एसआईआर पर सियासी संग्राम

चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के दूसरे चरण की घोषणा होते ही देशभर में सियासी हलचल तेज हो गई है। सोमवार को आयोग ने बताया कि अब 12 राज्यों में यह प्रक्रिया लागू होगी, और उसी पल से विपक्षी दलों ने इसे लेकर तीखे सवाल उठाने शुरू कर दिए। तमिलनाडु से लेकर पश्चिम बंगाल, बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश और दिल्ली तक यह मुद्दा राजनीतिक बहस का केंद्र बन गया है। विपक्ष इसे भाजपा और चुनाव आयोग की मिलीभगत का मामला बता रहा है, जबकि भाजपा इसे चुनाव व्यवस्था की शुचिता और देशहित से जुड़ा कदम कहकर बचाव कर रही है।

चुनाव आयोग के अनुसार यह पहल मतदाता सूची को ‘शुद्ध और पारदर्शी’ बनाने के लिए है, ताकि फर्जी और अवैध मतदाताओं को हटाया जा सके और हर योग्य नागरिक का नाम सूची में सुनिश्चित किया जा सके। आयोग का तर्क है कि यह उसकी संवैधानिक जिम्मेदारी के अंतर्गत आता है और समय-समय पर मतदाता सूची की समीक्षा और सुधार होना जरूरी है। लेकिन जैसे ही इस प्रक्रिया का ऐलान हुआ, राजनीतिक बयानों और आरोप- प्रत्यारोपों की बाढ़ आ गई।

सबसे पहला और तीखा हमला तमिलनाडु से आया, जहां सत्ताधारी डीएमके ने चुनाव आयोग की मंशा पर सीधा सवाल उठा दिया। डीएमके प्रवक्ता सर्वानन अन्नादुरई ने कहा कि जिस तरह से यह प्रक्रिया लाई जा रही है, उससे यह स्पष्ट है कि यह नागरिकता जांचने और मतदान अधिकार सीमित करने का एक तरीका बन रही है। उन्होंने पूछा कि असम जैसे राज्य को इस प्रक्रिया से बाहर क्यों रखा गया, जबकि वही नागरिकता और घुसपैठ का मुद्दा सबसे ज्यादा उठता रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि 2003 को कटऑफ वर्ष क्यों बनाया गया और इससे किसे राजनीतिक लाभ मिलेगा। डीएमके का आरोप है कि यह सब भाजपा की राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है और चुनाव आयोग अब पहले जैसा स्वतंत्र नहीं रहा।

तमिलनाडु में इस मुद्दे ने इतनी तेजी से तूल पकड़ा कि मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने सीधे आरोप लगाया कि यह मताधिकार पर हमला है और इसे किसी हाल में लागू नहीं होने दिया जाएगा। राज्य सरकार और डीएमके नेताओं का मानना है कि इस प्रक्रिया के जरिए दक्षिण भारत के राज्यों में विपक्षी वोटों को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है। तमिलनाडु में हाल ही में आयोग ने स्थानीय प्रशासन से व्यापक दस्तावेजी जानकारी मांगी, जिसके बाद यह दावा और भी मजबूत हो गया कि एसआईआर केवल मतदाता सूची सुधार नहीं, बल्कि डेमोग्राफिक डेटा जुटाने का प्रयास भी हो सकता है। डीएमके ने इसे लोकतांत्रिक प्रणाली पर हमला करार दिया और कहा कि जनता को भ्रमित नहीं किया जाएगा।

इधर पश्चिम बंगाल में भी इसका जबरदस्त विरोध देखने को मिला। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसे एक छिपा हुआ एनआरसी बताया और कहा कि भाजपा विपक्षी राज्यों में मतदाता सूची में हेरफेर करना चाहती है ताकि चुनावों में फायदा मिल सके। उन्होंने चेतावनी दी कि बंगाल किसी भी तरह का वोटर उत्पीड़न बर्दाश्त नहीं करेगा। टीएमसी ने स्पष्ट किया कि वह पारदर्शी मतदाता सूची के पक्ष में है, लेकिन एसआईआर के नाम पर यदि वैध मतदाताओं को परेशान किया गया तो वह सड़क से लेकर सदन तक इसका विरोध करेगी, वहीं दूसरी तरफ बंगाल भाजपा ने टीएमसी पर पलटवार करते हुए कहा कि ममता सरकार इसलिए परेशान है क्योंकि उसके वोटबैंक में अवैध बांग्लादेशी और रोहिंग्या मतदाता शामिल हैं। भाजपा नेता केया घोष ने कहा कि एसआईआर के बाद फर्जी नाम हटेंगे और इसी डर से टीएमसी इतना हंगामा कर रही है। उनका कहना है कि भाजपा चाहती है कि हर नागरिक का वोट सुरक्षित हो, लेकिन जो अवैध हैं, उन्हें हटना ही चाहिए।

