लोहिया का प्रयोग असफल रहा लेकिन कांशीराम ने लोहिया के प्रयोग में सुधार करते हुए केवल दलित जातियों को एकजुट करने और उनमें राजनीतिक चेतना उभारने का काम सफलतापूर्वक कर दिखाया। 1984 में जब कांशीराम ने अपने राजनीतिक प्रयोग की नींव बहुजन समाज पार्टी का गठन कर रखी तब तक उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुख्य रूप से तीन राजनीतिक धाराएं सक्रिय थीं। कांग्रेस आजादी के आंदोलन की अपनी बिखरती विरासत को सहेजने का काम कर रही थी तो भाजपा हिंदुत्व के सहारे स्वर्ण जातियों को लामबंद कर रही थी।
समाजवादी विचारधारा की बात करने वाले और लोहिया को आदर्श मानने वाले मुलायम सिंह यादव तीसरी धारा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। उनका प्रयास अगड़ी जातियों के खिलाफ पिछड़ी जातियों को लामबंद कर राजनीतिक ताकत बन उभरना था। लोहिया ने ‘पिछड़े पाएं सौ में साठ’ का नारा देकर जिस राजनीतिक प्रयोग को शुरू किया था, कांशीराम उसी तर्ज पर ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ की बात उठा उत्तर प्रदेश में दलितों को एकजुट करने में सफल रहे। 1984 के आम चुनाव में बसपा ने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और पंजाब समेत कई राज्यों में अपने प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे थे। खुद कांशीराम और उनकी करीबी शिष्या मायावती भी चुनाव लड़ी। हालांकि बसपा का कोई भी उम्मीदवार जीता नहीं, देशभर में उसे 10.5 लाख अवश्य मत प्राप्त हुए। एक नवगठित, गैर मान्यता प्राप्त दल के लिए यह प्रदर्शन उत्साहजनक था।
आतंकवाद ग्रसित पंजाब में 1985 के विधानसभा चुनावों में बसपा को पहली बार जीत मिली। उसके द्वारा तीस स्थानों पर प्रत्याशी उतारे गए जिसमें से नौ विजयी रहे। कांशीराम का इस जीत ने उत्साह बढ़ाने का काम किया। उन्होंने उत्तर प्रदेश की बिजनौर लोकसभा में तत्कालीन सांसद के निधन बाद खाली हुई सीट पर हुए उपचुनाव में मायावती को मैदान में उतारा। मायावती इस बार भी चुनाव जीतने में सफल नहीं हुईं। कांग्रेस ने इस उपचुनाव में दलित नेता जगजीवन राम की पुत्री मीरा कुमार को प्रत्याशी बनाया था। लोकदल नेता रामविलास पासवान भी मैदान में थे। मीरा कुमार के पक्ष में जनादेश आया, पासवान दूसरे तो मायावती तीसरे स्थान पर रहीं। इस दौर में रामविलास पासवान भी खुद को राष्ट्रीय स्तर का दलित नेता बनाने की जद्दोजहद कर रहे थे और उनकी राह में कांशीराम लगातार रोड़ा अटकाने में जुटे थे। 1987 में एक बार फिर पासवान और मायावती एक अन्य उपचुनाव में आमने-सामने आ खड़े हुए। उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखण्ड) की हरिद्वार लोकसभा सीट के लिए हुए इस उपचुनाव में जीत तो कांग्रेस की हुई लेकिन पासवान को कहीं पीछे पछाड़ मायावती दूसरे नम्बर पर आ गईं।
पासवान को मात्र 35 हजार मत इस चुनाव में मिले थे और वे मायावती से पूरे एक लाख मतों से पीछे रहे थे। दलित नेता राजनारायण और सर्वोदयी जयप्रकाश नारायण के अनुयायी रहे पासवान 1977 में बिहार की
