भारत-तिब्बत व्यापार की विरासत से जन्मा गौचर मेला इस वर्ष 14 नवम्बर से उत्साह के साथ शुरू हुआ। अपने 73वें संस्करण में प्रवेश कर चुका यह मेला आज भी परम्परा, संस्कृति, उद्योग, पर्यटन और स्थानीय अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा मंच बना हुआ है
उत्तराखण्ड के सीमांत जनपद चमोली में आयोजित होने वाला ऐतिहासिक गौचर मेला इस वर्ष 14 नवम्बर को पारम्परिक ढंग से आरम्भ हुआ। प्रशासन द्वारा की गई व्यापक तैयारियों के कारण पहले ही दिन से व्यापारिक गतिविधियों, लोक संस्कृति और प्रदर्शनियों में जबरदस्त उत्साह देखने को मिला। गौचर मैदान में सजाए गए विविध स्टाॅल, उद्योग विभाग की प्रदर्शनी, महिला समूहों के उत्पाद, कृषि-तकनीक माॅडल, पर्यटन स्टाॅल और स्कूलों की प्रस्तुति मेले में निरंतर रौनक बनाए रहे।
गौचर मेला केवल एक सांस्कृतिक आयोजन नहीं, बल्कि अपने भीतर भारत-तिब्बत व्यापार की लंबी ऐतिहासिक परम्परा समेटे हुए है। पुराने समय में यह स्थान सीमांत भोटिया समुदाय के प्रमुख हाटों में से एक माना जाता था। भोटिया व्यापारी तिब्बत से चट्टानी नमक, शिलाजीत, कस्तूरी, जड़ी-बूटियां, ऊनी वस्त्र, फरण, चांदी के आभूषण, घोड़े और बकरियां लाकर गौचर में व्यापार करते थे। वहीं से वे पहाड़ी अनाज, मसाले और घरेलू सामान तिब्बत ले जाते थे। लम्बे सफर के बाद जब उनका कारवां गौचर मैदान पहुंचता था तो कई दिनों तक यहां व्यापार, मेलजोल, खान-पान और सांस्कृतिक गतिविधियों की चहल-पहल रहती थी।
इस पारम्परिक व्यापारिक हाट को औपचारिक स्वरूप वर्ष 1943 में मिला, जब तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर आर.वी. वनड़ी के सहयोग से इसे विधिवत ‘गौचर मेला’ के नाम से स्थापित किया गया। नीति-माणा घाटी के भोटिया व्यापारियों, स्वर्गीय बाला सिंह पाल, पान सिंह बंमपाल और गोविंद सिंह राणा ने प्रतिष्ठित पत्रकार गोविंद प्रसाद नौटियाल के नेतृत्व में प्रशासन को औपचारिक प्रस्ताव दिया था। तब से यह मेला हर वर्ष आयोजित होता आ रहा है और आज यह उत्तराखण्ड की सबसे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक परम्पराओं में शुमार है।
तिब्बत व्यापार बंद होने के बाद भी मेले की उपयोगिता समाप्त नहीं हुई, बल्कि यह समय के साथ और विस्तृत स्वरूप में सामने आया। आज यह मेला स्थानीय उद्योग, कृषि, पशुपालन, पर्यटन, हस्तशिल्प, शिक्षा और स्वरोजगार का बड़ा मंच बन चुका है। यहां कारीगरों को बाजार मिलता है, महिला स्वयं सहायता समूह अपने उत्पाद बेचते हैं, युवा स्टार्टअप और इनोवेशन से जुड़े माॅडल प्रस्तुत करते हैं और सरकारी विभाग अपनी विभिन्न योजनाओं की जानकारी जनता तक पहुंचाते हैं।
गौचर मैदान की भौगोलिक स्थिति भी इस मेले को विशेष पहचान देती है। राज्य में इतने विशाल समतल मैदान कम हैं और इसी वजह से गौचर में स्थित हवाई पट्टी का उपयोग कई विशेष परिस्थितियों में किया जाता रहा है। यह मैदान ही वह प्रमुख स्थान है, जहां वर्षों से गौचर मेले का आयोजन लगातार होता आ रहा है।