उत्तर प्रदेश में भी यह मुद्दा गरमाया है, हालांकि फिलहाल राज्य में एसआईआर की घोषणा नहीं हुई है, पर पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस पर कड़ा रुख अपनाया है। उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा चुनाव जीतने के लिए जनता का वोट छीनना चाहती है। अखिलेश ने कहा कि जो दल चुनाव मैदान में जीत नहीं पाता, वह मताधिकार पर हमला शुरू कर देता है। उन्होंने दावा किया कि यूपी में पहले भी बड़ी संख्या में मतदाताओं के नाम हटाए गए थे और यह देश में लोकतंत्र को कमजोर करने की कोशिश है। समाजवादी पार्टी ने चुनाव आयोग को ज्ञापन भी भेजा है और निष्पक्ष प्रक्रिया की मांग की है।

कांग्रेस भी इस मुद्दे पर जोरदार तरीके से विपक्ष के साथ खड़ी हो गई है। कांग्रेस नेताओं का कहना है कि भाजपा चुनावी हार के डर से मतदाता सूची में हेरफेर करा रही है। पार्टी ने कहा कि लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए कांग्रेस सड़क से संसद तक संघर्ष करेगी। कुछ नेताओं ने आरोप लगाया कि यदि यह प्रक्रिया पारदर्शी है तो भाजपा को विरोध से डर क्यों लग रहा है और वह इसे लेकर इतने आक्रामक रुख में क्यों है। कांग्रेस ने इसे लोकतंत्र की जड़ों पर हमला बताया।

विपक्षी गठबंधन इंडिया ब्लाॅक ने तो चुनाव आयोग को सीधा कटघरे में खड़ा करते हुए कहा कि जब विपक्षी शासित राज्यों में इस तरह की प्रक्रिया तेज होती है और सत्तारूढ़ दल वाले राज्यों में शांत तो यह निष्पक्षता पर सवाल उठाता है। बिहार में भी विपक्षी दलों ने कहा कि पहले के चरण में हजारों नाम हटाए गए और अब इसे पूरे देश में लागू करके खास मतदाताओं को लक्ष्य बनाया जा रहा है। उधर भाजपा ने विपक्ष के आरोपों को नकारते हुए कहा कि जो लोग देशहित के हर कदम का विरोध करते हैं, वे अब भी वही कर रहे हैं। भाजपा प्रवक्ता शहजाद पूनावाला ने कहा कि मतदान सूची का शुद्धिकरण चुनाव आयोग का संवैधानिक दायित्व है और विपक्ष इसे राजनीतिक मुद्दा बनाकर जनता को गुमराह करना चाहता है। उन्होंने कहा कि इंडी गठबंधन उत्तर भारत में कुछ स्थानों पर खुद एसआईआर की मांग कर चुका है और अब इसका विरोध कर रहा है, यह उनकी दोहरी राजनीति को दिखाता है।

भाजपा नेता दिलीप घोष ने कहा कि कोई भी बांग्लादेशी भारत का मतदाता नहीं बन सकता और न बनना चाहिए, और जो वाकई भारतीय हैं, उनके वोट सुरक्षित रहेंगे। उन्होंने कहा कि जो लोग अवैध मतदाताओं पर राजनीति करते हैं, वे अब बेनकाब हो रहे हैं।

एसआईआर के समर्थकों का कहना है कि देश में कई वर्षों से मतदाता सूची में गड़बड़ी, डुप्लीकेट वोटर, मृत लोगों के नाम और अवैध नागरिकों के जुड़ने की शिकायतें आती रही हैं। ऐसे में एक बड़े स्तर पर जांच और सुधार होना जरूरी है। उनका तर्क है कि इससे लोकसभा और विधानसभा चुनावों में पारदर्शिता बढ़ेगी और चुनावी भ्रष्टाचार रुकेगा। भाजपा नेताओं का कहना है कि विपक्ष केवल इस डर से विरोध कर रहा है कि उसका फर्जी वोट बैंक खत्म हो जाएगा। हालांकि आलोचक इसे एक संवेदनशील सामाजिक-राजनीतिक कदम मानते हैं जिसे जल्दबाजी में लागू नहीं किया जाना चाहिए। उन्हें भय है कि जिनके पास दस्तावेज पूरे नहीं हैं, प्रवासी, गरीब, असंगठित क्षेत्र में रहने वाले लोग या अल्पसंख्यक समुदाय के नागरिकों को परेशान किया जा सकता है। विपक्ष ने कहा कि भाजपा सत्ता में रहते हुए कई बार प्रशासनिक मशीनरी का दुरुपयोग कर चुकी है, इसलिए इस बार सतर्क रहना जरूरी है।

यह भी एक बड़ा प्रश्न है कि क्या यह प्रक्रिया चुनावों के इतने नजदीक लागू की जानी चाहिए। विरोधी दलों का कहना है कि यदि आयोग को मतदाता सूची की शुद्धता ही चाहिए थी तो यह प्रक्रिया चुनाव समाप्त होने के बाद, पर्याप्त समय देकर शुरू की जाती ताकि नागरिकों को दस्तावेज जुटाने और सत्यापन कराने में कठिनाई न हो।
एक बात स्पष्ट हैर: इस मुद्दे ने राजनीतिक बहस को नई दिशा दे दी है और आने वाले समय में यह चर्चा संसद से लेकर गांव की चैपाल तक सुनी जाएगी। चुनावी राजनीति के इस दौर में एसआईआर केवल एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक राजनीति का बड़ा रणक्षेत्र बन चुका है।

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