सबीर भाटिया आधुनिक सूचना क्रांति के उन अग्रदूतों में से हैं जिनके नाम ने इंटरनेट की दुनिया में एक नई आजादी का एहसास कराया था। 1996 में ‘हाॅटमेल’ के जरिए सूचना क्रांति के इस जनक ने हाल ही में सोशल मीडिया प्लेटफाॅर्म ‘एक्स’ पर भारत के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक हालात को समझने के लिए एक दिलचस्प प्रयोग किया। 30 अक्टूबर से 5 नवम्बर 2025 तक उन्होंने 14 सवाल पूछे। इन सवालों के जवाब देे जनता ने भारत के मनोविज्ञान की एक दिलचस्प तस्वीर सामने रखी है। कभी अंध समर्थन और भावनात्मक राजनीति से संचालित दिखती जनता अब प्रश्न पूछ रही है फैसलों की नीयत तौल रही है और विकास की चमक के पीछे की हकीकत देखने लगी है। गौरव और उम्मीद के साथ अब सजगता और जवाबदेही का आग्रह भी बढ़ रहा है। संकेत साफ हैं, देश का मूड बदल रहा है और लोकतांत्रिक चेतना नई आकृति ले रही है
सबीर भाटिया आधुनिक सूचना क्रांति के उन अग्रदूतों में से हैं जिनके नाम ने इंटरनेट की दुनिया में एक नई आजादी का एहसास कराया। 1968 में चंडीगढ़ में जन्मे भाटिया एक साधारण भारतीय परिवार से आए जहां अनुशासन और शिक्षा जीवन की मूल धुरी थी। पिता भारतीय सेना में अधिकारी रहे और मां बैंकिंग क्षेत्र से जुड़ी थीं। इस पारिवारिक पृष्ठभूमि ने उनमें अनुशासन, मेहनत और दूरदर्शिता के गुण बचपन से ही रोप दिए। दो वर्षों तक बीआईटीएस पिलानी में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने अमेरिका का रास्ता चुना। वहां उन्होंने पहले कैलटेक और फिर स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की उच्च डिग्री हासिल की। स्टैनफोर्ड की नवाचार और स्टार्टअप संस्कृति ने उनके भीतर उद्यमिता का ऐसा बीज डाला जिसकी सुगंध आज भी टेक्नोलाॅजी जगत महसूस करता है। 1996 में, अमेरिकी स्वतंत्रता दिवस के दिन, भाटिया ने अपने साथी जैक स्मिथ के साथ मिलकर ‘हाॅटमेल’ की शुरुआत की थी। यह केवल एक तकनीकी उत्पाद नहीं था बल्कि डिजिटल स्वतंत्रता का प्रतीक था। पहली बार दुनिया के आम उपयोगकर्ता को इंटरनेट के माध्यम से कहीं से भी ई-मेल एक्सेस करने की सुविधा मिली। ‘हाॅटमेल’ ने संचार को भौगोलिक सीमाओं और सिस्टम की कैद से मुक्त कर दिया। इस क्रांतिकारी विचार ने कुछ ही वर्षों में हाॅटमेल’ को दुनियाभर में लोकप्रिय बना दिया और माइक्रोसाॅफ्ट ने इसे खरीदकर इंटरनेट के इतिहास में एक बड़ा अधिग्रहण दर्ज किया। सबीर भाटिया अचानक से तकनीकी जगत के सबसे चर्चित नामों में शामिल हो गए। मगर उनकी यात्रा यहीं नहीं रूकी। उन्होंने बाद में कई तकनीकी और सामाजिक परियोजनाओं में निवेश करते हुए नवाचार और सामाजिक-डिजिटल परिवर्तन को आगे बढ़ाने की कोशिश की थी। साथ ही भारत के भविष्य पर वे लगातार विचार प्रस्तुत करते रहे। इन्हीं चिंताओं और विचारों के विस्तार के रूप में उन्होंने हाल ही में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘एक्स’ पर भारत के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक हालात को समझने के लिए एक दिलचस्प प्रयोग किया। 30 अक्टूबर से 5 नवम्बर 2025 तक उन्होंने 14 सवाल पूछे। इस सर्वेक्षण में लगभग सात हजार से अधिक लोगों ने हिस्सा लिया। यह न कोई प्रायोजित सर्वेक्षण था, न किसी राजनीतिक मकसद वाला। यह एक खुला, स्वतःस्फूर्त और सार्वजनिक प्रतिक्रिया एकत्रित कर देश का मिजाज समझने का प्रयास था। इसमें वोट देने वाले वे लोग थे जो इंटरनेट पर सक्रिय हैं, चर्चा में भाग लेते हैं और देश-समाज की दिशा को लेकर संवेदनशील हैं। इसलिए इसे ‘सोशल पल्स’ या जन-धड़कन को समझने का प्रयास कहना गलत नहीं होगा।
