इसमें कोई दो राय नहीं कि उत्तराखण्ड के युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी राज्य में औद्योगिक माहौल बनाने के लिए निरंतर प्रयासरत रहे हैं। वह लगातार उद्योग जगत के प्रतिनिधियों से संवाद भी कायम करते रहे हैं। इसके लिए बकायदा राज्य में ग्लोबल इन्वेस्टर समिट का आयोजन भी किया गया है। रोड शो आयोजित किए गए हैं। निवेशकों से निरंतर संवाद कायम कर निवेश के अनुकूल माहौल बनाया जा रहा है। तो क्या ऐसे में यह माना जाए कि राज्य में औद्योगिक विकास का नया युग शुरू हो गया है? लेकिन प्रदेश में औद्योगीकरण की जो स्थिति है वह कुछ और ही तस्वीर पेश करती है। प्रदेश में पुराने उद्योगों के साथ ही नए उद्योग विकसित करना आज भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है
सरकार दावों स इत्तर पूर्व में पहाड़ों में जो उद्योग स्थापित किए गए थे वह दम तोड़ रहे हैं। तमाम औद्यौगिक आस्थानों की स्थिति बदतर बनी हुई है। पहाड़ों में उद्योगों का यह हाल है कि पुराने उद्योग धंधे दम तोड़ चुके हैं और नए उद्योग नहीं लग पा रहे हैं। सिडकुल की स्थितियां भी बेहतर नहीं कही जा सकती हैं। प्रदेश में स्थापित पुराने एवं नए उद्योगों की स्थिति की पड़ताल करती ‘दि संडे पोस्ट’ की यह रिपोर्ट बताती है कि अगर राज्य की आर्थिक स्थितियों के साथ ही रोजगार के अवसरों में बढ़ोतरी करनी है तो प्रदेश में स्थापित उद्योगों व औद्योगिक विकास के लिए स्थापित औद्योगिक आस्थानों की अनदेखी नहीं की सकती है।
एचएमटी रानीबाग

एचएमटी जो कभी प्रदेश की पहचान थी, अब बीते दौर की बात हो गई है। नए दौर में यह सवाल है कि इस जगह का उपयोग किसके लिए किया जाए। रानीबाग के 91 एकड़ में यह फैक्ट्री स्थापित हुई थी। यह उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री व तत्तकालीन केन्द्रीय उद्योग मंत्री स्व. नारायण दत्त तिवारी का ड्रीम प्रोजेक्ट था। वर्ष 1982 में तत्तकालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसे स्वीकष्ति दी थी। वर्ष 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इसका शुभारंभ किया था। एक दौर ऐसा था जब यह फैक्ट्री अपने स्वर्णिम काल में थी। लेकिन धीरे-धीरे कुप्रबंधन के कारण यह 2016 में बंद हो गई। यहां काम पाने वाले लोग बेरोजगार हो गए। एक बार बंद हुई तो फिर इसके खुलने की कोई आशा न रही। उसके बाद सवाल यह उठा कि इस संपत्ति का उपयोग किस चीज के लिए किया जाए। यहां पर हाईकोर्ट, खेल विवि, मिनी सिडकुल बनाने की बातें तो खूब हुई लेकिन धरातल पर आज तक कोई काम नहीं हो पाया। यहां स्थित प्रशासनिक व आवासीय कालोनी अब खंडहर होने लगी है।। मशीनें नीलाम हो चुकी है। राजस्व व वन विभाग फैक्ट्री को अलाट भूमि वापस ले चुके हैं। वर्ष 2022 में भारत सरकार ने यहां की 45.33 एकड़ भूमि उत्तराखण्ड सरकार को हस्तांतरित भी कर दी। यह जमीन
72.02 करोड़ में रिजर्व प्राइस पर सरकार को हस्तांतरित हुई। वर्ष 2022 में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इस जमीन पर मिनी सिडकुल बनाने की घोषणा की थी। यह हल्द्वानी शहर से मात्र 8 किमी की दूरी पर है। यहां पीएम आवास के तहत गरीबों के लिए घर बनाने की बात भी उठी। लोगों की मांग है कि अगर यहां यहां सिडकुल बनता है तो यह रोजगार की दष्ष्टि से काफी बेहतर होता। जुबानी बातें भले खूब हो रही हों फिलहाल यह बेशकीमती जमीन लावारिश सी पड़ी हुई है।
