जालौन की आमना की दर्दनाक घटना ने यह बेनकाब कर दिया है कि मुस्लिम समाज में दहेज, जो शरीयत के अनुसार हराम और कुरान शरीफ में निषिद्ध है, आज भी सामाजिक परम्परा के नाम पर प्रचलित है। यह केवल एक सामाजिक बुराई नहीं, बल्कि धार्मिक आदेशों की अवहेलना, महिलाओं के अधिकारों का हनन और हिंसा का वैधानिक रूप बन गया है
पति आरिफ संग आमना
उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के टीलक नगर इलाके से जून 2025 के तीसरे सप्ताह में एक भयावह वीडियो सामने आया। इसमें एक युवती को चार मंजिला इमारत की छत से नीचे गिरते हुए देखा गया। यह वीडियो सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हुआ। बाद में सामने आया कि यह महिला आमना (35 वर्ष) थी, जिसे उसके पति आरिफ और ससुराल वालों ने 10 लाख रुपए दहेज की मांग पूरी न होने पर पहले बेरहमी से पीटा, फिर छत से फेंक दिया। जिसमेें उसे गम्भीर चोटें आई हैं। यह केवल एक हत्या करने की कोशिश ही नहीं, बल्कि उस पाखंड पूर्ण सामाजिक व्यवस्था की परतें खोलता है जिसमें धार्मिक निषेध के बावजूद दहेज अब भी फल-फूल रहा है। यह कोई पहली घटना नहीं है। हर साल हजारों मुस्लिम महिलाएं, जो इस्लाम में अपने अधिकारों को लेकर आश्वस्त रहती हैं, दहेज के नाम पर या तो मार दी जाती हैं, या आत्महत्या के लिए मजबूर की जाती हैं। उनका दर्द सिर्फ अदालतों या पुलिस थानों में दर्ज होता है, समाज की सामूहिक चेतना में नहीं।
दहेज पीडि़ता आमना की अस्पताल में जिंदगी और मौत से जंग
एक और गम्भीर समस्या यह है कि ऐसे मामलों में अक्सर समझौता करा दिया जाता है। ‘बेटी की शादी टूट जाएगी’, ‘लोग क्या कहेंगे’, ‘अब बच्चे भी हैं’ – ये जुमले उन औरतों को फिर से उसी घर में भेजने के बहाने बन जाते हैं जहां से वे जिंदा निकलना नहीं चाहतीं। ये समझौते कई बार जानलेवा साबित होते हैं। आमना की कहानी भी इसी चुप्पी और समझौते का शिकार रही हो सकती है।
इस्लामी शिक्षाएं और सामाजिक व्यवहार
इस्लाम दहेज को प्रोत्साहित नहीं करता, बल्कि इसे ‘हराम’ कहता है।
सूरह निसा (4:4) के अनुसार ”और महिलाओं को उनकी मेहर स्वेच्छा से दो।” सूरह निसा (4:24) कहती है ”विवाह के समय दूल्हा अपनी पत्नी को जो मेहर देता है, वह उसका अधिकार है, उसे कभी वापस नहीं लिया जा सकता।”।
सूरह निसा (4:7) के अनुसार ”पुरुषों और महिलाओं, दोनों को माता-पिता और निकट सम्बंधियों की छोड़ी गई सम्पत्ति में हिस्सा मिलना चाहिए।”
इस्लाम ने महिला को विवाह के समय मेहर का अधिकार दिया है, न कि दहेज। लेकिन व्यवहार में जो कुछ हो रहा है वह इन धार्मिक आदेशों ‘लाइफस्टाइल इवेंट’ की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है, वह भी दहेज प्रथा को और मजबूत कर रहा है। ‘बिग फैट मुस्लिम वेडिंग्स’ जैसी संस्कृति में कन्या पक्ष पर उपहार, मेहमाननवाजी और दिखावे का भारी दबाव होता है। यह सब मिलकर उस धार्मिक संदेश को धुंधला कर देता है जो सादगी, न्याय और सम्मान की बात करता है।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की भूमिका
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे प्रभावशाली धार्मिक संस्थानों ने अब तक इस विषय पर कोई संगठित, सशक्त और सतत् अभियान नहीं चलाया है। जब तीन तलाक पर बहस चलती है, तो धर्म की रक्षा के लिए आवाजें तेज होती हैं, लेकिन दहेज पर वही नेतृत्व मौन क्यों रहता है? क्या यह पाखंड नहीं है कि शरीयत का हवाला केवल तब दिया जाता है जब उससे पुरुषों की सत्ता मजबूत हो? यदि मस्जिदों से निकाह के समय यह घोषित किया जाए कि ‘यह विवाह बिना दहेज हुआ है’ तो क्या समाज में एक नया संदेश नहीं जाएगा? क्या धार्मिक निकाय इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाएंगे धार्मिक नेतृत्व की चुप्पी सिर्फ व्यक्तिगत असफलता नहीं है, बल्कि यह संस्थागत स्तर पर महिलाओं के अधिकारों की अनदेखी है। जब तक मस्जिदों के मिम्बर से यह न कहा जाए कि दहेज इस्लाम के खिलाफ है, तब तक समाज में बदलाव सम्भव नहीं।