इन प्रतिक्रियाओं ने भारत के मनोविज्ञान की एक दिलचस्प तस्वीर सामने रखी है। सबसे बड़ा सवाल था लोग वर्तमान सरकार को कैसे देखते हैं? इसका उत्तर बहुसंख्यक ने ‘तानाशाही प्रवृत्ति’ के रूप में दिया। यह प्रतिक्रिया बताती है कि सरकार की शक्तियों का केंद्रीकरण और असहमति के प्रति झुकाव कम होने की धारणा जनता में गहरी हो चुकी है। कई लोगों ने यह भी माना कि सरकार फैसले जनता के लिए नहीं, बल्कि राजनीतिक लाभ-हानि को देखते हुए लेती है। यह लोकतांत्रिक निर्णय-प्रक्रिया पर सवाल उठाता है और बताता है कि नागरिक केवल योजनाओं और घोषणाओं से नहीं, बल्कि उनके पीछे की नीयत को भी देखते और परखते हैं। जब आर्थिक हालात का सवाल उठाया गया तब भी आम राय निराशाजनक रही। पिछले पांच वर्षों में आर्थिक स्थिति खराब होने का अनुभव लोगों ने बड़े पैमाने पर साझा किया। भले ही सरकार आंकी में तेज वृद्धि, विदेशी निवेश और रिकाॅर्ड जीडीपी की बात करती रही हो, लेकिन जनता के वास्तविक जीवन में उसका असर नहीं दिखा। बहुतों का कहना था कि रोजगार के अवसर कम हुए हैं, महंगाई बढ़ी है और मध्यम वर्ग पर आर्थिक बोझ और अधिक बढ़ गया है। यह प्रतिक्रिया भारत के विकास माॅडल के उस अंतर को उजागर करती है जहां ऊपर-ऊपर चमकदार ग्राफ दिखते हैं लेकिन जमीनी स्तर पर उतनी ही गहरी असमानता और आर्थिक तनाव महसूस होता है।
भ्रष्टाचार, जो भारत की राजनीतिक चर्चा का हमेशा केंद्र रहा है, उसे भी जनता ने सबसे बड़ी आर्थिक चुनौती बताया। इसका मतलब यह है कि चाहे सरकारें बदली हों, घोषणाएं बदली हों और शपथें ली गई हों लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ वास्तविक और निर्णायक परिवर्तन का ईमानदार प्रयास किसी ने भी नहीं किया। जनता को लगता है कि ईमानदार शासन का सपना अधूरा है और ईमानदार नेतृत्व की आज भी सबसे बड़ी जरूरत है। संदेश साफ है कि भारत का नागरिक अब केवल नारे नहीं चाहता उसे वास्तविक नैतिक नेतृत्व चाहिए। जनता ने स्पष्ट कहा कि लोकतंत्र कमजोर हो रहा है और धार्मिक समानता भी खतरे में महसूस होती है। यह सामूहिक असुरक्षा बताती है कि सामाजिक और संवैधानिक मर्यादाएं दबाव में हैं।
भाटिया के सर्वेक्षण में शिक्षा और इन्वोवेंशंस पर भी जनता ने राय दी है। लोग महसूस करते हैं कि भारत में आलोचनात्मक सोच और नवाचार को बढ़ावा देने वाली शिक्षा व्यवस्था कमजोर है। लोगों ने बताया कि सरकार ने स्कूलों में नवाचार बढ़ाने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए और न्यायपालिका तथा शिक्षा दोनों को तत्काल सुधार की आवश्यकता है। शिक्षा भविष्य का निर्माण करती है और न्यायपालिका नागरिकों की सुरक्षा का सबसे बड़ा स्तम्भ है। इन दोनों पर असंतोष यह बताता है कि भविष्य के निर्माण की बुनियाद ढीली पड़ रही है। इन्फ्रास्ट्रक्चर और पर्यावरण नीति पर भी लोगों की राय कड़ी रही। जनता ने माना कि सार्वजनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर में संतोषजनक सुधार नहीं हुआ है और जलवायु परिवर्तन को गम्भीरता से नहीं लिया जा रहा। जब पूछा गया कि क्या भारत 2047 तक विकसित देश बनने की राह