नैनीताल वासियों के लिए मां नंदा ही सब कुछ है। जैसा कि मैंने कहा कि हमारे प्रांत में मां नंदा को बहन-बेटी की तरह ही लाड़ के साथ पूजा जाता है इसलिए उनसे लगाव भी आत्मिक होता है और जहां आत्मिक लगाव होगा वहां भाव थोड़े बहुत स्वत्वबोधक से हो जाते हैं। मैं तब बहुत छोटी थी शायद बात 1987 की है। उस समय के अखबार की कुछ कटिंग्स मुझे मेरे नैनीताल चार्टन लॉज के घर में लगभग एक दशक बाद मिली। तब तक 2000 की यात्रा की तैयारी शुरू हो चुकी थी। उन कटिंग्स के माध्यम से मुझे नंदा देवी राजजात यात्रा के विषय में पहली बार पता लगा। कटिंग्स रखने का कारण था हमारा पड़ोसी ढौंडियाल परिवार जिनसे हमारे परिवार का बहुत आत्मिक लगाव था। उनके परिवार का एक बच्चा सबसे कम उम्र का राजजात यात्री बना था
श्वेता मासीवाल
सामाजिक कार्यकर्ता
‘उत्तराखण्ड एक आध्यात्मिक खोज’ श्रृंखला के अंतर्गत हम देवभूमि में शिव की खोज निरंतर कर रहे हैं। नवरात्र के दिन इस बात की याद दिलाते हैं कि शक्ति की उपासना किए बगैर शिव को पाना असम्भव है। इस चलते यह आलेख उत्तराखण्ड की अधिष्ठात्री देवी मां नंदा के पावन चरणों में समपिज़्त है। हम सब देवी के इस मंत्र का आजकल जाप करते हैं।
इस दिव्य मंत्र में देवी के स्वरूपों का विस्तार होना समझाया गया है। उनका सर्वप्रथम रूप है मां शैलपुत्री का। शैल यानी पर्वत। पर्वत पुत्री मां पार्वती के कौमार्य रूप को ही शैलपुत्री रूप में पूजा जाता है। माता शैलपुत्री का स्वरूप बेहद शांत और सरल है। माता ने दाएं हाथ में त्रिशूल धारण किया हुआ है, जो धर्म, मोक्ष और अर्थ के द्वारा संतुलन का प्रतीक है, वहीं माता ने बाएं हाथ में कमल का फूल धारण किया हुआ है, जो स्थूल जगत में रहकर उससे परे रहने का संकेत देता है। शैलपुत्री की सवारी वृषभ यानी बैल है, जो कि नंदी के समान है। मां अपने भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करती हैं और सुख-समृद्धि का आशीर्वाद प्रदान करती हैं।
जब शैलपुत्री को शिव को पाने की तपस्या की लगन लगी तब वो ब्रह्माचारिणी स्वरूपा हो गई। मां ब्रह्माचारिणी को ज्ञान और तप की देवी कहा जाता है। भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए मां पार्वती ने कठोर तपस्या की थी। मां ब्रह्माचारिणी सफेद साड़ी धारण करती हैं। साथ ही उनके दाएं हाथ में माला और बाएं हाथ में कमण्डल है। शास्त्रों के अनुसार, नवरात्रि के दूसरे दिन मां ब्रह्माचारिणी की पूजा करने से जातक को आदि और व्याधि रोगों से मुक्ति मिलती है। शास्त्रों में वर्णित है कि मां ब्रह्माचारिणी के पूजन से भगवान शिव भी प्रसन्न होते हैं। यम, नियम के बंधन से मुक्ति मिलती है। ब्रह्मा को प्राप्त करने के लिए भगवती ने तपस्या की, इसलिए उनका नाम ब्रह्माचारिणी पड़ा।
मान्यता है कि माता ने तपस्या के दौरान सिर्फ बिल्वपत्रों का सेवन किया था। खैर इतनी कठिन साधना का फल कैसे ना मिलता इसलिए तीसरे स्वरूप में मां को चंद्रघंटा स्वरूप में पूजा जाता है। अब यहां इस शाश्वत प्रेम का प्रमाण देखिएगा। इस स्वरूप में शिव जी चंद्रमौली रूप में त्रिजुगीनारायण में मां पार्वती के साथ सप्तपदी संस्कार के बंधन में स्थित हो जाते हैं और दिव्य प्रेम की बानगी देखिए कि जो पति को प्रिय है वहीं पत्नी के साथ भी चमकने लगता है। दोनों चंद्रमा को साझा करते हुए दिव्य अलौकिक प्रेम की मिसाल स्थापित करते हैं। इसके आगे मां के इन नौ स्वरूपों की विस्तार से चर्चा आगे बाद में। अभी पुन: आते हैं शैलपुत्री रूप पर।