कुछ महिला संगठन, जैसे भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) ने दहेज के खिलाफ अभियान चलाए हैं। उन्होंने मुस्लिम समाज के भीतर सुधारात्मक आंदोलन की शुरुआत की है, जिसमें शरीयत को महिलाओं के पक्ष में व्याख्यायित किया गया है। लेकिन ऐसे प्रयास अभी सीमित दायरे में हैं। जरूरत है कि दहेज के खिलाफ संघर्ष एक जन आंदोलन का रूप ले, जो हर मोहल्ले, हर मस्जिद, हर निकाह समारोह तक पहुंचे। साथ ही, मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता को प्राथमिकता देना होगा, ताकि वे केवल विवाह का माध्यम न बनें, बल्कि अपने जीवन की निर्णयकर्ता भी बन सकें। यह भी जरूरी है कि समुदाय के भीतर ऐसे पुरुषों को बढ़ावा दिया जाए जो बिना दहेज विवाह करते हैं। इनकी कहानियों को सार्वजनिक किया जाए, मीडिया में जगह दी जाए, ताकि एक नया आदर्श स्थापित हो सके।
न्यायिक नजरिया
भारत के सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने कई बार दहेज से जुड़ी मौतों को ‘दुर्लभतम अपराध’ कहा है। कुछ मामलों में न्यायालयों ने साफ कहा है कि यदि विवाह के 7 साल के भीतर महिला की मृत्यु संदिग्ध परिस्थितियों में होती है, और ससुराल वाले दहेज की मांग करते पाए जाते हैं तो उन्हें हत्या के लिए जिम्मेदार माना जाएगा।
2010 में एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ”दहेज समाज की जड़ें खोदने वाला अपराध है और इसे किसी भी सूरत में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।”
दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2018 में एक फैसले में कहा कि ”दहेज को वैध ठहराने वाला कोई सामाजिक या धार्मिक तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह सीधे-सीधे महिलाओं के मानवाधिकारों का उल्लंघन है।” लेकिन कानूनी कार्रवाई तभी प्रभावी हो सकती है जब समाज स्वयं इसके खिलाफ खड़ा हो। वरना, अदालतें भी केवल मौत के बाद न्याय देंगी, जीवन बचाने के लिए नहीं।
आगे की राह
आज के दौर में दहेज एक प्रत्यक्ष आर्थिक शोषण है। यह विवाह को साझेदारी की संस्था से व्यापारिक सौदे में बदल देता है। वर पक्ष की ‘कीमत’ लगती है, और कन्या को उसके साथ ‘पैकेज’ में भेजा जाता है। यह लड़की के परिवार को आर्थिक रूप से निचोड़ता है, और लड़की को मानसिक, सामाजिक और शारीरिक अत्याचारों में धकेलता है। कभी वह आत्महत्या कर लेती है, कभी छत से फेंक दी जाती है।
अब वक्त आ गया है कि ‘मजहब, दहेज और मौत’ की यह त्रयी टूटे और धर्म को उस भूमिका में लाया जाए जहां वह न्याय, बराबरी और करुणा के पक्ष में खड़ा हो। आमना के साथ यह घटना अंतिम न हो, इस संकल्प के साथ हमें आगे बढ़ना होगा।
आखिर में यही कहना पर्याप्त है कि दहेज के खिलाफ संघर्ष सिर्फ कानून का नहीं, बल्कि आत्मा का संघर्ष है। जब तक मजहबी नेतृत्व, सामाजिक संगठन और आम परिवार मिलकर इसे नहीं नकारेंगे – तब तक आमना जैसी बेटियां चुपचाप मारी जाती रहेंगी और हम केवल उनकी याद में मोमबत्तियां जलाते रहेंगे।
‘दहेज लेना शरीयत के खिलाफ’
उत्तराखण्ड जमीयत उलेमा-ए-हिंद के प्रदेश अध्यक्ष मौलाना शराफत (मौलाना अरशद मदनी) से बातचीत
उत्तर प्रदेश की जालौन में आमना नामक महिला को कथित तौर पर दहेज के चलते न सिर्फ प्रताड़ित किया गया, बल्कि उसकी जान लेने की कोशिश भी की गई। जिसका वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हो रहा है और इसने पूरे समाज को झकझोर दिया है। जबकि इस्लाम और शरीयत महिलाओं को इज्जत सुरक्षा और अधिकार देने की बात करता है तो ऐसी घटनाएं मुस्लिम समाज में क्यों दोहराई जा रही हैं आप इसे कैसे देखते हैं?
