• दिकदर्शन रावत

उत्तराखण्ड के बागेश्वर जनपद की कांडा तहसील में खड़िया (सोपस्टोन) खनन के अनियंत्रित और अवैध गतिविधियों ने पर्यावरण और स्थानीय समुदायों पर गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। इन खनन गतिविधियों के परिणामस्वरूप कई गांवों में घरों में दरारें, भूमि धंसाव, जल स्रोतों का सूखना और भूस्खलन का खतरा बढ़ गया है। इन समस्याओं के प्रकाश में, उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए खनन पर प्रतिबंध लगाया और विस्तृत जांच के आदेश दिए। कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि अवैध खननकर्ताओं से ग्रामीणों को हुए नुकसान का मुआवजा वसूला जाए। खनन गतिविधियों पर प्रतिबंध लगने के बाद, स्थानीय मजदूरों और खच्चर संचालकों की स्थिति लेकिन अत्यंत दयनीय हो गई है। इन लोगों की आजीविका खनन कार्यों पर ही निर्भर थी, लेकिन अब खदानें बंद होने से वे बेरोजगारी के संकट का सामना कर रहे हैं।

गौरतलब है कि खनन गतिविधियों के कारण पहाड़ियों की तलहटी में अवैज्ञानिक तरीके से खनन किया गया, जिससे भूमि धंसाव और भूस्खलन का खतरा बढ़ गया है। कोर्ट कमिश्नरों की रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि खननकर्ताओं ने वन भूमि और सरकारी भूमि पर नियमों का उल्लंघन करते हुए खनन किया, जिससे पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचा है। खनन के कारण गांवों में घरों में दरारें आ गई हैं, जिससे लोगों की जान-माल को खतरा उत्पन्न हो गया है। ग्रामीणों की कृषि भूमि नष्ट हो रही है, और जल स्रोत सूख रहे हैं, जिससे उनकी आजीविका पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इसके अलावा, खनन में लगे मजदूरों और खच्चर संचालकों की आजीविका भी प्रभावित हुई है, क्योंकि खनन बंद होने से वे बेरोजगार हो गए हैं। खनन पर प्रतिबंध के कारण सरकार को राजस्व हानि का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि खनन से मिलने वाली राॅयल्टी और अन्य करों की प्राप्ति बंद हो जाएगी। हालांकि यह भी महत्वपूर्ण है कि अवैध खनन से होने वाले पर्यावरणीय और सामाजिक नुकसान की तुलना में यह राजस्व हानि कम महत्वपूर्ण है।

वैकल्पिक रोजगार का अभाव

खनन क्षेत्र में सैकड़ों मजदूर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार पाते थे। ये मजदूर खनन, पत्थर तोड़ने, लोडिंग-अनलोडिंग जैसे कार्यों में लगे थे। लेकिन खनन बंद होने से अब उनके सामने रोजगार का गम्भीर संकट खड़ा हो गया है।
खादानें बंद होने के बाद ये मजदूर दैनिक मजदूरी से भी वंचित हो गए हैं। उनके पास वैकल्पिक रोजगार का अभाव है। अधिकांश मजदूर दिहाड़ी पर निर्भर थे, जिससे उनका और उनके परिवार का गुजारा चलता था। खनन बंद होने से भूखमरी की नौबत आ गई है। पहाड़ी इलाकों में पहले से ही रोजगार के सीमित साधन हैं, जिससे इन मजदूरों को स्थानीय स्तर पर नया काम नहीं मिल पा रहा। अब ये मजदूर मजबूरी में शहरों की ओर पलायन करने पर मजबूर हो रहे हैं, जिससे पहाड़ी क्षेत्रों में विस्थापन की समस्या और बढ़ सकती है।