पूर्वजन्म में यही रूप में दक्ष प्रजापति की कन्या सती माता के रूप में जन्म लेती है और फिर हवन की अग्नि में होम हो जाने के पश्चात हिमालय के राजा हिमवन्त और माता मैना के घर में जन्म लेती हैं। माता के इसी दिव्य रूप को कुमाऊं गढ़वाल में शक्ति रूप देवी नंदा को बेटी और बहन के रूप में ही पूजा जाता है।
हर साल मां नंदा का जब डोला उठता है वो इस बात का द्योतक होता है कि अब मां अपने मायके उत्तराखण्ड से कैलाश की तरफ जा रही हैं। डोला उठते समय सभी पर्वतीय माताओं बहनों की आंखें नम होती हैं और नंदा सुनंदा का विसर्जन बहुत ही भाव के साथ होता है। जब मैं गणपति विसर्जन के बाबत लिख रही थी तब भी मुझे यही स्मरण हो रहा था कि विसर्जन की परम्परा उत्तराखण्ड के लिए नवीन नहीं है। पौराणिक मान्यता प्राप्त पार्थिव पूजन को तो सवज़्श्रेष्ठ पूजन का दर्जा प्राप्त है।
मैं मूल रूप से नैनीताल से हूं तो नयना देवी प्रांगण में लगने वाले मां नंदा देवी उत्सव से विशेष लगाव रखती हूं। लेकिन मां के विस्तृत होने के प्रमाण बड़े होते-होते मेरी हिमालय यात्रा के दौरान मिले और ये वो जमाना ही नहीं था जब गूगल बाबा हमें ज्ञान देकर बता देते की मां के आशीर्वाद और कृपा का दायरा नैनीताल अल्मोड़ा से आगे बहुत विशाल है।
नैनीताल वासियों के लिए मां नंदा ही सब कुछ है। जैसा कि मैंने कहा कि हमारे प्रांत में मां नंदा को बहन-बेटी की तरह ही लाड़ के साथ पूजा जाता है इसलिए उनसे लगाव भी आत्मिक होता है और जहां आत्मिक लगाव होगा वहां भाव थोड़े बहुत स्वत्वबोधक से हो जाते हैं।
मैं तब बहुत छोटी थी शायद बात 1987 की है। उस समय के अखबार की कुछ कटिंग्स मुझे मेरे नैनीताल चार्टन लॉज के घर में लगभग एक दशक बाद मिली। तब तक 2000 की यात्रा की तैयारी शुरू हो चुकी थी। उन कटिंग्स के माध्यम से मुझे नंदा देवी राजजात यात्रा के विषय में पहली बार पता लगा। कटिंग्स रखने का कारण था हमारा पड़ोसी ढौंडियाल परिवार जिनसे हमारे परिवार का बहुत आत्मिक लगाव था। उनके परिवार का एक बच्चा सबसे कम उम्र का राजजात यात्री बना था। उन कटिंग्स के बाद मैं ढौंडियाल परिवार की मुखिया जिन्हें हम सब मां जी कह पुकारते थे, से नंदा देवी राजजात के बारे में कुरेद-कुरेद कर पूछती। मां धवल श्वेत वस्त्रों में स्वयं मुझे देवी स्वरूपा ही लगती थीं और आंगन साझा होने की वजह से मैं उन्हें भी उतनी ही प्रिय थी जितने उनके अपने परिवार के बच्चे। मुझे ये तो याद नहीं उनका नवासा या पोता कौन नन्हा यात्री था पर मुझे ये स्पष्ट याद है उन्होंने मुझे बताया था कि नंदा देवी पवज़्त के पास बहुत से लोगों को मां आज भी साक्षात दर्शन देती हैं। एकदम बच्ची का स्वरूप धरकर। मेरे बालमन में तब ये बात बैठ गई थी। हर सनातनी परिवार का बच्चा ऐसी फंतासियों को सुनकर ही बड़ा होता है। बहुत बाद में एक पर्वतारोही मित्र ने इसकी पुष्टि की कि वाकई ये दिव्य अनुभव बहुत से लोगों को होता है।
नंदा देवी राजजात यात्रा बारह वर्ष में एक बार होती है। ये भी एक अद्भुत संयोग है कि राजजात यात्रा में चैसिंगा खांडू (चार सिंगों वाला भेड़) भी शामिल होता है जोकि स्थानीय क्षेत्र में राजजात यात्रा से ठीक पहले ही पैदा होता जाता है। उसके पीठ में रखे थैली में श्रद्धालु के श्रृंगार व हल्की सी भेंट अन्य सामग्री होती है। यह भेड़ हेमकुंड में पूजा के बाद आगे हिमालय की ओर प्रस्थान करता है और फिर लुप्त हो जाता है।
