‘हमारा बजाज’, ‘कुछ खास है जिंदगी में’, ‘हर घर कुछ कहता है’, ‘ठंडा मतलब कोका कोला’ और ‘अबकी बार मोदी सरकार’ जैसे नारे देने वाले एड गुरु पीयूष पाण्डे अब हमारे बीच नहीं हैं। उन्होंने भारतीय विज्ञापन जगत को न केवल नई दिशा दी, बल्कि उसमें भारतीयता की आत्मा भी भरी। उनका जाना सिर्फ एक विज्ञापनकार का जाना नहीं, बल्कि भारतीय अभिव्यक्ति की एक जीवंत भाषा का खो जाना है
मुम्बई से 24 अक्टूबर को जैसे ही खबर आई कि पीयूष पाण्डे नहीं रहे तो विज्ञापन की दुनिया में सन्नाटा छा गया। ऐसा सन्नाटा जो किसी मशहूर चेहरे के जाने से नहीं, बल्कि एक ऐसी आवाज के खो जाने से आया जो देश की रगों में बहती थी। वह आवाज, जिसने कभी कहा था, ‘हर घर कुछ कहता है’, ‘कुछ खास है जिंदगी में’, ‘ठंडा मतलब कोका कोला’, ‘हमारा बजाज’ और ‘अबकी बार मोदी सरकार’। यह आवाज सिर्फ विज्ञापन की नहीं थी, यह उस भारत की थी जो अपनी मिट्टी से जुड़ा हुआ था, जो अपनी बात को बड़े-बड़े शब्दों में नहीं, बल्कि सीधी-सच्ची भाषा में कहता था। पीयूष पाण्डे ने जो किया वह शायद किसी किताब में नहीं सिखाया जा सकता। उन्होंने विज्ञापन को ‘कला’ नहीं कहा, उसे ‘संवाद’ कहा। उनका मानना था कि विज्ञापन वह पुल है जो एक उत्पाद और एक इंसान के बीच भरोसा कायम करता है। यह भरोसा शब्दों से नहीं, भावनाओं से बनता है और यही उनके हर कैम्पेन की आत्मा थी।
पीयूष पाण्डे का सफर जोधपुर की गलियों से शुरू हुआ। बचपन में खेलों के शौकीन, उन्होंने क्रिकेट को जीवन का पहला प्यार बताया था। लेकिन जब जीवन ने मोड़ लिया तो उन्होंने खेल के मैदान से निकलकर विज्ञापन के मंच पर कदम रखा और वहीं इतिहास रच डाला। वे कहते थे, ‘‘मेरे लिए विज्ञापन शब्दों की बाजीगरी नहीं है, यह लोगों की भाषा में बात करने की कला है।’’ शायद यही वजह थी कि उनके लिखे हर जिंगल में लोगों की बोली, लोगों का दर्द, लोगों की खुशी गूंजती थी।
उन्होंने 27 साल की उम्र में अपने भाई प्रसून पाण्डे के साथ विज्ञापन जगत में कदम रखा। दोनों ने मिलकर शुरुआत रेडियो जिंगल्स से की थी। उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि यह आवाज आने वाले दशकों में देश के ब्रांड्स को पहचान देने वाली होगी। 1982 में वे विज्ञापन कम्पनी ‘ओगिल्वी’ से जुड़े। वही ओगिल्वी, जो आगे चलकर उनके नाम से जानी जाने लगी। वे वहां के क्रिएटिव डायरेक्टर बने और कुछ ही वर्षों में कम्पनी के बोर्ड में शामिल हो गए।
उनकी रचनात्मकता की पहचान थी सादगी। उनका कहना था कि ‘‘विज्ञापन तब तक अच्छा नहीं बन सकता, जब तक उसमें लोग खुद को न देख पाएं।’’ उन्होंने शहरों की भाषा नहीं अपनाई, गांवों के मुहावरों को अपनाया। उन्होंने विदेशी शब्दों से दूरी रखी, लेकिन भावनाओं को अपनी ताकत बनाया। यही वजह थी कि उनके बनाए विज्ञापन सिर्फ लोकप्रिय नहीं हुए, लोगों की जुबान और जिंदगी का हिस्सा बन गए।
‘हमारा बजाज’ ने 90 के दशक में भारत की आत्मा को आवाज दी। उस दौर में जब उदारीकरण के बाद विदेशी ब्रांड्स भारत में उतर रहे थे, पाण्डे ने ‘हमारा बजाज’ के जरिए देसी गौरव का गीत गाया। यह एक ऐसा विज्ञापन था जिसने मोटरसाइकिल को सिर्फ वाहन नहीं, भारतीय पहचान बना दिया।
‘कुछ खास है जिंदगी में’ के जरिए उन्होंने दिखाया कि चाॅकलेट सिर्फ बच्चों की चीज नहीं, बल्कि जीवन की मिठास का प्रतीक है। यह विज्ञापन आज भी जब याद किया जाता है तो हमें मुस्कुराने पर मजबूर करता है जैसे किसी पुराने दोस्त की याद।
एशियन पेंट्स का ‘हर घर कुछ कहता है’ उनकी भावनात्मक गहराई का सबसे खूबसूरत उदाहरण है। उन्होंने दीवारों को इंसान बना दिया जहां हर रंग में एक याद थी, हर दीवार पर एक कहानी। यह विज्ञापन सिर्फ मार्केटिंग नहीं था, यह कविता था और शायद यही पाण्डे की ताकत थी कि वे विज्ञापन को कविता बना देते थे।