संकट में खच्चर मालिक

खनन क्षेत्र में काम करने वाले खच्चर संचालक भी बड़ी संख्या में प्रभावित हुए हैं। खदानों से खनिज सामग्री ढुलाई का काम मुख्य रूप से खच्चरों से ही किया जाता था क्योंकि यह दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र है, जहां बड़े वाहन नहीं पहुंच सकते। खनन बंद होने के बाद अब इन खच्चरों का कोई उपयोग नहीं रहा, जिससे उनका पालन-पोषण करना भी कठिन हो गया है। खनिज ढुलाई ही खच्चर मालिकों की मुख्य आमदनी का साधन थी। अब काम बंद होने से खच्चर मालिक कर्जदार हो गए हैं। खच्चरों का पालन महंगा होता है, लेकिन आय के बिना इन्हें खिलाना मुश्किल हो गया है। कई मालिक अपने खच्चर बेचने या छोड़ने के लिए मजबूर हो रहे हैं। कई खच्चर संचालक अब रोजगार की तलाश में शहरों का रुख कर रहे हैं, जिससे स्थानीय पारंपरिक व्यवसाय समाप्त होने का खतरा बढ़ गया है।

सरकार और प्रशासन की उदासीनता

खनन प्रतिबंध लगने के बाद सरकार को चाहिए था कि प्रभावित मजदूरों और खच्चर मालिकों के लिए रोजगार के वैकल्पिक साधन उपलब्ध कराए। लेकिन अब तक सरकार की तरफ से कोई ठोस पुनर्वास योजना नहीं आई है। मजदूर और खच्चर संचालक सरकारी मदद और पुनर्वास की मांग कर रहे हैं। मजदूरों और खच्चर संचालकों की मांग खनन बंद होने से बेरोजगार हुए लोगों को वैकल्पिक रोजगार दिया जाए। प्रभावित मजदूरों और खच्चर मालिकों को आर्थिक सहायता (मुआवजा) दी जाए। सरकार द्वारा स्थानीय स्तर पर नए रोजगार के अवसर पैदा किए जाएं। खनन क्षेत्र में वैज्ञानिक और नियंत्रित खनन की अनुमति दी जाए, ताकि रोजगार बना रहे और पर्यावरण भी सुरक्षित रहे।

खनन से पर्यावरण को नुकसान हुआ, लेकिन इससे हजारों मजदूरों और खच्चर व्यवसायियों की रोजी-रोटी भी जुड़ी थी। अब जब यह बंद हो गया है तो इन समुदायों को सरकार की ओर से सहायता मिलनी चाहिए। अन्यथा, बेरोजगारी, प्रवासन और आर्थिक तंगी जैसी समस्याएं पहाड़ी इलाकों को और ज्यादा संकट में डाल सकती हैं। समस्या का संतुलित समाधान यही है कि वैज्ञानिक तरीके से सीमित और नियंत्रित खनन को अनुमति दी जाए, ताकि पर्यावरण और रोजगार, दोनों को बचाया जा सके।

बात अपनी-अपनी

हमारा तो सब काम ठप हो गया है। बच्चों की फीस सब खच्चरों से चलता है। कहीं दूसरी जगह काम न हीं मिल रहा है। माइंस का काम रूकने से दुकानदार भी उधार नहीं देते हैं।

गोविंद राम, गांव सनेती, खच्चर चालक

दो महीने से बेरोजगार हैं। लोन पर खच्चर ले रखे हैं। कुछ दे दिया है। खाना-पीना, सब कुछ ही घोड़े से ही चलता है।

घनश्याम राम, गांव बाखला, खच्चर चालक

ट्रक वाले काम भाड़े में हल्द्वानी से बागेश्वर, कपकोट, पिथौरागढ़ जाते हैं। ये उम्मीद से बागेश्वर से खड़िया वापसी में मिल जाएगी। नियम से खड़िया खनन खुल जाता तो हमारी परेशानियां दूर हो जाती। गाड़ियों की किश्त 50,000 रुपए महीने की है। जैसे-तैसे कर रहे हैं।

गिरीश मेलकानी, प्रदेश महामंत्री, उत्तराखण्ड देवभूमि ट्रक ऑनर्स महासंघ

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