world

कट्टरवाद की जकड़ में बांग्लादेश

कट्टरवाद की जकड़ में बांग्लादेश
बांग्लादेश आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां एक ओर निर्वासन में बैठी पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना चुनाव से अपनी पार्टी अवामी लीग को बाहर रखने के खिलाफ चेतावनी दे रही हैं और उन पर मानवता विरोधी अपराधों के मुकदमे में अब 17 नवम्बर को फैसला आने वाला है वहीं दूसरी तरफ प्रो. मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार पर कट्टर धार्मिक समूहों के दबाव में प्राथमिक स्कूलों से संगीत और शारीरिक शिक्षा के शिक्षक पद हटाने का आरोप लग रहा है। हसीना कहती हैं कि करोड़ों समर्थकों को वोट से वंचित करना लोकतंत्र को खोखला करेगा जबकि कट्टरवाद के आरोपों पर सरकार का कहना है कि शिक्षा नीति में बदलाव पर पुनर्विचार होगा। लेकिन बहस यही है कि कहीं यह नया बांग्लादेश कट्टरपंथ के दबाव में नीति तय तो नहीं कर रहा

वर्ष 2024 की उथल-पुथल से निकला बांग्लादेश आज एक नए द्वंद्व से जूझ रहा है, लोकतांत्रिक वैधता और
सामाजिक-शैक्षणिक बहुलता बनाम राजनीतिक-धार्मिक दबाव। यही वजह है कि आगामी महीनों को देश का ‘निर्णायक मौसम’ कहा जा रहा है। एक तरफ निर्वासित पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना हैं जो दिल्ली से चेतावनी दे रही हैं कि उनकी पार्टी ‘अवामी लीग’ को चुनाव से बाहर रखने का मतलब होगा लाखों मतदाताओं को
लोकतंत्र से काट देना तो दूसरी ओर अंतरिम प्रधानमंत्री प्रो. मोहम्मद यूनुस का प्रशासन है जिसे अब यह समझाना पड़ रहा है कि प्राथमिक स्कूलों में संगीत (म्यूजिक) और शारीरिक शिक्षा (पीई) के शिक्षक पद क्यों हटा दिए गए। क्या यह महज प्रशासनिक ‘री-डिजाइन’ है या कट्टरपंथी दबाव के आगे झुकना? अक्टूबर के आखिरी हफ्ते में हसीना का बयान वैश्विक सुर्खियों में तब आया जब उन्होंने कहा कि अवामी लीग पर प्रतिबंध और चुनावी प्रक्रिया से बाहर रखना ‘स्वयं विनाशकारी’ कदम है और इससे व्यापक बहिष्कार का खतरा है। यह बयान उन्होंने निर्वासन स्थल दिल्ली से दिया जहां वे अगस्त 2024 के छात्र-नेतृत्व वाले विद्रोह के बाद पहुंची थीं। इसी विद्रोह के दौरान हुए दमन पर उनके खिलाफ जो मुकदमे चले उनमें अब 17 नवम्बर को फैसला तय है। अभियोजन पक्ष मौत की सजा तक की मांग कर चुका है। हसीना इन आरोपों को राजनीति से प्रेरित बताती हैं और अदालतों को ‘कंगारू कोर्ट’ कहकर खारिज करती हैं।

