गंगा नदी का उद्गम भागीरथी व अलकनंदा नदी से मिलकर होती है। गंगा देश की प्राकृतिक सम्पदा ही नहीं, जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है। इससे कई गैर बर्फीली नदियां भी जुड़ी हैं, तभी गंगा नदी में पानी होता है। खासतौर पर जाड़ों में गैर बर्फीली नदियों के पानी का महत्व गंगा नदी में अधिक होता है। इन्हीं में से एक है अल्मोड़ा जिले के विकासखंड की ‘रिस्कन’ नदी। द्वाराहाट क्षेत्र में कई अन्य जल स्रोतों से मिलकर दो नदियां नंदनी व सुरभि बहती हैं। इन दोनों नदियों का संगम शिव के धाम विभाण्डेश्वर में होता है। यहां से आगे इस नदी को रिस्कन नदी नाम से जाना जाता है। यह नदी आगे गगास नदी में मिलती है
मोहन कांडपाल
सामाजिक कार्यकर्ता
गंगा नदी का मुख्य स्रोत गंगोत्री में है लेकिन गंगा नदी में उत्तराखण्ड की कई गैर बर्फीली नदियां भी जुड़ी हैं, तभी गंगा नदी में पानी होता है। खासतौर पर जाड़ों में गैर बर्फीली नदियों के पानी का महत्व गंगा नदी में अधिक होता है। इन्हीं में से एक है अल्मोड़ा जिले के विकासखंड की ‘रिस्कन’ नदी। द्वाराहाट क्षेत्र में कई अन्य जल स्रोतों से मिलकर दो नदियां नंदनी व सुरभि बहती हैं। इन दोनों नदियों का संगम शिव के धाम विभाण्डेश्वर में होता है। यहां से आगे इस नदी को रिस्कन नदी नाम से जाना जाता है। यह नदी आगे गगास नदी में मिलती है। गगास रामगंगा में व रामगंगा आगे जाकर गंगा नदी में मिलती है।
सुरभि व नंदनी के उद्गम से लेकर तिपोला में गगास तक मिलने में रिस्कन नदी 48 किमी. की दूरी तय करती है। जिसमें 39 गांव के लगभग 100 से अधिक छोटे-मोटे स्रोत मिलते हैं। 39 गांवों के पीने का पानी, रोजमर्रा की आवश्यकताओं के साथ ही इस पानी से लोग सिंचाई भी करते हैं। लेकिन इन नदी की पहाड़ियों पर जल संरक्षण के उचित उपाय ना होने से नदी का स्तर लगातार गिरता जा रहा था। बढ़ते पलायन, जंगलों में लगी आग, बंजर होती खेती व चैड़े पत्तेदार वृक्षों की कमी इसकी मुख्य वजह रही है। घटते जल स्तर के कारण यह नदी गर्मियों में सूख जाती थी। वर्ष 2005 में यह नदी पूर्णतः सूख गई। तब गांव में पानी की आपूर्ति टैंकरों के माध्यम से की गई। जब पानी को लेकर त्राहि-त्राहि मचने लगी तो जनता आंदोलित होने लगी। सरकार द्वारा रामगंगा व गगास नदी से पेयजल योजनाएं बनाकर पानी की पूर्ति करने का प्रयास किया लेकिन इससे भी स्थितियां नहीं सुधरी। फिर मैंने बर्षा जल संग्रह हेतु खाव यानि छोटे तालाब बनाकर व पत्तीदार पौधे जनता के सहयोग से लगाकर बचाने का प्रयास किया। लेकिन उसके बावजूद भी नौलों व धारों का जल स्तर नहीं बढ़ रहा था तो हमने 62 गांवों में महिला संगठन बनाकर पानी बचाने के लिए ‘पानी बोओ पानी उगाओ’ आंदोलन शुरू किया। इसके तहत गांव-गांव में बैठकें आयोजित की गई। महिलाओं, युवाओं, बच्चों को इस अभियान से जोड़ा गया। लोगों से अपील की गई कि अपने बंजर खेतों में हल जोतें। अपने खेत में एक खाव (छोटा तालाब) बनाएं। जन्मदिन, शादी, सेवानिवृत्ति, मृत्यु आदि विशेष अवसरों पर खाव खोदने की अपील की गई। इसका व्यापक असर हुआ। वर्ष 2013 से 2025 तक 18 घन मीटर के लगभग 400 से अधिक खाव जनता के आर्थिक सहयोग से रिस्कन नदी के आस-पास बनाए जा चुके हैं। इन खावों को तैयार करने की लागत बारह लाख रुपए आई। अब करोड़ों लीटर पानी इसके जरिए जमीन के अंदर जाता है। इसके अलावा अब ग्राम प्रधान, जिला पंचायत सदस्य व अन्य प्रतिनिधि भी ‘पानी बोओ, पानी उगाओ’ विचारधारा के अंतर्गत खाव यानी छोटे तालाब खोद रहे हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है कि पूर्व में सूख चुके जल स्रातों में फिर से पानी आ गया है। गर्मियों में भी यह नहीं सूखते। यह तय है कि नदियां तभी बचेंगी जब गैर बर्फीली नदियां बचेंगी। तभी गंगा व यमुना जैसी विशाल नदियों में सदा ‘नीर’ रहेगा।
(लेखक ‘पानी बोओ, पानी उगाओ’ अभियान के संयोजक हैं।)


मोहन कांडपाल