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चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया: निष्पक्षता बनाम राजनीतिक हस्तक्षेप

देश में इन दिनों मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में ज्ञानेश कुमार की नियुक्ति पर सियासी घमासान मचा हुआ है। एक ओर जहां सत्ताधारी पार्टी इस नियुक्ति को संवैधानिक बता रही है, वहीं विपक्ष असंवैधानिक करार दे रहा है। विपक्ष के नेता राहुल गांधी का कहना है कि सरकार ने मुख्य चुनाव आयुक्त के लिए पांच नाम भेजे थे जिन्हें उन्होंने खारिज कर दिया क्योंकि मामला सुप्रीम कोर्ट में लम्बित था। राहुल ने सोशल मीडिया एक्स पर कहा कि चुनाव आयोग का स्वतंत्र होना जरूरी है और इसमें कार्यपालिका का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन करके और चयन समिति से मुख्य न्यायाधीश को हटाकर सरकार ने हमारी चुनावी प्रक्रिया की ईमानदारी पर करोड़ों मतदाताओं की चिंताओं को और बढ़ा दिया है। वहीं तेजस्वी यादव ने चुनाव आयोग की भूमिका पर नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि ‘चुनाव आयोग का काम निष्पक्ष होना चाहिए लेकिन अब वह भाजपा का ‘चीयर लीडर’ बन गया है।’

दूसरी तरफ सत्तापक्ष इसे संवैधानिक बता कह रहा है कि मुख्य चुनाव आयुक्त का चयन मुख्य चुनाव आयुक्त एवं अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा की शर्तें और पदावधि) अधिनियम, 2023 के तहत हुआ है। इससे पहले बीते साल ज्ञानेश कुमार और सुखबीर सिंह संधू को नए कानून के तहत चुनाव आयुक्त चुना गया था। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि क्या वाकई मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार की नियुक्ति संवैधानिक है? कांग्रेस की आपत्ति में दम है या ये उसका राजनीतिक स्टैंड है?

कानूनविदों का कहना है कि इस नए कानून से पहले मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति करते थे। ये नया कानून सुप्रीम कोर्ट के मार्च 2023 के उस फैसले के बाद आया है जिसमें ये अनिवार्य किया गया था कि चयन पैनल में प्रधानमंत्री, लोकसभा नेता प्रतिपक्ष और भारत के मुख्य न्यायाधीश होंगे। तब कोर्ट ने कहा था कि ये आदेश तब तक रहेगा जब तक कि संसद इस पर कानून न बना ले। कोर्ट के इस फैसले के बाद केंद्र सरकार ने तुरंत ही कानून लाकर इस पैनल में मुख्य न्यायाधीश की जगह केंद्रीय मंत्री को जगह दे दी। जब संसद ने कानून बना दिया तो सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी खत्म हो गया और कोर्ट की कही बात भी मान ली गई। हालांकि इस पैनल से मुख्य न्यायाधीश को बाहर करने पर उच्चतम न्यायलय में याचिका विचाराधीन है लेकिन जहां तक विपक्ष खासकर राहुल गांधी का सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले तक नियुक्ति नहीं की जानी चाहिए तो मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति बिल्कुल वैसे ही हुई है जैसी परम्परा चली आ रही है। परम्परा यही रही है कि सबसे सीनियर चुनाव आयुक्त को मुख्य चुनाव आयुक्त बना दिया जाता रहा है। मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार के बाद ज्ञानेश कुमार ही सबसे सीनियर चुनाव आयुक्त थे और 18 फरवरी को राजीव कुमार के रिटायर होने के अगले ही दिन ज्ञानेश कुमार ने कार्यभार ग्रहण किया है।

सुप्रीम कोर्ट के जिस निर्णय का राहुल गांधी ने हवाला दिया है वो मार्च 2023 का है और उस फैसले के बाद ही कानून बना है। इस दृष्टि से देखें तो राहुल गांधी ने महज एक राजनीतिक बयान जारी किया है। उसका परिणाम या ऐसी किसी चीज से कोई सीधा वास्ता होना भी जरूरी नहीं होता। देश में हर रोज ऐसे राजनीतिक बयान जारी होते हैं। अगर विपक्ष के नजरिए से देखने की कोशिश करें तो शाहबानो प्रकरण और एससी-एसटी एक्ट पर तत्कालीन केंद्र सरकारों का जो रुख तब था ठीक वही चीज चुनाव आयुक्त की नियुक्ति वाले कानून को लेकर समझ में आती है। शाहबानो केस में भी आदेश तो सुप्रीम कोर्ट ने ही जारी किया था और तत्कालीन सरकार ने उसे अपनी संवैधानिक ताकत से पलट दिया था। तब तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक पर संरक्षण कानून 1986 बना दिया था और यही काम चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के मामले में भी मोदी सरकार ने किया। चुनाव आयुक्त की नियुक्ति और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर बढ़ती असहमति आगामी चुनावों में विवादों को और हवा दे सकती है। राजनीतिक दलों के आरोप-प्रत्यारोप से यह स्पष्ट हो रहा है कि चुनावी प्रक्रिया को लेकर एक नई दिशा में बदलाव हो सकता है।