‘अवामी लीग’ के संदर्भ में स्थिति साफ है। अंतरिम सरकार ने मई 2025 में एंटी-टेररिज्म एक्ट के तहत पार्टी की गतिविधियों पर रोक लगा दी थी। सरकार का तर्क, राष्ट्रीय सुरक्षा और युद्ध-अपराध जांच। हसीना का जवाब, यह राजनीति से प्रेरित बहिष्कार है जो लोकतंत्र के ढांचे पर चोट करता है। चुनावी कैलेंडर अब 2026 के लिए सेट है और ‘बीएनपी’ तथा ‘जमात-ए-इस्लामी’ जैसी ताकतें फिर से केंद्र में आ चुकी हैं। यह सब कुछ मिलकर उस पुराने द्वंद्व को लौटा रहा है, जहां बांग्लादेश की राजनीति दशकों से घूमती रही वर्चस्व, वैधता और सख्ती के बीच।  इसी पृष्ठभूमि में शिक्षा-नीति का ताजा विवाद उभरा है जिसने राजनीतिक बहस को नई धार दे डाली है। शिक्षा मंत्रालय ने हाल के महीनों में एक ऐसी योजना तैयार की थी जिसमें प्राथमिक स्कूलों के लिए संगीत और शारीरिक शिक्षा के सहायक शिक्षक पद बनाए गए थे, समग्र (होलिस्टिक) शिक्षा की दिशा में यह एक स्वागत योग्य कदम माना गया। लेकिन नवम्बर के पहले हफ्ते में मंत्रालय ने अचानक इन पदों को वापस ले लिया। सरकार का कहना है कि ‘‘प्लानिंग में खामी थी, इतने कम शिक्षक इतने विशाल नेटवर्क में असरकारी नहीं होंगे।’’ इसलिए माॅडल सुधरकर आएगा पर आलोचक इसे ‘दबाव में पलटी’ बताकर सवाल उठा रहे हैं कि क्या सचमुच यह शैक्षणिक-प्रशासनिक संशोधन है या कट्टरपंथी समूहों के विरोध का नतीजा?
स्थानीय रिपोर्टों के मुताबिक इस योजना का विरोध कुछ इस्लामवादी समूहों ने ‘गैर-इस्लामी’ एजेंडा कहकर किया था। मीडिया कवरेज में यह बात उभरी कि महीनों से म्यूजिक, डांस, पीई शिक्षक पदों को लेकर सभाएं, बयान और चेतावनियां चल रही थीं, कई जगह यह तर्क दिया गया कि बच्चों को ‘इस्लामी अध्ययन’ से भटकाया जाएगा। कई प्रतिष्ठित विश्लेषकों और शिक्षाविदों ने चेताया कि कला और खेल को स्कूल के ढांचे से हटाना पीढ़ियों पर नकारात्मक असर डालेगा। बांग्लादेश के प्रतिष्ठित समाचार पत्र में दैनिक ‘द स्टार’ इस फैसले पर तीखी चिन्ता दर्ज की है।
जिस सरकार को 2024 के बाद ‘संस्थागत सुधार’ और ‘खुला लोकतंत्र’ का चेहरा बताया गया, वही सरकार अब ‘धार्मिक दबाव’ के आगे झुकने का आरोप झेल रही है। चुनाव-पूर्व फिजा में इसे एक प्रतीक की तरह देखा जा रहा है कि क्या अंतरिम प्रशासन नीतिगत फैसले विशेषज्ञता, डेटा और बच्चों के हित में करेगा, या सड़कों के शोर और दबाव समूहों के इशारों पर। यही वह जोड़ है जो शिक्षा विवाद को सीधा अवामी लीग-प्रकरण से जोड़ देता है। एक ओर ‘प्रतिबंध’ और ‘ट्रायल’ की राजनीति, दूसरी तरफ ‘नीति-पलटी’ और ‘दबाव संवेदनशीलता’, दोनों मिलकर यह धारणा गढ़ते हैं कि बांग्लादेश की संक्रमणकालीन राजनीति खुद अपनी कसौटी पर है। हसीना के समर्थक इस विवाद को अपने नैरेटिव में ऐसे जोड़ रहे हैं कि जब एक बड़े दल को एंटी-टेरर कानून के तहत बाहर रखा गया और अब शिक्षा में बहुलता के घटकों (कला खेल) को किनारे किया जा रहा है तो यह लोकतंत्र और सेक्युलर-स्पेस दोनों का सिमटना है। वे कहते हैं कि चुनाव बिना अवामी लीग के और पाठ्यचर्या बिना संगीत/पीई के, दोनों कदम मिलकर ‘नए बांग्लादेश’ की घुटती हुई तस्वीर हैं। इसके उलट सरकार समर्थकों का तर्क है कि अवामी लीग पर रोक ‘कानून और जांच’ की वजह से है और शिक्षा में बदलाव ‘कार्यान्वयन-यथार्थ’ के कारण है। दोनों को धार्मिक/राजनीतिक षड्यंत्र बताना अतिशयोक्ति है।