ड्रग फैक्ट्री रानीखेत

रानीखेत स्थित ड्रग फैक्ट्री को उत्तराखण्ड की सबसे पुरानी दवा फैक्ट्री माना जाता है। कभी सैकड़ों हाथों को रोजगार देने वाली व राज्य की आर्थिकी में मददगार यह फैक्ट्री अब उपेक्षा का शिकार है। कभी यह पूरे देश में आयुर्वेदिक दवाओं की आपूर्ति करती थी। पहले यहां पर अंग्रेजों के लिए अव्वल दर्जे की वीयर बनती थी। बाद में इस विदेशी शराब कंपनी को औषधि कारखाने में तब्दील किया गया। इसके पीछे का उद्देश्य हिमालयी जड़ी-बूटियों को बढ़ाने, इनके संरक्षण व स्थानीय स्तर पर रोजगार पैदा करना था। वर्ष 1954 में यह कारखाना स्थापित हुआ था। कभी यहां एक हजार से अधिक कर्मचारी काम करते थे। इस फैक्ट्री में दशमूलारिष्ट, च्यवनप्राश, समेत सौ से ज्यादा उत्पाद बनाए जाते थे। यहां की दवाएं देश भर की आयुर्वेदिक कंपनियों व चिकित्सालयों में भेजी जाती थी। राज्य बनने के समय इस फैक्ट्री का सालाना टर्नओवर चार करोड़ रूपए के आस-पास था। लेकिन पिछले कई सालों से सरकारी उपेक्षा के चलते यह कारखाना लगातार घाटे में जाता रहा है। पिछले कई वर्षों से यहां पर उत्पादन ठप पड़ा हुआ है। कामगारों की संख्या भी गिनती भर की रह गई है। इस जगह पर वर्ष 2018 में आयुर्वेदिक विश्वविद्यालय की शाखा खोलने की घोषणा हुई थी, जो हवा-हवाई साबित हुई है। जब यहां यह फैक्ट्री खुली तो उसके बाद वर्ष 1974 में पातालदेवी औद्योगिक आस्थान, अल्मोेड़ा में ऐलोपैथ आधारित दवा कारखाना आल्पस स्थापित हुआ था। इस फैक्ट्री ने भी एक दौर में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई थी लेकिन अब यह भी दम तोड़ रही है। अल्मोड़ा के मोहान स्थित इंडियन मेडिकल फार्मास्यूटिकल कारपोरेशन लिमिटेड के निजीकरण पर राजनीति गरमाने लगी है। कांग्रेके के प्रदेश अध्यक्ष करन मेहरा का आरोप है कि यह कंपनी लगातार फायदे में चल रही है। बड़ी संख्या में कर्मचारियांे के परिवार इससे पल रहे हैं। सरकार कंपनी को बेचने का षड़यंत्र रच रही है। अगर ऐसा हुआ तो वह आंदोलन पर उतर आएंगे।
यही हाल पूरे प्रदेश के फार्मास्यूटिकल उद्योग का है। पूरे प्रदेश में 286 फार्मास्यूटिकल इकाइयां हैं। अकेले उधमसिंहनगर में 36 बड़ी इकाइयां हैं। लेकिन कच्चे माल के लिए दूसरे प्रदेशों पर निर्भरता है। यह प्रदेश से बाहर जाने वाले उत्पादों में सबसे उपर है। यह सेक्टर प्रदेश में करीब एक लाख लोगों को रोजगार दे रहा है। रा मेटिरियल हब न होने से इसकी महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश में निर्भरता है। ऐसे में यहां स्थापित कंपनियों को ट्रांसपोर्टेशन लागत अधिक चुकानी पड़ती है। जिसका असर इसकी उत्पाद कीमतों पर पड़ता है। कुमाऊं के उधमसिंह नगर के सिडकुल, पंतनगर, रूद्रपुर, काशीपुर एवं सितारगंज में इसकी कई इकाइयां स्थापित हैं। उद्यमियों का कहना है कि राज्य के आर्थिक विकास में फार्मास्यूटिकल उद्योग की अहम भूमिका है लेकिन यहां कच्चे माल के हब नहीं हैं। यहां पर राॅ मैटेरियल हब होना चाहिए। बिजली की आपूर्ति भी सुचारू होनी चाहिए। सिंगल विंडो पोर्टल ठीक से नहीं चलता, सूचनाएं अपडेट नहीं रहती हैं। एनओसी के लिए आवेदन समय पर नहीं हो पाता है। उद्यमी चाहते हैं कि दवा इकाइयों को अपग्रेड करने की समय सीमा पांच साल की जाए। दवा कंपनियों के लिए नई स्कीम लाई जाए। राज्य के उत्पादों को वरीयता दी जाए। यहां जड़ी-बूटी उत्पादन को प्रोत्साहित किया जाए। यहां पर राॅ मैटेरियल हब बने। जीएसटी की दरों को कम किया जाए। इनपुट क्रेडिट का लाभ समय पर दिया जाए।