पिथौरागढ़ जिले का जौलजीबी मेला भी इसी ऐतिहासिक परम्परा का हिस्सा माना जाता है और सीमांत समाज के जीवन, व्यापार और संस्कृति से गहरे रूप से जुड़ा हुआ है। कई बार आपदा या अन्य कारणों से गौचर मेला बाधित भी रहा, लेकिन यह परम्परा कभी टूटने नहीं दी गई। स्थानीय लोग और व्यापारी हर वर्ष इस मेले को उत्साहपूर्वक आगे बढ़ाते आए हैं।
इस वर्ष 73वां गौचर मेला शुरू होते ही पूरे क्षेत्र में उत्साह का माहौल बन गया। दिनभर व्यापारिक गतिविधियों, हस्तशिल्प प्रदर्शनी, कृषि उपकरणों, स्थानीय उत्पादों और सरकारी विभागों के स्टाॅल पर भीड़ लगी रही। शाम के समय मंच पर सांस्कृतिक प्रस्तुतियों की धूम रही जिसमें गढ़वाली, कुमाऊंनी, जौनसारी और भोटिया नृत्य, स्थानीय कलाकारों की प्रस्तुतियां, विद्यालयों के कार्यक्रम और आधुनिक प्रस्तुति का भी समावेश रहा। प्रशासन ने मेले के सफल आयोजन के लिए व्यापक तैयारियां की थी। जिला अधिकारी एवं मेला अध्यक्ष गौरव कुमार, आयुक्त गढ़वाल मंडल विनय शंकर पांडे, मेला अधिकारी उपजिलाधिकारी सोहन सिंह रांगड़, मेला सचिव आशा रानी, मुख्य प्रबंधक अधिकारी सुधा डोभाल, कर्णप्रयाग प्रमुख दीपिका मैखुरी, गौचर पालिका अध्यक्ष संदीप नेगी, कर्णप्रयाग पालिका अध्यक्ष गणेश शाह और व्यापार संघों के पदाधिकारियों सहित विभिन्न विभागों ने मिलकर आयोजन को बेहतर ढंग से सम्भाला।
राज्य आंदोलनकारी हरिकृष्ण भट्ट के अनुसार गौचर मेला केवल व्यापार की परम्परा नहीं, बल्कि पहाड़ की
सांस्कृतिक जीवनधारा है। उनके अनुसार ऐसे आयोजनों में स्थानीय समाज की परम्परा, लोककला, वेशभूषा, भाषा और सामाजिक एकजुटता स्पष्ट रूप से सामने आती है। गौचर निवासी सुरेंद्र सिंह मल, जो इस मेले की शुरुआत के दौर के साक्षी माने जाते हैं बताते हैं कि 1943 में भोटिया व्यापारी बकरियों में गुड़, चीनी, चायपत्ती और ऊनी वस्त्र लेकर गौचर पहुंचते थे। उन्होंने कहा कि समय बदल गया है पर मेला आज भी उतना ही जीवंत है और अब यह पर्यटन और सांस्कृतिक गतिविधियों का भी बड़ा केंद्र बन चुका है।
73वां गौचर मेला इस वर्ष भी स्थानीय लोगों, कलाकारों, व्यापारियों और पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बना। यह आयोजन न केवल व्यापार और पर्यटन को बढ़ावा देता है बल्कि उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक विरासत, लोक परम्परा और सामाजिक एकता को भी मजबूत करता है। परम्परा और आधुनिकता का यह संगम आज भी गौचर मेले को उत्तराखण्ड की सबसे जीवंत पहचान बनाता है।
इस पारम्परिक व्यापारिक हाट को औपचारिक स्वरूप वर्ष 1943 में मिला, जब तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर आर.वी. वनड़ी के सहयोग से इसे विधिवत ‘गौचर मेला’ के नाम से स्थापित किया गया। नीति-माणा घाटी के भोटिया व्यापारियों, स्वर्गीय बाला सिंह पाल, पान सिंह बंमपाल और गोविंद सिंह राणा ने प्रतिष्ठित पत्रकार गोविंद प्रसाद नौटियाल के नेतृत्व में प्रशासन को औपचारिक प्रस्ताव दिया था। तब से यह मेला हर वर्ष आयोजित होता आ रहा है और आज यह उत्तराखण्ड की सबसे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक परम्पराओं में शुमार है।
