न्यायपालिका की आलोचना और असहमति लोकतंत्र में स्वाभाविक है, लेकिन वह आलोचना न्यायिक गरिमा और संवैधानिक मर्यादा के भीतर रहनी चाहिए। लोकतंत्र में आलोचना और असहमति के लिए भरपूर स्थान है, किंतु यह स्वतंत्रता संस्थाओं की गरिमा को ठेस पहुंचाने का अधिकार नहीं देती। राजनीतिक नेताओं की ओर से न्यायपालिका के प्रति सम्मान और संयम अपेक्षित है, विशेषकर तब जब न्यायालय सरकारों के कानूनों की संवैधानिक समीक्षा कर रहे हों। ताजा मामला भाजपा सांसदों निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा के बयानों का है, जिन्होंने वक्फ संशोधन विधेयक पर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई को लेकर ऐसे आरोप लगाए जिससे न्यायपालिका की गरिमा पर गम्भीर प्रश्नचिह्न लग हैं। विरोध के स्वर उठे तो भाजपा नेतृत्व को स्पष्टीकरण देना पड़ा कि ये व्यक्तिगत बयान हैं और पार्टी का इनसे कोई सम्बंध नहीं है
भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद तीन प्रमुख स्तंभों कृ विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका कृ पर टिकी है। इन तीनों के बीच शक्ति का संतुलन और परस्पर सम्मान ही लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करता है। किंतु हाल के दिनों में यह संतुलन बार-बार उस समय डगमगाता दिखता है जब सत्ता पक्ष या विपक्ष के नेता न्यायपालिका के विरुद्ध असंतुलन पैदा करने वाले बयान देते हैं।

ताजा मामला भाजपा सांसदों निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा के बयानों का है, जिन्होंने वक्फ संशोधन विधेयक पर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई को लेकर ऐसे आरोप लगाए जिससे न्यायपालिका की गरिमा पर प्रश्नचिह्न लगे। विरोध के स्वर उठे तो भाजपा नेतृत्व को स्पष्टीकरण देना पड़ा कि ये व्यक्तिगत बयान हैं और पार्टी का इनसे कोई सम्बंध नहीं है।
भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने गत् दिनें बेहद विवादास्पद बयान दे भाजपा आलाकमान को बैकफुट में ला खड़ा किया है। उन्होंने कहा कि – ‘धार्मिक गृहयुद्ध भड़काने के लिए सुप्रीम कोर्ट जिम्मेदार है। अगर हर बात सुप्रीम कोर्ट ही तय करेगा तो संसद और विधानसभा बंद कर दी जानी चाहिए।’ इसके अलावा उन्होंने भारत के मुख्य न्यायाधीश को इन गृहयुद्धों का ‘जिम्मेदार’ बताया।