कौसानी की चाय फैक्ट्री

यह फैक्ट्री भी कुप्रबंधन की शिकार हो गई। किसी समय यहां की चाय ने अपनी एक खास पहचान बनाई थी। राज्य बनने के बाद उम्मीद थी कि यह राज्य के एक ब्रांड के रूप में विकसित होगा लेकिन उल्टा यह फैक्ट्री ही बंद हो गई। वर्ष 1994-95 मंे कुमाऊं मंडल विकास निगम और गढ़वाल मंडल विकास निगम ने चाय प्रकोष्ठ की नींव रखी। इसके बाद कौसानी में 211 हेक्टेयर जमीन का चयन बागान के लिए किया गया। लेकिन बाद में इस प्रकोष्ठ ने संसाधनों की कमी के चलते 50 हेक्टेयर जमीन में ही बागान विकसित किए गये जो 2001 में चाय के व्यावसायिक उत्पादन के लिए तैयार हो गए। वर्ष 2001 में ही एक निजी कंपनी गिरीराज ने यहां एक फैक्ट्री खोली। वर्ष 2002 में इस चाय बागान से 70588 किग्रा कच्ची पत्तियां उत्पादित हुई। जिससे 13955 किग्रा से अधिक चाय तैयार हुई। इसे उत्तरांचल टी के नाम से बाजार में उतारा गया, इससे मुनाफा होने लगा तो 2004 में उत्तराखण्ड चाय विकास बोर्ड का गठन किया गया। वर्ष 2013 तक बोर्ड ने 211 हेक्टेयर भूमि में चाय उत्पादन कर 2.50 लाख किलो कच्ची पत्तियां उपलब्ध कराई। लेकिन 2014 में इस फैक्ट्री ने दम तोड़ दिया। लम्बे समय से फैक्ट्री को खोलने की मांग हो रही है। जिससे मजदूरों व स्थानीय लोगों को रोजगार प्राप्त हो सके। इस फैक्ट्री में जो एक हजार कर्मचारी काम करते थे वह लंबे समय से बेरोजगार चल रहे हैं।
राज्य के विकास में उद्योगों की बड़ी भूमिका है। राज्य में अधिक से अधिक उद्योग स्थापित हों, पुराने उद्योगों को बेहतर सुविधा मिले, इसके लिए राज्य सरकार प्रयासरत है। राज्य का माहौल पूरी तरह उद्योगों के अनुकूल है। पर्वतीय क्षेत्रों में उद्योगों को बढ़ावा देने की जरूरत है। औद्योगिक क्षेत्रों में अवस्थापना सुविधाओं के विकास पर भी ध्यान दिया जा रहा है। प्रदेश में उद्योगों के अनुकूल नीतियां बनाई जा रही हैं। देश भर के उद्यमी उत्तराखण्ड में औद्योगिक इकाईयां स्थापित कर सकें इसके लिए लगातार प्रयास किए जाते रहे हैं।
पुष्कर सिंह धामी, मुख्यमंत्री, उत्तराखण्ड
राज्य बनने के बाद सबसे बड़ी गाज यहां के उद्योग धंधों पर गिरी। कुमाऊं मंडल विकास निगम की पर्वत वायर, ट्रांसकेबिल, रोजिन फैक्ट्री, फ्लशडोर फैक्ट्री बंद एक के बाद एक बंद हो गई। सवाल यह है कि इन तमाम बंद पड़ी फैक्ट्रियों की उच्च स्तरीय जांच तक नहीं हुई। न ही इन कारणों का पता लगाया गया कि क्यों ये उद्योग बंद हुए। कारण तो स्पष्ट है कि सरकारी लापरवाही के चलते यह फैक्ट्रियां बंद हुई। कमीशनखोरी इन्हें ले डूबी लेकिन सवाल कि इसकी जिम्मेदारी कौन ले। इधर बंद औद्योगिक इकाइयों से कुमाऊं मंडल विकास निगम को दोहरी मार झेलनी पड़ रही है। उसकी करोड़ों की भूमि लावारिश पड़ी है। जिन इकाइयों से कभी लाखों की आय होती थी वह ठप हैं। पर्वत वायर, पर्वत प्लास्टिक जैसी औद्योगिक इकाइयां अर्सें से बंद पड़ी हुई हैं। चम्पावत की रोजिन एंड टरपाइन फैक्ट्री जो 230 नाली जमीन में फैली है। यह 1978 में 15 लाख रुपए में