न्यायिक मोर्चे पर टिक-टिक करती घड़ी अलग तनाव जोड़ रही है। 17 नवम्बर नजदीक है और अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण में हसीना के केस में अभियोजन ने जो भाषा इस्तेमाल की। ‘अपराधों का केंद्र’, ‘1400 मौतों की जवाबदेही’ इत्यादि वह सख्त है। ‘राॅयटर्स’, ‘फ्रांस 24’ और ढाका की सरकारी एजेंसी ‘बीएसएस’, तीनों की रिपोर्टिंग से यह स्पष्ट है कि फैसले की दिशा जो भी हो, असर गहरा होगा। सजा हुई तो निर्वासन की राजनीति और बरी हुईं तो अंतरिम सरकार की नैतिक स्थिति पर सवाल। फिलहाल, हसीना की सार्वजनिक लाइन वही है,
राजनीतिक प्रतिशोध, फिक्स्ड-ट्रायल और लोकतांत्रिक बहिष्कार के खिलाफ वैश्विक सहानुभूति की अपील।  इलेक्टोरल मैप पर दूसरी रेखाएं भी खिंच रही हैं। 2026 के वोट का खाका बन रहा है। ‘बीएनपी’ के उभार के साथ-साथ जमात-ए-इस्लामी की सामाजिक पकड़ की बातें भी फिर से उठी हैं। यूनुस सरकार ने अप्रैल 2026 की समय-सीमा का संकेत पहले ही दिया था पर राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का ‘माहौल’ तभी बनता है जब सभी प्रमुख धाराएं भाग लें। बहिष्कार और बैन से निकला जनादेश वैधता के सवालों से घिर जाता है। हसीना के ‘वोटर बाॅयकाॅट’ वाले सिग्नल ने इसी वैधता पर निशाना साधा है और यही वह जगह है जहां शिक्षा विवाद बतौर ‘संकेत’ और बड़ा हो जाता है। समाज का बहुलतावादी ताना-बाना जितना सिकुड़ेगा, उतना ही चुनावी बहस भी सहिष्णुता खोएगी।
भारत का कोण भी अनदेखा नहीं। हसीना दिल्ली में हैं और भारत- बांग्लादेश के रिश्ते पिछले डेढ़ दशक में सुरक्षा, कनेक्टिविटी और अर्थव्यवस्था में गहरे हुए हैं। नई दिल्ली सार्वजनिक रूप से संयमित है पर यह स्पष्ट है कि ढाका का हर फैसला सीमापार राजनीति और पूर्वोत्तर की सुरक्षा-समीकरण को छूता है। यदि ढाका में नीति-निर्माण ‘दबाव-संवेदनशील’ प्रतीत होता है तो पड़ोसी की प्राथमिकता स्थिरता रहेगी क्योंकि उधर का हर उतार-चढ़ाव यहां की खबर बनता है, इमिग्रेशन, सीमा-प्रबंधन, व्यापार-रास्ते और कूटनीतिक तालमेल के स्तर पर।
कुल मिलाकर बांग्लादेश के लिए इसलिए यह समय चरम सतर्कता का है। एक तरफ अदालत का कैलेंडर, दूसरी ओर चुनावी तैयारी। एक तरफ नीति के दस्तावेज, दूसरी आोर धार्मिक-राजनीतिक दबाव। ढाका को अब यह तय करना है कि वह कौन-सा संदेश दे कि ‘नया बांग्लादेश’ संस्थानों से संचालित होगा, या सड़कों की धमक से। हसीना ने जो चेतावनी दी है वोटर बाॅयकाॅट और बहिष्कार की वह अंतरिम सरकार के लिए चुनौती है कि वह चुनावी मैदान को वैधता का न्यूनतम साझा आधार दे। उधर, अंतरिम सरकार के लिए चुनौती है कि वे शिक्षा जैसी बुनियादी जमीन पर सुधार को पीछे नहीं लें, बल्कि बेहतर डिजाइन के साथ आगे बढ़ाएं क्योंकि स्कूल की कक्षा में जो निर्णय होते हैं, वही समाज की दिशा तय करते हैं और शायद यही इस कहानी का सार है,
लोकतंत्र और बहुलता, दोनों एक साथ चलते हैं। एक को कमजोर कर दीजिए, दूसरा टिकेगा नहीं। अगर अवामी लीग को कानून की कसौटी पर उसके अपराध साबित होते हैं तो सजा होनी चाहिए, पर वह कसौटी सबके लिए समान दिखनी भी चाहिए और अगर शिक्षा में समग्रता सही लक्ष्य है तो उसके लिए बेहतर तैनाती, ट्रेनिंग और चरणबद्ध विस्तार की जरूरत है, न कि दबाव आते ही ब्रेक। बांग्लादेश आज जिस दोराहे पर खड़ा है, वहां से आगे का रास्ता संस्थानों, संवाद और साहस से निकलता है, कट्टरता, बहिष्कार और पलटियों से नहीं।

You may also like

MERA DDDD DDD DD