हाजीपुर लोकसभा सीट से निर्वाचित हो संसद पहुंचे थे। उन्हें इस चुनाव में 89.3 प्रतिशत वोट मिले थे जो तब तक का सवार्धिक वोट पाने का रिकॉर्ड था। शत-प्रतिशत से मात्र 10 प्रतिशत कम वोट पा पासवान राष्ट्रीय परिदृश्य पर हीरो बतौर उभरे थे। हरिद्वार में मिली करारी शिकस्त बाद पासवान ने फिर कभी उत्तर प्रदेश से चुनाव न लड़ने का फैसला ले लिया था। इसके ठीक विपरीत कांशीराम और मायावती का हौसला कमतर नहीं हुआ। 1989 के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर मायावती बिजनौर सीट से मैदान में उतरीं और चुनाव जीत लोकसभा जा पहुंची थीं। कांशीराम इस चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के खिलाफ अमेठी लोकसभा से चुनाव लड़े थे। हालांकि उन्हें एक बार फिर से हार का सामना करना पड़ा लेकिन इस चुनाव ने बसपा को दलितों की पार्टी के रूप में स्थापित करने का काम कर दिखाया। बिजनौर के साथ-साथ उत्तर प्रदेश की आजमगढ़ और पंजाब की फिल्लौर लोकसभा सीट के साथ-साथ उत्तर प्रदेश विधानसभा की 13 सीटों पर भी विजय हासिल हुई थी। भारतीय राजनीति में दलित एवं पिछड़ी जातियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं अब जोर पकडऩे लगी थी। 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने यकायक ही पिछड़ों को आरक्षण दिए जाने से सम्बंधित मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का निर्णय ले भारतीय समाज, विशेषकर उत्तर भारत में जातीय हिंसा को तेज कर डाला था। यह वही दौर था जब भाजपा अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को मुद्दा बना हिंदुत्व के सहारे निचली जातियों को भी साधने में जुट गई थी। मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू किए जाने का भारी विरोध सवर्ण कहलाई जाने वाली जातियों ने शुरू करा था जिसके चलते पिछड़ी जातियों का सवर्ण जातियों संग टकराव बढ़ा और इन जातियों का एक बड़ा वर्ग भाजपा की तरफ आकर्षित होने लगा। भाजपा की राजनीति को कारगर होता देख मुलायम सिंह और कांशीराम ने वक्ती तौर पर एक-दूसरे का साथ देने और मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला तब लिया था। 1991 में चंद्रशेखर सरकार के पतन बाद हुए लोकसभा चुनाव मुलायम और कांशीराम एक जुट हो लड़े। कांशीराम को इस गठजोड़ का बड़ा लाभ मिला और वह पहली बार लोकसभा चुनाव जीत पाने में सफल रहे थे। उन्होंने मुलायम सिंह का गढ़ कहलाए जाने वाली इटावा लोकसभा सीट से यह जीत हासिल की थी। मायावती लेकिन 1991 में एक बार फिर परास्त हो गईं और भाजपा की आंधी में बसपा का मत प्रतिशत भी 10 से घटकर 8.4 कर दिया था। स्पष्ट था कि दलितों के एक बड़े हिस्से को भाजपा अपनी तरफ आकर्षित कर पाने में सफल रही थी। कांशीराम और मुलायम सिंह ने समय रहते इस खतरे को भांप 1993 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के मध्यावधि चुनाव (6 दिसम्बर 1992 को बाबरी विध्वंस के बाद कल्याण सिंह सरकार बर्खास्त कर दी गई थी और विधानसभा को भंग कर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था।) मिलकर लड़े। मुलायम सिंह इस बीच जनता दल से अलग हो अक्टूबर 1992 में समाजवादी पार्टी की स्थापना कर चुके थे। इस चुनाव में एक नारा जमकर उत्तर प्रदेश में गूंजा और सफल रहा था- ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’। बहुजन समाज पार्टी इस तरह से समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर उत्तर प्रदेश की सत्ता में काबिज हो पाने में सफल रही। यह एक ऐसा बेमेल गठबंधन था जो हर कीमत पर सत्ता पाने की चाह लिए जन्मा और कुछ ही समय बाद आंतरिक कलह का शिकार हो समाप्त भी हो गया था। इस पर चर्चा लेकिन बाद में। अभी वापस लौटते हैं नरसिम्हा राव सरकार की तरफ जिसके आर्थिक सुधार कार्यक्रम 1995 में शिथिल होने लगे थे। राव सरकार आर्थिक सुधारों का सुखद परिणाम 1994 में अपने पूरे शबाब पर आ पहुंचा था। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार भारतीय मुद्रा में 51 हजार करोड़ जा पहुंचा था जो राव के 1991 में सत्ता सम्भालने के समय मात्र 3 हजार करोड़ रुपया था। सकल घरेलू उत्पाद 1.01 प्रतिशत से बढ़कर 6.7 प्रतिशत का अंक छू रहा था। पूंजी निवेशकों के लिए भारत एक आकर्षण बन उभर चुका था। 12000 भारतीय निजी क्षेत्र की कम्पनियों के मुनाफे में भी 84 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी इस वर्ष देखने को मिली थी। बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज हषज़्द मेहता कांड को पीछे छोड़ वापस पटरी पर लौटने लगा था।’