तैयार हुई। इसमें सैकड़ों लोगों को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिला। नए राज्य में नई लीसा नीति के चलते यह दम तोड़ गई। बाद में इस जमीन को वाइनरी प्लांट के रूप में विकसित करने की जिला प्रशासन की बात हुई। यहां नाशपाती, सेब और सिटरस फल प्रचुर मात्रा में होते हैं जिससे यहां पर यह प्लांट लगाने की बात हुई लेकिन यह जमीन पर नहीं उतर पाई। कभी यह लाभ की स्थिति में था लेकिन शासन की गलत नीति इसे ले डूबी। इसी तरह ट्रांस केबल फैक्ट्री भी 2006 में बंद हो गई। इसी जमीन का भी सही उपयोग नहीं हो पाया। वर्ष 1973 में इस केबल फैक्ट्री की स्थापना हुई। 1976 में इससे उत्पादन शुरू हुआ। 60 से अधिक कर्मचारी इसमें काम करते थे। लेकिन लीज खत्म होने के बाद कोई कार्रवाही नहीं होने से यह बंद हो गई।
खाद्य प्रसंस्करण इकाइयां
यही हाल खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों का भी है। प्रदेश में कष्षि एवं खाद्य प्रसंस्करण का क्षेत्र बहुत अधिक सम्भावना वाला है। किसान व उद्यमियों का इस और रूझान भी है। कुमाऊं में रामगढ़, मुक्तेश्वर, पहाड़पानी, शहरफाटक, लोहाघाट, चंपावत, मुनस्यारी, रानीखेत, चैबटिया आदि क्षेत्र सेब, आढ़ू, पुलम, खुबानी, माल्टा व नीबू आदि के उत्पादन में अग्रणी हैं। इन इलाकों में आलू, मटर, टमाटर, गोभी समेत मौसमी सब्जियों का भी ठीक-ठाक उत्पादन होता है। पर्वतीय जिलों में फल व सब्जियों के स्टोरेज एवं प्रोसेसिंग की सुविधा न के बराबर है और हल्द्वानी की मंडी पर भी पहाड़ के काश्तकार निर्भर है। यहां उद्यान विभाग की और से खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों की स्थापना की जाती है। अभी नैनीताल जिले में 16 इकाइयों में अब तक 450 लोगों को रोजगार मिला है वहीं कई रोजगार पाने वाले अपना उद्यम खोलना चाहते हैं। उद्यमसिंहनगर में 40 बड़ी इकाइयां हैं। यहां से लहसुन पेसट, पनीर क्यूब सहित एक दर्जन से अधिक उत्पाद निर्यात होते हैं। पूरे तराई में उद्यान विभाग के 355 लघु खाद्य एवं प्रसस्करण व 40 बड़े उद्योग स्थापित हैं। पांच हजार से अधिक लोग इसमें रोजगार में जुड़े हैं। ये इकाइयां आसानी से खुल तो जाती हैं लेकिन इसमें तैयार किए गए उत्पादों को सही मार्केटिंग नहीं मिल पाती है। उद्यमियों के सामने सही ढंग से मार्केटिंग न होना, पैकेजिंग के लिए स्थानीय स्तर पर सामग्री का न मिलना, स्थानीय स्तर पर पैकिंग की सुविधा न मिल पाना, योजनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए जनजागरूकता कार्यक्रम का आयोजित न होना जैसी दिक्कतें हैं, जिसका हल वह सरकार से चाहते हैं।
दम तोड़ते औद्योगिक आस्थान
पहाड़ के तमाम औद्योगिक आस्थान दम तोड़ रहे हैं। सन् 60 के दशक में अल्मोड़ा में पातालदेवी औद्योगिक आस्थान बना। अगर उत्तराखण्ड में औद्योगिक आस्थानों की बात करें तो दन्यां, चिलियानौला, भिकियासैंण, ताड़ीखेत, सल्ट में औद्योगिक क्षेत्र विकसित करने के लिए भूमि का अधिग्रण भी हुआ। राज्य बनने के बाद लमगड़ा के धुरा संगरौली में इंडस्ट्रीयल एस्टेट के लिए भूमि चयनित की गई। सन् 80 के दशक में यह शुरू हुआ। राज्य बनने के बाद ऊधमसिंह नगर व हरिद्वार में सिडकुल बना।
पातालदेवी औद्योगिक आस्थान