पर है तो अधिकांश ने ‘नहीं’ कहा। इससे यह साफ हो जाता है कि लम्बी अवधि के विकास की कथाएं राजनीति में भले आकर्षक लगती हों लेकिन जनता उनके धरातल को भी परखती है। अंतिम प्रश्न भारत को बेहतर भविष्य के लिए सबसे ज्यादा क्या चाहिए के उत्तर में जनता ने ‘ईमानदार नेतृत्व’ को चुना। यह संदेश केवल वर्तमान व्यवस्था का मूल्यांकन नहीं है, बल्कि भविष्य के लिए दिशा-निर्देश है। नागरिक अब भावनाओं से नहीं, विवेक से निर्णय लेना चाहते हैं। वे राष्ट्रभक्ति और लोकतांत्रिक मूल्य दोनों को साथ लेकर चलना चाहते हैं और उम्मीद करते हैं कि नेतृत्व पारदर्शी, जवाबदेह और नैतिक होगा।
इस सर्वेक्षण को केवल सोशल मीडिया प्रश्न-उत्तर समझकर टाला नहीं जा सकता। यह उन संकेतों को उजागर करता है कि भारत में नागरिक-चेतना का स्वरूप बदल रहा है। आज का युवा या मध्यम वर्ग केवल विकास के चमकदार पोस्टर नहीं चाहता, वह जवाबदेही, अवसर, समानता और स्वतंत्रता चाहता है। वह राष्ट्रवादी है, लेकिन आंखें मूंदकर समर्थन नहीं करता। वह प्रश्न करता है, विश्लेषण करता है और आकांक्षाओं को तर्क के साथ जोड़ता है। यह बदलाव भारत की लोकतांत्रिक आत्मा के लिए सकारात्मक संकेत है कि जनता अब विकसित हो रही है, परिपक्व हो रही है और सत्ता को स्वाभाविक नहीं, बल्कि उत्तरदायी मानती है। एक और आयाम इस बात से जुड़ा है कि वैश्विक लोकतंत्र आकलन की प्रतिष्ठित रिपोर्टें हाल के वर्षों में भारत को लोकतांत्रिक संस्थाओं के क्षरण की श्रेणी में रख रही हैं। उन्हें अक्सर राजनीतिक नजरिए से खारिज कर दिया जाता है, परन्तु जब उसी भाव को जनता खुद व्यक्त करने लगे तो यह चेतावनी अधिक गम्भीर हो जाती है। इसी तरह, कई आर्थिक अध्ययन बताते हैं कि भारत में सबसे सम्पन्न वर्ग और गरीब तथा मध्यम वर्ग के बीच खाई और चैड़ी हुई है। नौकरी के अवसर और वेतन वृद्धि का अनुभव अधिकतर लोगों को नहीं मिला। इन सब पृष्ठभूमियों में भाटिया का यह सोशल सर्वेक्षण उस विचारधारा का हिस्सा बनता है जहां जनता भविष्य की ओर देखते हुए केवल वादों पर नहीं परिणामों और नीयत पर विश्वास चाहती है।
स्पष्ट है कि देश का मिजाज बदल रहा है। भावनात्मक राजनीतिक उभार के बाद अब ठोस प्रश्नों का दौर है कि लोकतंत्र कितना सुरक्षित है? रोजगार और अवसर कहां हैं? न्याय कितनी आसानी से मिलता है? शिक्षा और नवाचार कैसे विकसित हो रहे हैं? नेतृत्व का चरित्र कितना ईमानदार है? भारत का नागरिक अपने राष्ट्र से अत्यधिक प्रेम करता है लेकिन अब वह उस प्रेम को आत्मसम्मान और अधिकारों के साथ जोड़ रहा है। यही लोकतंत्र की असली धड़कन है, न अंध समर्थन, न अंध विरोध, बल्कि सजग नागरिकता की आवाज। सबीर भाटिया का यह सर्वेक्षण हमें याद दिलाता है कि तकनीक केवल सुविधा नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक चर्चा का माध्यम भी बन सकती है और जनता की जुबान पर आज जो सवाल हैं, वे केवल शिकायत नहीं, बेहतर भविष्य की मांग हैं। अब इस आवाज को सुनने और समझने की जिम्मेदारी उन पर है जिनके पास सत्ता है, नीति है और दिशा तय करने का अधिकार है। समय का संदेश साफ है कि भारत के नागरिक उम्मीद भी रखते हैं और जवाब मांगने का हक भी समझते हैं। यही देश को वास्तव में बदलने वाली शक्ति है। जो इसे समझेगा, वही भविष्य में जनता के दिल में जगह पाएगा। जो इसे अनदेखा करेगा उसे इतिहास कठोरता से याद करेगा।