हाजीपुर लोकसभा सीट से निर्वाचित हो संसद पहुंचे थे। उन्हें इस चुनाव में 89.3 प्रतिशत वोट मिले थे जो तब तक का सवार्धिक वोट पाने का रिकॉर्ड था। शत-प्रतिशत से मात्र 10 प्रतिशत कम वोट पा पासवान राष्ट्रीय परिदृश्य पर हीरो बतौर उभरे थे। हरिद्वार में मिली करारी शिकस्त बाद पासवान ने फिर कभी उत्तर प्रदेश से चुनाव न लड़ने का फैसला ले लिया था। इसके ठीक विपरीत कांशीराम और मायावती का हौसला कमतर नहीं हुआ। 1989 के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर मायावती बिजनौर सीट से मैदान में उतरीं और चुनाव जीत लोकसभा जा पहुंची थीं। कांशीराम इस चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के खिलाफ अमेठी लोकसभा से चुनाव लड़े थे। हालांकि उन्हें एक बार फिर से हार का सामना करना पड़ा लेकिन इस चुनाव ने बसपा को दलितों की पार्टी के रूप में स्थापित करने का काम कर दिखाया। बिजनौर के साथ-साथ उत्तर प्रदेश की आजमगढ़ और पंजाब की फिल्लौर लोकसभा सीट के साथ-साथ उत्तर प्रदेश विधानसभा की 13 सीटों पर भी विजय हासिल हुई थी। भारतीय राजनीति में दलित एवं पिछड़ी जातियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं अब जोर पकडऩे लगी थी। 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने यकायक ही पिछड़ों को आरक्षण दिए जाने से सम्बंधित मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का निर्णय ले भारतीय समाज, विशेषकर उत्तर भारत में जातीय हिंसा को तेज कर डाला था। यह वही दौर था जब भाजपा अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को मुद्दा बना हिंदुत्व के सहारे निचली जातियों को भी साधने में जुट गई थी। मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू किए जाने का भारी विरोध सवर्ण कहलाई जाने वाली जातियों ने शुरू करा था जिसके चलते पिछड़ी जातियों का सवर्ण जातियों संग टकराव बढ़ा और इन जातियों का एक बड़ा वर्ग भाजपा की तरफ आकर्षित होने लगा। भाजपा की राजनीति को कारगर होता देख मुलायम सिंह और कांशीराम ने वक्ती तौर पर एक-दूसरे का साथ देने और मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला तब लिया था। 1991 में चंद्रशेखर सरकार के पतन बाद हुए लोकसभा चुनाव मुलायम और कांशीराम एक जुट हो लड़े। कांशीराम को इस गठजोड़ का बड़ा लाभ मिला और वह पहली बार लोकसभा चुनाव जीत पाने में सफल रहे थे। उन्होंने मुलायम सिंह का गढ़ कहलाए जाने वाली इटावा लोकसभा सीट से यह जीत हासिल की थी। मायावती लेकिन 1991 में एक बार फिर परास्त हो गईं और भाजपा की आंधी में बसपा का मत प्रतिशत भी 10 से घटकर 8.4 कर दिया था। स्पष्ट था कि दलितों के एक बड़े हिस्से को भाजपा अपनी तरफ आकर्षित कर पाने में सफल रही थी। कांशीराम और मुलायम सिंह ने समय रहते इस खतरे को भांप 1993 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के मध्यावधि चुनाव (6 दिसम्बर 1992 को बाबरी विध्वंस के बाद कल्याण सिंह सरकार बर्खास्त कर दी गई थी और विधानसभा को भंग कर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था।) मिलकर लड़े। मुलायम