फेविकोल का ‘ट्रक वाला विज्ञापन’ उनकी रचनात्मकता का अगला अध्याय था। एक ट्रक, उसके ऊपर बैठे लोग और उबड़-खाबड़ सड़क पर भी न गिरने की प्रतीकात्मक छवि जिसने एक गोंद को ब्रांड में बदल दिया। यह विज्ञापन सिर्फ फेविकोल को नहीं, बल्कि भारतीय विज्ञापन के इतिहास को भी स्थायी बना गया। 2003 में आया ‘हच का पग वाला विज्ञापन’, ‘व्हेयरएवर यू गो, हच इज विद यू’ ने मोबाइल कनेक्टिविटी को दोस्ती और साथ के प्रतीक में बदल दिया। वह छोटा-सा कुत्ता, जो हर जगह बच्चे के पीछे चलता था, हमारे भीतर के विश्वास को छू जाता था। यही तो जादू था पाण्डे का कि वे ब्रांड्स नहीं, भावनाएं बेचते थे।
और फिर 2014 आया जब पूरा देश एक नए राजनीतिक अध्याय की ओर बढ़ रहा था। भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनाव अभियान के लिए जिस नारे को चुना, वह था- ‘अबकी बार मोदी सरकार’। यह नारा, जो अब राजनीति की किताबों में दर्ज है इन्हीं पीयूष पाण्डे की देन था। उन्होंने खुद बताया था कि इसे तैयार करने में 50 दिन लगे। 200 टीवी कमर्शियल, 100 रेडियो एड और सैकड़ों प्रिंट कैम्पेन, हर रात बैठकों का सिलसिला चलता और हर दिन कुछ नया तैयार होता।
इस पूरे अभियान को उन्होंने भाषा की सादगी और संवाद की ताकत पर खड़ा किया। उन्होंने कहा था कि ‘‘हमने नारे को जनता की बोली में लिखा ताकि हर भारतीय उसे अपना समझ सके।’’ उनका जीवन केवल विज्ञापन तक सीमित नहीं था। उन्होंने ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ जैसा देशभक्ति गीत भी लिखा, जिसने 80 के दशक में भारत को एकता की नई भावना दी। वह गीत आज भी राष्ट्रीय एकता की आवाज है। उन्होंने दिखाया कि विज्ञापन और देशभक्ति एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हो सकते हैं। 2016 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। 2024 में उन्हें लंदन इंटरनेशनल अवार्ड्स का ‘लाइफटाइम अचीवमेंट’ मिला। लेकिन शायद उनका सबसे बड़ा पुरस्कार था जनता का प्यार। वे जहां भी गए, लोग उनके बनाए विज्ञापनों के संवाद बोलते मिले। उनके जाने के बाद अब यह समझ आता है कि पीयूष पाण्डे ने हमें सिर्फ विज्ञापन नहीं दिए उन्होंने जीवन को देखने का एक तरीका दिया। उन्होंने हमें यह दिखाया कि कहानी हर जगह है, बस उसे सही भाषा में कहना आना चाहिए। वह कहा करते थे कि ‘‘अगर तुम लोगों की भाषा में बात नहीं कर सकते तो तुम लोगों तक नहीं पहुंच सकते।’’ यही कारण था कि उन्होंने अंग्रेजी के शब्दों को छोड़, हिन्दी और भारतीय भाषाओं को अपनाया। यही कारण है कि उनका हर विज्ञापन सिर्फ देखा नहीं, महसूस किया गया।
आज उनकी अनुपस्थिति में भारतीय विज्ञापन जगत शायद और परिपक्व हुआ है, लेकिन कहीं गहराई में एक खालीपन रह जाएगा जैसे किसी परिचित आवाज का अचानक गायब हो जाना। अब जब टीवी पर ‘कुछ खास है जिंदगी में’ सुनाई देता है तो लगता है जैसे वह लाइन अब हमारे लिए है, हमारे भीतर उस इंसान की याद जगाने के लिए, जिसने हमें सिखाया कि सादगी ही सबसे गहरी रचनात्मकता है।
पीयूष पाण्डे नहीं रहे यह वाक्य छोटा है, पर उसका असर बहुत बड़ा। वे हर उस दीवार पर हैं जो एशियन पेंट्स से रंगी है, हर ट्रक पर जो ‘फेविकोल से जुड़ा’ है, हर टीवी पर जो ‘कुछ खास’ दिखाता है और हर भारतीय की जुबान पर जो किसी ब्रांड के साथ मुस्कुराता है। उन्होंने भारतीय विज्ञापन को ‘वेस्टर्न काॅपी’ से निकालकर ‘भारतीय आत्मा’ बनाया।
उनका जाना सिर्फ उद्योग की क्षति नहीं, एक युग का अंत है, उस युग का जिसमें शब्दों की ताकत सबसे ऊपर थी और भावनाओं की गूंज सबसे गहरी। उनकी मुस्कुराहट, उनका नम्र स्वभाव, उनका वह चश्मा जिसके पीछे हमेशा चमकती आंखें रहती थीं अब नहीं हैं। लेकिन उनके शब्द हैं, उनके विचार हैं और वह अटूट विश्वास है कि रचनात्मकता तब जन्म लेती है जब आप अपने देश, अपनी भाषा और अपने लोगों से प्रेम करते हैं। पीयूष पाण्डे अब स्मृति बन गए हैं, पर ऐसी स्मृति जो कभी फीकी नहीं पड़ेगी क्योंकि उन्होंने हमारी जिंदगी में सचमुच कुछ ‘खास’ भर दिया था।

