष’ के परिप्रेक्ष्य में नहीं आती, बल्कि स्वतंत्र भारत के निर्माणकाल में सामाजिक-सहायता की श्रेणी में आती है।
इतिहासकारों का एक बड़ा वर्ग मानता है कि आरएसएस की विचारधारा उस ‘सेक्युलर राष्ट्रवाद’ से भिन्न थी जिसने भारत की आजादी की दिशा तय की। महात्मा गांधी, नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद जैसे नेताओं का उद्देश्य था एक ऐसा राष्ट्र बनाना जो सभी धर्मों और जातियों के लिए समान हो। इसके विपरीत आरएसएस का राष्ट्रवाद हिन्दू सांस्कृतिक पहचान पर केंद्रित था। यही कारण था कि संघ ने तिरंगे की जगह भगवा झंडे को अपना प्रतीक माना।
आज जब प्रधानमंत्री आरएसएस की कुर्बानियों का उल्लेख करते हैं, तो वह सिर्फ इतिहास की व्याख्या नहीं करते, बल्कि उसे एक नया राजनीतिक अर्थ देते हैं। यह उस विमर्श का हिस्सा है जो पिछले दो दशकों में तेजी से उभरा है, जहां आरएसएस को ‘राष्ट्र-निर्माण की रीढ़’ के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यह विमर्श 1990 के दशक के बाद अधिक प्रमुख हुआ, जब भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय राजनीति में स्थायी स्थान पाया। इसके बाद आरएसएस के इतिहास का पुनर्मूल्यांकन हुआ, न केवल उसके कार्यों का, बल्कि उसके मौन का भी।
यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आरएसएस के संस्थापक और प्रेरणा-स्रोत विनायक दामोदर सावरकर स्वयं स्वतंत्रता-संघर्ष के बाद के चरणों में अंग्रेजी शासन से टकराने की जगह उनके साथ ‘संवैधानिक सहयोग’ की राह पर चले। उन्होंने अंडमान की सेल्युलर जेल से माफी मांगी और रिहा होने के बाद ब्रिटिश प्रशासन से पेंशन ली। वे अंग्रेजों के लिए भारतीयों की सैन्य भर्ती का प्रचार भी करते रहे। सावरकर का विचार ‘हिंदू राष्ट्र’ था, जिसमें भारत की पहचान धार्मिक-सांस्कृतिक आधार पर तय होती थी। आरएसएस ने इसी विचार को संगठनात्मक रूप दिया।
आलोचक इस पूरे परिदृश्य को देखते हुए कहते हैं कि आरएसएस की विचारधारा और स्वतंत्रता-संघर्ष के मूल्यों में मूलभूत विरोध था। आजादी का आंदोलन एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समावेशी भारत के लिए लड़ा गया था, जबकि आरएसएस का स्वप्न हिन्दू राष्ट्र की स्थापना पर केंद्रित था। प्रधानमंत्री का लाल-किले वाला भाषण इस ऐतिहासिक विवाद को एक नया औचित्य देता है। उन्होंने यह कहकर कि ‘‘आरएसएस ने आजादी की लड़ाई में कुर्बानियां दीं’’, एक ऐसा बयान दिया है जो राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण, पर ऐतिहासिक दृष्टि से विवादास्पद है। आजादी की लड़ाई के प्रामाणिक दस्तावेजों, जेल रजिस्टर, कांग्रेस रिकाॅर्ड्स, ब्रिटिश खुफिया रिपोर्ट्स में आरएसएस के नाम का उल्लेख दुर्लभ है। इसके विपरीत नेहरू, गांधी, बोस, भगत सिंह, राजगुरु, सावरकर, अब्दुल गफ्फार खान, अशफाकुल्ला खान जैसे अनगिनत नाम उन सूचियों में दर्ज हैं जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए प्रत्यक्ष संघर्ष किया।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि आरएसएस को स्वतंत्र भारत में पहले-पहल महात्मा गांधी की हत्या के बाद प्रतिबंधित किया गया था। 1948 में संगठन पर प्रतिबंध लगाया गया और तभी सरकार ने उससे ‘संविधान के प्रति निष्ठा’ की लिखित शपथ ली, तब जाकर 1949 में प्रतिबंध हटाया गया। इस प्रसंग से भी यह स्पष्ट है कि नवस्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक सरकार और आरएसएस के बीच विश्वास का रिश्ता शुरुआत में सहज नहीं था।
फिर भी, बीते दशकों में आरएसएस भारत के सबसे बड़े संगठनों में से एक बन चुका है। समाज-सेवा, शिक्षा और आपदा राहत के क्षेत्र में उसके कार्यों को व्यापक मान्यता भी मिली है। किंतु जब बात ‘स्वतंत्रता-संघर्ष’ की आती है, तो इतिहास और स्मृति के बीच यह स्पष्ट अंतर बना रहता है। यहां सवाल यह नहीं कि आरएसएस ने कुछ किया या नहीं किया, बल्कि यह कि इतिहास के प्रमाण क्या कहते हैं। इतिहास को राजनीति के चश्मे से देखने पर वह बदल जाता है, जबकि प्रमाण उसे स्थिर रखते हैं। प्रधानमंत्री का बयान इतिहास के दस्तावेजों के ऊपर एक राजनीतिक व्याख्या है, एक ऐसा विमर्श जो आज के भारत में राष्ट्रवाद की परिभाषा को बदलने की कोशिश कर रहा है।
सौ वर्षों की यात्रा में आरएसएस निश्चित रूप से एक विशाल संगठन बन चुका है। उसके सामाजिक कार्यक्रमों और अनुशासन की सराहना की जा सकती है। परन्तु भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास में उसका स्थान एक दर्शक के समान रहा, न कि एक सेनानी के रूप में। यह फर्क इतिहास को झुठलाने से नहीं मिटाया जा सकता। आखिरकार, स्वतंत्रता-संघर्ष केवल किसी विशेष विचारधारा का नहीं, बल्कि पूरे भारतीय समाज के सामूहिक जागरण का परिणाम था और उसमें वे सब शामिल थे जिन्होंने किसी धर्म, जाति या समूह से ऊपर उठकर आजादी को अपना लक्ष्य बनाया। आरएसएस का योगदान इस कहानी के राजनीतिक अध्याय में नहीं, बल्कि सामाजिक अध्याय में लिखा जाएगा। प्रधानमंत्री का लाल-किले से दिया गया वक्तव्य इस कहानी का नया पृष्ठ जोड़ता है, लेकिन इतिहास की किताबों में जो पहले से लिखा है, उसे मिटा नहीं सकता