सिंह इस बीच जनता दल से अलग हो अक्टूबर 1992 में समाजवादी पार्टी की स्थापना कर चुके थे। इस चुनाव में एक नारा जमकर उत्तर प्रदेश में गूंजा और सफल रहा था- ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’। बहुजन समाज पार्टी इस तरह से समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर उत्तर प्रदेश की सत्ता में काबिज हो पाने में सफल रही। यह एक ऐसा बेमेल गठबंधन था जो हर कीमत पर सत्ता पाने की चाह लिए जन्मा और कुछ ही समय बाद आंतरिक कलह का शिकार हो समाप्त भी हो गया था। इस पर चर्चा लेकिन बाद में। अभी वापस लौटते हैं नरसिम्हा राव सरकार की तरफ जिसके आर्थिक सुधार कार्यक्रम 1995 में शिथिल होने लगे थे। राव सरकार आर्थिक सुधारों का सुखद परिणाम 1994 में अपने पूरे शबाब पर आ पहुंचा था। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार भारतीय मुद्रा में 51 हजार करोड़ जा पहुंचा था जो राव के 1991 में सत्ता सम्भालने के समय मात्र 3 हजार करोड़ रुपया था। सकल घरेलू उत्पाद 1.01 प्रतिशत से बढ़कर 6.7 प्रतिशत का अंक छू रहा था। पूंजी निवेशकों के लिए भारत एक आकर्षण बन उभर चुका था। 12000 भारतीय निजी क्षेत्र की कम्पनियों के मुनाफे में भी 84 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी इस वर्ष देखने को मिली थी। बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज हषज़्द मेहता कांड को पीछे छोड़ वापस पटरी पर लौटने लगा था।’
सचिन तेंदुलकर भारतीय क्रिकेट का सितारा बन अवतरित हो चले थे और सुष्मिता सेन ‘मिस यूनिवर्स’ और ऐश्वर्या राय ‘मिस वर्ल्ड’ का खिताब जीत अंतरराष्ट्रीय हस्ती बन भारत का गौरव बढ़ाने में कामयाब रही थीं। सत्रह बरस पहले भारत को अलविदा कह चुका अंतरराष्ट्रीय ब्रांड कोका कोला एक बार फिर से भारत की बाजार में उतर चुका था। विश्व का सबसे ताकतवर देश अमेरिका नरसिम्हा राव सरकार के आर्थिक सुधारों और उसकी विदेश नीति का किस कदर कायल हो चला था, इसे ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ में प्रकाशित एक समाचार से समझा जा सकता है। मई 1994 में बतौर प्रधानमंत्री राव की पहली अमेरिकी यात्रा से ठीक पहले प्रकाशित इस समाचार में राव को भारत का ‘देंग शियाओ पिंग’ बताते हुए कहा गया था- ‘नेहरू की पुत्री इंदिरा गांधी और नाती राजीव गांधी के नेतृत्व में काम कर चुके राव एक ऐसे अनुभवी नेता हैं जो बहत्तर वर्ष की आयु में भारत के देंग शियाओ पिंग बन चुके हैं- एक उम्रदराज नेता जो अपने जीवन के संध्याकाल में पिछली सरकारों की आर्थिक नीतियों को बहुत हद तक त्याग चुका है। ऐसा करके उन्होंने न केवल रूढ़िवादिता को चुनौती दे डाली है, बल्कि निहित स्वार्थों के गठजोड़ को भी चुनौती देने का काम कर दिखाया है…इसके नतीजे उत्साहवर्धक रहे हैं। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार जो राव के सत्ता सम्भालने वक्त मात्र एक बिलियन अमेरिकी डॉलर था, बढ़कर 13 बिलियन डॉलर तक जा पहुंचा है। भारतीय कम्पनियों में विदेशी अप्रत्यक्ष पूंजी निवेश बीते एक वर्ष में तीन बिलियन अमेरिकी डॉलर जा पहुंचा जो 1947 से अब तक हुए कुल विदेशी पूंजी निवेश से कहीं अधिक है। निर्यात में भी भारी वृद्धि हुई है और वह गत् वर्ष 20 प्रतिशत की दर से बढ़ा है। मुद्रास्फीति जो 1991 में 17 प्रतिशत थी, घटकर 8.5 प्रतिशत रह गई है।