क्यों उठी आयुक्त की चुनाव में बदलाव की मांग

चुनाव आयोग के कामकाज में पारदर्शिता को लेकर अधिकतर सवाल खड़े होते रहे हैं। साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गई थी। इससे पहले साल 2015 में चुनाव आयुक्त की चुनाव प्रक्रिया की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ताओं ने दलील दी गई थी कि इनकी नियुक्तियां कार्यपालिका की पसंद के आधार पर की जा रही हैं जो सही नहीं है। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि सीबीआई निदेशक व लोकपाल के चुनावों में विपक्ष के नेताओं और न्यायपालिका के पास अपनी बात रखने का अवसर होता है, लेकिन चुनाव आयुक्त के चुनावों में केंद्र एकतरफा रूप से चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति करता है। इसलिए चुनाव भी काॅलेजियम व्यवस्था से किये जाने चाहिए। ‘एसोसिएशन फाॅर डेमोक्रेटिक रिफाॅम्र्स’ द्वारा भी याचिका दायर की गई थी। जिसका प्रतिनिधित्व दो अधिवक्ताओं प्रशांत भूषण और चेरिल डिसूजा द्वारा किया गया था।

चुनाव आयुक्तों को लेकर विवाद

चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में केंद्र सरकार की मुख्य भूमिका होने के कारण अधिकतर चुनावों में निष्पक्षता के सवाल खड़े होते हैं। विपक्षी पार्टियों द्वारा दावा किया जता है कि चुनाव में कुछ गड़बड़ी हुई है। यही कारण है कि अरुण गोयल को चुनाव आयुक्त नियुक्त किए जाने से विवाद खड़ा हो गया था। जब वर्ष 1985 बैच के आईएएस आॅफिसर अरुण गोयल जिन्होंने 18 नवम्बर 2021 को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति दी गई थी। उसके अगले ही दिन 19 नवम्बर 2021 को राष्ट्रपति ने उन्हें चुनाव आयुक्त के तौर पर नियुक्ति कर दिया। 21 नवंबर को गोयल ने अपना पदभार संभाला। जिसके बाद विरोध में सीनियर एडवोकेट प्रशांत भूषण ने चुनाव प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए कहा कि चुनाव आयुक्त की चुनाव प्रक्रिया में सुनवाई शुरू होने के कारण अरुण गोयल की नियुक्ति जल्दबाजी में की गई है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि बतौर चुनाव आयुक्त गोयल की नियुक्ति की ओरिजिनल फाइल पेश की जाए। क्योंकि उनकी नियुक्ति सुनवाई शुरू होने के बाद ही की गई है तो हम अरुण गोयल की चुनाव प्रक्रिया देखना चाहते हैं। जिस पर केंद्र ने जवाब दिया था कि अगर अदालत को फाइलें दिखाने की जरूरत होगी तो हम दिखाएंगे। अगर कुछ गलत हुआ होगा तो अदालत के सामने इसे पेश करेंगे। लेकिन इस मामले की फाइल को केवल इस बात के आधार पर नहीं देखना चाहिए कि किसी ने सवाल उठाए हैं। चुनाव आयुक्त का ये पद मई 2022 से खाली था जिसे नवंबर में जा कर भरा गया था। इसके पहले भी कोरोना की दूसरी लहर के दौरान हुए विधानसभा चुनावों में कोरोना प्रतिबंधों के बावजूद चुनावी रैलियां निकली गई जिसे लेकर भी विवाद खड़े हुए थे।

विवादों भरा रहा राजीव कुमार का कार्यकाल

केंद्रीय चुनाव आयोग में राजीव का कार्यकाल साढ़े चार सालों का रहा। इसमें भी उन्होंने करीब तीन साल तक मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में काम किया। बिहार-झारखंड कैडर के 1984 बैच के रिटायर्ड आईएएस आॅफिसर राजीव कुमार 1 सितम्बर, 2020 को चुनाव आयुक्त के रूप में केंद्रीय चुनाव आयोग में शामिल हुए थे उन्हें तब के चुनाव आयुक्त अशोक लवासा के अप्रत्याशित इस्तीफे के बाद उनकी जगह पर चुना गया था। राजीव के शामिल होने के कुछ ही दिनों के भीतर उस साल अक्टूबर- नवम्बर में बिहार विधानसभा चुनाव कराने की घोषणा की। इस दौरान उन्होंने बतौर मुख्य चुनाव आयुक्त 31 विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव को कराए लेकिन तमाम विवाद भी उनके इस कार्यकाल के समांतर चलते रहे। इनमें असम परिसीमन, अरुण गोयल का इस्तीफा, नेताओं के बयानों पर पार्टी अध्यक्षों को समन भेजना, आम चुनाव 2024 के दौरान अंतिम प्रामाणिक आंकड़ों को देरी से जारी करना, महाराष्ट्र चुनावों में वोटर लिस्ट में हेरा-फेरी, दिल्ली चुनाव में मतदाता सूची में हेर-फेर, ईवीएम से छेड़छाड़ जैसे कई के आरोप लगाए गए। हालांकि चुनाव आयोग ने तब इन तमाम आरोपों को सिरे से खारिज किया था।