तिब्बत व्यापार बंद होने के बाद भी मेले की उपयोगिता समाप्त नहीं हुई, बल्कि यह समय के साथ और विस्तृत स्वरूप में सामने आया। आज यह मेला स्थानीय उद्योग, कृषि, पशुपालन, पर्यटन, हस्तशिल्प, शिक्षा और स्वरोजगार का बड़ा मंच बन चुका है। यहां कारीगरों को बाजार मिलता है, महिला स्वयं सहायता समूह अपने उत्पाद बेचते हैं, युवा स्टार्टअप और इनोवेशन से जुड़े माॅडल प्रस्तुत करते हैं और सरकारी विभाग अपनी विभिन्न योजनाओं की जानकारी जनता तक पहुंचाते हैं।
गौचर मैदान की भौगोलिक स्थिति भी इस मेले को विशेष पहचान देती है। राज्य में इतने विशाल समतल मैदान कम हैं और इसी वजह से गौचर में स्थित हवाई पट्टी का उपयोग कई विशेष परिस्थितियों में किया जाता रहा है। यह मैदान ही वह प्रमुख स्थान है, जहां वर्षों से गौचर मेले का आयोजन लगातार होता आ रहा है।
पिथौरागढ़ जिले का जौलजीबी मेला भी इसी ऐतिहासिक परम्परा का हिस्सा माना जाता है और सीमांत समाज के जीवन, व्यापार और संस्कृति से गहरे रूप से जुड़ा हुआ है। कई बार आपदा या अन्य कारणों से गौचर मेला बाधित भी रहा, लेकिन यह परम्परा कभी टूटने नहीं दी गई। स्थानीय लोग और व्यापारी हर वर्ष इस मेले को उत्साहपूर्वक आगे बढ़ाते आए हैं।
इस वर्ष 73वां गौचर मेला शुरू होते ही पूरे क्षेत्र में उत्साह का माहौल बन गया। दिनभर व्यापारिक गतिविधियों, हस्तशिल्प प्रदर्शनी, कृषि उपकरणों, स्थानीय उत्पादों और सरकारी विभागों के स्टाॅल पर भीड़ लगी रही। शाम के समय मंच पर सांस्कृतिक प्रस्तुतियों की धूम रही जिसमें गढ़वाली, कुमाऊंनी, जौनसारी और भोटिया नृत्य, स्थानीय कलाकारों की प्रस्तुतियां, विद्यालयों के कार्यक्रम और आधुनिक प्रस्तुति का भी समावेश रहा। प्रशासन ने मेले के सफल आयोजन के लिए व्यापक तैयारियां की थी। जिला अधिकारी एवं मेला अध्यक्ष गौरव कुमार, आयुक्त गढ़वाल मंडल विनय शंकर पांडे, मेला अधिकारी उपजिलाधिकारी सोहन सिंह रांगड़, मेला सचिव आशा रानी, मुख्य प्रबंधक अधिकारी सुधा डोभाल, कर्णप्रयाग प्रमुख दीपिका मैखुरी, गौचर पालिका अध्यक्ष संदीप नेगी, कर्णप्रयाग पालिका अध्यक्ष गणेश शाह और व्यापार संघों के पदाधिकारियों सहित विभिन्न विभागों ने मिलकर आयोजन को बेहतर ढंग से सम्भाला।
राज्य आंदोलनकारी हरिकृष्ण भट्ट के अनुसार गौचर मेला केवल व्यापार की परम्परा नहीं, बल्कि पहाड़ की
सांस्कृतिक जीवनधारा है। उनके अनुसार ऐसे आयोजनों में स्थानीय समाज की परम्परा, लोककला, वेशभूषा, भाषा और सामाजिक एकजुटता स्पष्ट रूप से सामने आती है। गौचर निवासी सुरेंद्र सिंह मल, जो इस मेले की शुरुआत के दौर के साक्षी माने जाते हैं बताते हैं कि 1943 में भोटिया व्यापारी बकरियों में गुड़, चीनी, चायपत्ती और ऊनी वस्त्र लेकर गौचर पहुंचते थे। उन्होंने कहा कि समय बदल गया है पर मेला आज भी उतना ही जीवंत है और अब यह पर्यटन और सांस्कृतिक गतिविधियों का भी बड़ा केंद्र बन चुका है।
73वां गौचर मेला इस वर्ष भी स्थानीय लोगों, कलाकारों, व्यापारियों और पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बना। यह आयोजन न केवल व्यापार और पर्यटन को बढ़ावा देता है बल्कि उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक विरासत, लोक परम्परा और सामाजिक एकता को भी मजबूत करता है। परम्परा और आधुनिकता का यह संगम आज भी गौचर मेले को उत्तराखण्ड की सबसे जीवंत पहचान बनाता है।