वहीं राज्यसभा सांसद दिनेश शर्मा ने इस विवादास्पद बयान पर तेल डाल उसे भड़का डाला। बकौल शर्मा ‘कोई भी संस्था लोकसभा और राज्यसभा को निर्देशित नहीं कर सकती। राष्ट्रपति सर्वोच्च हैं और उन्हें कोई चुनौती नहीं दे सकता।’ इन बयानों ने न केवल संवैधानिक मर्यादाओं की सीमाएं पार कीं, बल्कि एक बार फिर यह प्रश्न खड़ा किया कि क्या लोकतंत्र में संस्थाओं की गरिमा राजनीति की बलि चढ़ सकती है?
बीजेपी की प्रतिक्रिया: ‘व्यक्तिगत बयान, पार्टी असहमत’
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भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने डैमेज कंट्रोलल की नीयत से दोनों नेताओं के बयानों से खुद को अलग कर दिया। नड्डा के अनुसार ‘भाजपा न्यायपालिका का सम्मान करती है। इन बयानों से पार्टी का कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे किसी भी विचार से हम सहमत नहीं हैं और नेताओं को ऐसे बयान देने से परहेज करने का निर्देश दिया गया है।’
मोदी लहर के दौर में हाशिए में पड़े विपक्ष को लेकिन जैसे ऐसे ही किसी मुद्दे की तलाश थी। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने मोर्चा सम्भालते हुए इसे बड़ा मुद्दा बना डाला है। उनका कहना है कि ‘भाजपा लगातार सुप्रीम कोर्ट को निशाना बना रही है, क्योंकि वह सरकार के संविधान विरोधी कानूनों पर सवाल उठा रही है।’ युवा कांग्रेस अध्यक्ष वरुण चैधरी, आप प्रवक्ता प्रियंका कक्कड़ और एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी सहित विपक्षी दलों ने भी भाजपा पर संविधान और न्यायपालिका की अवमानना का आरोप लगाया है।
पहले भी हो चुके हैं न्यायपालिका पर विवादास्पद बयान
यह पहली बार नहीं है जब राजनीतिक नेताओं ने न्यायपालिका पर तीखी टिप्पणी की हो। वर्ष 2019 में पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कृषि कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट की भूमिका को लेकर टिप्पणी की थी कि ‘अदालत को जनभावना समझनी चाहिए, न कि सरकार को बचाना।’ केजरीवाल सरकार बनाम उपराज्यपाल विवाद में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा उपराज्यपाल को ‘मुख्य प्रशासक’ कहे जाने पर आप नेताओं ने फैसले को ‘केंद्र का झुकाव’ कहा था। बागी भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने भी कई बार सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों पर व्यक्तिगत हमले किए, जिससे उनके विरुद्ध अवमानना की चेतावनी तक दी गई।
सुप्रीम कोर्ट ने 2020 वरिष्ठ अधिवक्ता भूषण को न्यायपालिका के खिलाफ की गई टिप्पणियों के लिए दोषी पाया था। उन्होंने मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट की कार्यशैली पर ट्वीट किए थे। कोर्ट ने उन्हें आपराधिक अवमानना का दोषी ठहराया। हालांकि उन्हें सजा नहीं दी गई, सिर्फ प्रतीकात्मक जुर्माना लगाया गया।
वर्ष 1994 में शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के समाचारपत्र ‘सामना’ में प्रकाशित आलेख में न्यायपालिका के प्रति आपत्तिजनक टिप्पणी की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने इसे अवमानना माना, परंतु बाल ठाकरे के खेद प्रकट करने पर मामला बंद कर दिया गया।

‘अरविंद केजरीवाल बनाम अरुण जेटली’ मानहानि केस में कोर्ट ने केजरीवाल के वकील की टिप्पणियों को अनुचित बताया और स्पष्ट किया कि अदालती कार्यवाही की मर्यादा बनी रहनी चाहिए। बिनायक सेन प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ सरकार के तर्कों पर सवाल उठाए और स्पष्ट किया कि राजनीतिक विरोध की आड़ में न्यायिक प्रक्रिया को बाधित नहीं किया जा सकता।
क्या है अवमानना और संविधान में इसकी क्या व्यवस्था है?
भारत के संविधान के अनुच्छेद 129 और 215 के अनुसार, उच्चतम और उच्च न्यायालयों को यह विशेषाधिकार प्राप्त है कि वे अपनी गरिमा की रक्षा हेतु अवमानना के मामलों में दंड दे सकते हैं। साथ ही, अवमानना अधिनियम, 1971 में न्यायालय की अवमानना को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है:
न्यायिक अवमानना (सिविल काॅन्टेम्प्ट) : जब कोई व्यक्ति किसी न्यायालय के आदेश, निर्णय या निर्देश का उल्लंघन करता है।
आपराधिक अवमानना (क्रिमिनट काॅन्टेम्प्ट) : जब कोई व्यक्ति न्यायपालिका या न्यायालय की प्रक्रिया को जान- बूझकर बदनाम करने, बाधित करने या उनकी गरिमा को क्षति पहुंचाने वाला कार्य करता है। इसमें दोषी पाए जाने पर 6 माह की सजा या 2000 रुपए तक जुर्माना या दोनों का प्रावधान है। हालांकि यदि व्यक्ति माफी मांगता है और खेद व्यक्त करता है तो उसे रियायत मिल सकती है।
लोकतंत्र में आलोचना और असहमति के लिए भरपूर स्थान है, किंतु यह स्वतंत्रता संस्थाओं की गरिमा को ठेस पहुंचाने का अधिकार नहीं देती। राजनीतिक नेताओं की ओर से न्यायपालिका के प्रति सम्मान और संयम अपेक्षित है, विशेषकर तब जब न्यायालय सरकारों के कानूनों की संवैधानिक समीक्षा कर रहे हों। बयानबाजी की राजनीति में न्यायपालिका पर प्रहार न केवल संस्थाओं को कमजोर करता है, बल्कि अंततः
लोकतंत्र की आत्मा को भी आहत करता है।