Ó अमेरिका की नजर में नरसिम्हा राव की छवि एक प्रगतिशील और सुधारवादी नेता की 1991 में उनके प्रधानमंत्री बनने बाद भारतीय विदेश नीति में किए गए एक बड़े परिवर्तन चलते पहले से ही स्थापित हो चुकी थी जिसे मजबूत करने का काम उनके द्वारा वृहद स्तर पर लागू किए गए आर्थिक सुधारों ने कर दिया था। दिसम्बर 1991 में अमेरिका द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा द्वारा यहूदियों की बाबत पूर्व में पारित एक प्रस्ताव को रद्द करने के लिए नया प्रस्ताव महासभा में रखा गया था। भारत ने इस प्रस्ताव को अपना समर्थन दे अमेरिका के साथ सम्बंधों को प्रगाढ़ बनाने की तरफ एक बड़ा कदम उठाया जिसे अमेरिका ने खासा सराहा था। यह प्रस्ताव इजराइल के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बंध स्थापित करने में भी मील का पत्थर साबित हुआ।
1975 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने यहूदीवाद को एक प्रकार का जातिवाद बताते हुए उसे नस्लीय भेदभाव करार दिया था। 1991 में अमेरिका ने इस प्रस्ताव को रद्द करने सम्बंधी प्रस्ताव महासभा में रखा जिसका समर्थन कर राव सरकार ने अमेरिका और इजराइल संग भारत के रिश्तों को नई दिशा देने का काम किया था। 29 जनवरी, 1992 को एक और बड़ा फैसला लेते हुए भारत ने इजराइल संग राजनायिक सम्बंध स्थापित करने की घोषणा की थी। यह नेहरूकाल से चली आ रही विदेश नीति को दरकिनार कर उठाया गया कदम था। इजराइल-फिलिस्तीन मसले में भारत हमेशा से ही फिलिस्तीन का समर्थक रहते आया था। राव सरकार के इस फैसले ने विपक्षी दलों के साथ-साथ कांग्रेस भीतर भी भारी बैचेनी पैदा करी थी जिसे राव अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ के सहारे शांत करने में सफल रहे थे। राव ने चीन के साथ भी सम्बंध सुधारने की दिशा में महत्वपूर्ण पहल करते हुए 1993 में ‘सीमा शांति और अमन समझौते’ (Agreement on the Maintenance of Peace and Tranquility) पर हस्ताक्षर किए थे। यह समझौता राव की बतौर प्रधानमंत्री चीन की पहली यात्रा के दौरान 7 सितम्बर 1993 को अस्तित्व में आया जिसका बड़ा असर दोनों देशों के मध्य द्विपक्षीय व्यापार की बढ़ोतरी में देखने को मिलता है। यह वह समय था जब आर्थिक सुधारों की सफलता चलते राव का हौसला बुलंदी पर जा पहुंचा था और वह विदेशी पूंजी निवेश को आकर्षित करने के लिए भारत के ब्रांड एम्बेस्डर बन पश्चिमी देशों के साथ-साथ पूर्वी देशों संग सम्बंध प्रगाढ़ करने में जुट गए थे। वह पहले भारतीय प्रधानमंत्री थे जिन्होंने पूर्वी देशों की आर्थिकी को समझने का सफल प्रयास किया। भारतीय बाजार में उनके इस प्रयास का नतीजा इन देशों द्वारा किए गए बड़े पूंजी निवेश के रूप में हमारे सामने है। राव सितम्बर 1993 में चीन की यात्रा के तुरंत बाद कोरिया गए थे। किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री की यह पहली कोरिया यात्रा थी। 10 सितंबर, 1993 को कोरिया के राष्ट्रपति द्वारा राव के सम्मान में दिए गए भोज के दौरान नरसिम्हा राव ने कोरियाई निवेशकों को भारतीय बाजार में पूंजी निवेश करने का आह्वान करते हुए कहा-‘भारतीय अर्थव्यवस्था विकासशील देशों की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। इसका 25 करोड़ आबादी वाला मध्यम वर्ग विनिर्मित वस्तुओं के लिए एक विशाल बाजार है जो सम्भवत: विश्व का सबसे बड़ा बाजार है…हम कोरियाई व्यवसायियों का भारत में स्वागत करने के लिए तैयार हैं।’ राव की इस यात्रा के बाद ही कोरिया की कार निर्माता कम्पनी ‘देवू मोटर्स’ ने भारत में बड़ा पूंजी निवेश किया था और भारतीय कार बाजार का स्वरूप ही बदल डाला था। राव की ‘लुक ईस्ट’ नीति का ही परिणाम है कि आज सिंगापुर, मलेशिया और कोरिया समेत कई पूर्वी देशों का भारत में बड़ा पूंजी निवेश सम्भव हो पाया है।