कोर्ट ने ठुकराई जल्दी सुनवाई की मांग

सुप्रीम कोर्ट ने 19 फरवरी को चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर जल्दी सुनवाई करने की मांग ठुकरा दी। याचिकाकर्ता की ओर से लोकतंत्र की दुहाई देकर केस को बहुत महत्पूर्ण बताते हुए जल्दी सुनवाई मांगने पर शीर्ष अदालत ने कहा कि यहां सभी मामले बहुत महत्वपूर्ण हैं। कोर्ट ने कहा कि हम जानते हैं कि ये बहुत महत्वपूर्ण केस है लेकिन अदालत बहुत व्यस्त है। जस्टिस कांत ने केसों की अधिकता के कारण 19 मार्च को सुनवाई की बात कही है।

कौन हैं ज्ञानेश कुमार

ज्ञानेश कुमार 1988 बैच के आईएएस अधिकारी और मौजूदा नया मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किए गए हैं। 61 वर्षीय ज्ञानेश कुमार इससे पहले केंद्रीय गृह मंत्रालय में कार्यरत थे। इससे पहले वे संसदीय कार्य मंत्रालय में सचिव के पद पर भी कार्यरत थे। 18 फरवरी 2025 को राजीव कुमार के रिटायर होने के बाद नए कानून के तहत नियुक्त होने वाले वे पहले प्रमुख चुनाव आयुक्त हैं। उनका कार्यकाल 26 जनवरी 2029 तक रहेगा।

पहले क्या थी आयुक्त की चुनाव प्रक्रिया

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-324(2) के तहत भारत के राष्ट्रपति को मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों को नियुक्त करने की शक्तियां दी गई हैं। अभी तक चली आ रही चुनाव आयुक्त की निर्वाचन प्रक्रिया के तहत केंद्र सरकार ही मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की सिफारिश करती थी। साल 2023 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले बाद इस पैनल में मुख्य न्यायाधीश भी शामिल थे लेकिन केंद्र सरकार की ओर से दिसम्बर 2023 मे नया कानून लाया गया। इसके मुताबिक सीजेआई की जगह पैनल में केंद्रीय मंत्री को रखा गया है। इससे पहले सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की जाती थी और परंपरा के अनुसार सबसे वरिष्ठ अधिकारी को मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त किया जाता था इनका कार्यकाल 6 वर्ष या 65 वर्ष की आयु तक होता है। अगर उसका 6 वर्ष का कार्यकाल पूरा नहीं हुआ है और उसकी उम्र 65 वर्ष पूरी हो जाती है तो नियमानुसार उसे अपने पद से हटना होगा। राज्य में चुनाव आयुक्त की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है।

अब कैसे होती है नियुक्ति

मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त की नियुक्ति सेवा की शर्तें और कार्यालय की अवधि) अधिनियम 2023 के प्रावधानों के तहत की जाती है। इस अधिनियम ने पुराने चुनाव आयोग आयुक्तों की सेवा की शर्तें और कामकाज का संचालन अधिनियम 1991 की जगह ली है। चुनाव आयोग के पास पहले सिर्फ एक मुख्य चुनाव चुनाव आयुक्त था, लेकिन वर्तमान में इसमें एक मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ दो चुनाव आयुक्त होते हैं। नए कानून के मुताबिक सबसे पहले कानून मंत्रालय की जिम्मेदारी होती है कि वो मुख्य चुनाव आयुक्त या चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए उम्मीदवारों को शाॅर्टलिस्ट करें। ये नाम वो प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय कमेटी के पास भेजेगा। चयन कमेटी के पास अधिकार हैं कि वो शाॅर्ट लिस्ट उम्मीदवार या उससे अलग किसी अन्य कैंडिडेट के नाम की सिफारिश भी कर सकती है। चयन कमेटी अपनी सिफारिश के नाम को राष्ट्रपति के पास भेजेगी। उसके बाद राष्ट्रपति इस कैंडिडेट के नाम पर अंतिम मुहर लगाएंगे और नोटिफिकेशन जारी किया जाएगा। चयन कमेटी की अध्यक्षता प्रधानमंत्री करते हैं। जिसमें लोकसभा विपक्ष के नेता और पीएम की ओर से नामित केंद्रीय मंत्री सदस्य के रूप में शामिल होते हैं।

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