ये दिव्य संयोग बारह वर्षों में एक ही बार बनता है। कितना अद्भुत संयोग है कि ये विशिष्ट पशु एक तय अवधि के दौरान ही जन्म लेता है। अब चलते हैं नंदा देवी राजजात के महात्म की तरफ। ये पूरी यात्रा नवविवाहिता नंदा देवी की यात्रा को दर्शाती है, जो अपने मायके से निकलकर कैलाश की तरफ जा रही हैं। आधिकारिक तौर पर परम्पराओं के अनुसार, देवी हर बारह साल बाद अपने मायके जाती हैं और फिर कई हफ्तों तक जश्न मनाने के बाद वापस कैलाश लौट जाती हैं। इसलिए स्थानीय गढ़वाली रीति-रिवाजों के अनुसार, उनके जाने से पहले हर कोई उनसे मिलने जाता है और उन्हें ढेर सारे उपहार भेंट किए जाते हैं। आस-पास के इलाकों से कई देवता उनसे मिलने आते हैं और वह कई मंदिरों में भी जाती हैं। देवी जिस आखिरी गांव में जाती हैं, उसका आखिरी मंदिर उनके धरम-भाई (कर्तव्य के आधार पर भाई) को समर्पित है, जिन्हें ‘लाटू- देवता’ कहा जाता है। यात्रा के दौरान कवर किया जाने वाला पूरा क्षेत्र दो हिस्सों में विभाजित है, पहला मैत (मातृगृह या मां का घर) और दूसरा सौरास (ससुराल या पति का घर)। मैत क्षेत्र के लोग इस यात्रा के दौरान बहुत भावुक हो जाते हैं, जैसे कि अपनी बेटी को सौरास भेज रहे हों।
यह राजजात यात्रा नंदप्रयाग से 25 किलोमीटर दूर कुरुड़ गांव से शुरू होती है और कर्णप्रयाग से 25 किलोमीटर दूर नौटी गांव की ओर बढ़ती है, जो कर्णप्रयाग तहसील में है। कंसुआ गांव के कुंवर और नौटी गांव के नौटियाल देवी का स्वागत करते हैं। हालांकि नंदा देवी राजजात यात्रा के मुख्य पुजारी कुरुड़ गांव के गौड़ ही रहते हैं। इस यात्रा की किंवदंती है कि नंदा देवी, जो भगवान शिव की पत्नी हैं, अपने गांव को छोड़कर नंदा देवी पर्वत पर चली गईं। इसलिए जब यात्रा शुरू होती है तो भारी बारिश होती है जैसे कि देवी रो रही हों। यह यात्रा कई गांवों को कवर करती है और रास्ते में देवी भगवती गांव में अपनी बहन से मिलती हैं। इस यात्रा में ना जाने कितने शोधकर्ता घुमंतू विद्वान साहित्यकार लेखक कलाकार संगीतकार आध्यात्मिक समझ रखने वाले लोगों के एक भारी हुजूम के साथ-साथ अनेकों स्थानीय लोग भी शामिल होते हैं। अगली बार यात्रा का संयोग 2026 में बन रहा है। यह यात्रा कठिन है क्योंकि यह एक दुर्गम भू-भाग से होकर गुजरती है। यात्रा के दौरान, एक झील से होकर गुजरना पड़ता है जिसे रूपकुंड के नाम से जाना जाता है, जो सैकड़ों प्राचीन कंकालों से घिरी हुई है।
स्थानीय पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार एक राजा कुछ नर्तकियों को इस पवित्र स्थान पर ले गया था। भारी बबर्फ़बारी के कारण, लोग फंस गए और नर्तकियां कंकालों और पत्थरों में बदल गईं जिन्हें पटरनचोनिया में देखा जा सकता है। एक और मिथक यह है कि राजा यशोदावल की पत्नी गर्भवती थी और जब वह अपने बच्चे को जन्म दे रही थी तो उसका नाल बहकर रूपकुंड में आ गया और इसके कारण वहां के लोगों की मृत्यु हो गई।
ऐसी ही ना जाने कितने रहस्य हिमालय का क्षेत्र अपने गर्भ में छिपाए है। लेकिन नंदा देवी की कथा एक अंक में कहना संभव नहीं। नंदा देवी पर्वत के अलावा पूरा कुमाऊं गढ़वाल में नंदा देवी को लेकर कई मान्यताएं हैं। प्रत्येक वर्ष राजजात के सम्मान में लोकजात यात्रा भी होती है।
शायद मां नंदा की ऊर्जावान का ही प्रताप है कि मात्र कुछ मंदिर परिसरों में नहीं, बल्कि प्रकृति के आंगन में, मां पूरे उत्तराखण्ड के कण-कण में विद्यमान हैं, हमारे हिम प्रदेश की संरक्षक देवी बनकर।
इसी तरह नवरात्रि के अंतिम दिवस कन्या पूजन होता है। यह नारी की शक्ति ही है कि कन्या रूप में पूजनीय भी है और सहज ही बालरूप में आ जाती हैं। ये शक्ति की सरलता है, वरना पूरी मानव जाति और ब्रह्माांड को चलाने वाली शक्ति को कौन पूज सका है? बस प्रयास कर सकते हैं अपने सीमित संसाधन और ज्ञान से।
नवरात्रि के उपलक्ष्य पर शक्ति स्वरूपा मां हिमनंदा और उनके सभी रूपों के चरणों में कोटि-कोटि नमन।
साम्ब सदाशिव!
(लेखिका रेडियों प्रज़ेन्टर, एड फिल्म मेकर तथा वत्सल सुदीप फाउंडेशन की सचिव हैं)