वर्ष 1962 से 64 के बीच में 4.27 एकड़ भूमि में यह विकसित हुआ। वर्ष 19975 में यहां आल्पस दवा फैक्ट्री खुली। बाद में आरा मशीन के साथ ही 16 से अधिक इकाइयां लगी। बाद में अधिकतर बंद हो गई। राज्य गठन के बाद यहां हैंडलूम, लौह व बेकरी इकाइयां लगी।
स्यालीधार इंडस्ट्रीयल एस्टेट
वर्ष 1985-86 में 17.34 एकड़ में यह विकसित हुआ। एक भी औद्योगिक इकाई यहां नहीं लगी। अभी हाल में यहां मानसखंड सांइंस पार्क बनाया गया है। द्वाराहाट मिनी इंडस्ट्रीयल एस्टेट वर्ष 1988 में इसके लिए 2.79 एकड़ भूमि चिन्हित की गई थी। वर्ष 1993 में इसे विकसित किया गया। यहां पर 55 प्लाट बने जिसमें 52 आंवटित हुए। बाद में 21 निरस्त हो गए। चार इकाइयों के लिए यहां भवनों का भी निर्माण हुआ।
चिलियानौला इंडस्ट्रीयल एस्टेट
वर्ष 1989 में यहां 2.18 एकड़ भूमि का अधिग्रहण हुआ। वर्ष 1995 में इसे औद्यागिक क्षेत्र घोषित किया गया। यहां पर मात्र एक इकाई लगी।
भिकियासैंण इंडस्ट्रीयल एस्टेट
वर्ष 1990 में यहां 2.35 एकड़ भूमि अधिग्रहित हुई। वर्ष 1995 में इसे विकसित किया गया। लेकिन आज तक एक भी उद्योग यहां नहीं लगा।
दन्या मिनी इंडस्ट्रीयल एस्टेट
वर्ष 1990 में 80 एकड़ भूमि का अधिग्रहण हुआ। वर्ष 1995 में इसे विकसित किया गया। यहां पर अभी तक मात्र एक इकाई लगी।
धुरा संगरौली इंडस्ट्रीयल एरिया, लमगड़ा
यहां वर्ष 2007 में दो एकड़ भूमि को इंडस्ट्रीयल एरिया के लिए चिन्हित किया गया। लेकिन तब से इस पर कोई काम नहीं हो पाया है। यही प्रदेश के सभी जिलों में स्थापित औद्योगिक आस्थानों का है। उत्तराखण्ड में औद्योगिक विकास के लिए पंतनगर, सेलाकुई, हरिद्वार, कोटद्वार, सितारगंज, काशीपुर में जो औद्योगिक इकाइयां खोली गई हैं उसमें स्थापित कई कंपनियों में ताले लटकते जा रहे हैं। हालांकि रूद्रपुर, पंतनगर, सितारगंज में स्थापित सिडकुल में जहां 550 से अधिक कंपनियां काम कर रही हैं, यहां थोड़ा बहुत रोजगार युवाओं को मिल रहा है। लेकिन बेहद कम कीमत पर अपना श्रम बेचना इनकी मजबूरी बनी हुई है। हालांकि प्रदेश सरकार का दावा है कि पिछले पांच साल में राज्य में 18 हजार नए उद्योग धंधे खुले हैं जिसमें हजारों हाथों को रोजगार मिला है। लेकिन वहीं राज्य बनने के बाद से अब तक प्रदेश में बेरोजगारी का प्रतिशत बढ़कर 56 प्रतिशत हो चुका है। बेरोजगार युवक-युवतियों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। सरकारी स्तर पर रोजगार कम हैं। संविदा आधारित नौकरियों की संख्या बढ़ती जा रही है। प्रदेश के रोजगार कार्यालयों में 8 लाख से अधिक बेरोजगार पंजीकष्त हैं। सरकारी विभागों में 64 हजार से अधिक पद खाली हैं। प्रदेश में 20 हजार पदों पर कामचलाऊ व्यवस्था चल रही है। समूह क से लेकर घ तक आउटसोर्सिग से दैनिकभोगी कर्मी नियुक्त हो रहे हैं।


राज्य के विकास में उद्योगों की बड़ी भूमिका है। राज्य में अधिक से अधिक उद्योग स्थापित हों, पुराने उद्योगों को बेहतर सुविधा मिले, इसके लिए राज्य सरकार प्रयासरत है। राज्य का माहौल पूरी तरह उद्योगों के अनुकूल है। पर्वतीय क्षेत्रों में उद्योगों को बढ़ावा देने की जरूरत है। औद्योगिक क्षेत्रों में अवस्थापना सुविधाओं के विकास पर भी ध्यान दिया जा रहा है। प्रदेश में उद्योगों के अनुकूल नीतियां बनाई जा रही हैं। देश भर के उद्यमी उत्तराखण्ड में औद्योगिक इकाईयां स्थापित कर सकें इसके लिए लगातार प्रयास किए जाते रहे हैं।