दहेज को शरीयत ने जरूरी नहीं करार दिया है जो जालौन में घटना हुई है वह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। क्योंकि मुस्लिम समाज भी एक समाज है और यह समाज मुल्क के कानून का हिस्सा है तो इसलिए कानून का जो मुल्क है उसके हिसाब से इन दरिंदों पर कार्रवाई की जानी चाहिए। हम लोगों को समझा तो सकते हैं लेकिन अमल करना लोगों पर निर्भर है। हम चाहते हैं कि इसमें जो भी लोग शरीक हैं उनको मुल्क के कानून के हिसाब से सख्त सजा दी जाए।
कुरान में मेहर का स्पष्ट प्रावधान है और दहेज का कोई आदेश नहीं है। फिर भी मुस्लिम समाज में दहेज को धार्मिक चुप्पी और सामाजिक मान्यता क्यों मिल रही है? क्या यह शरीयत की आत्मा के खिलाफ नहीं है?
बिल्कुल यह शरीयत के खिलाफ है। शरीयत में अव्वलन तो दहेज है ही नहीं। अगर कोई अपनी बेटी को अपनी मर्जी से उसकी जरूरत का सामान देता है तो इसमें कोई हर्ज नहीं। लेकिन लड़के वालों का अपने लिए या अपने घर वालों के लिए किसी सामान या पैसे का मुतालबा लड़की वालों से करना शरीयत के अंदर नाजायज और हराम है।
‘जहेज-ए-फातिमा’ को अक्सर आज के दहेज के संदर्भ में उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। क्या यह ऐतिहासिक दृष्टि से उचित व्याख्या है? क्या आज दहेज उस सादगीपूर्ण परम्परा से मेल खाता है?
यह सादगीपूर्ण परम्परा से किसी भी रूप में मेल नहीं खाता है जो जहेज-ए-फातिमा को दहेज के समर्थन में उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं वह बिल्कुल गलत हैं। हमारे नबी ने अपनी बेटी फातिमा को सिर्फ जरूरत का सामान जरूर दिया था। दूसरी अहम बात यह है कि हजरत अली जो आपके दामाद थे वह आपके चाचाजात भाई थे और हजरत अली के अब्बा का इंतकाल उनके बचपन में हो गया था तो हजरत अली हमारे नबी की सपरस्ती में थे, इसलिए उनकी तमाम जरूरत का ख्याल हुजूर रखते थे तो इसलिए अपनी बेटी को हमारे नबी ने जो भी सामान दिया जरूर, जो जरूरत थी उसके हिसाब से दिया।
क्या मस्जिदों, मदरसों और निकाह समारोह के माध्यम से घोषणा नहीं होनी चाहिए कि विवाह बिना दहेज के हुआ है। क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और अन्य धार्मिक संस्थाएं इस दिशा में पहल कर सकती हैं?
देखिए, दहेज के खिलाफ हमेशा कहा जाता है। बताया जाता है कि दहेज एक लानत है, बुराई है। हम इस बात को हमेशा मुस्लिम समाज में रखते हैं कि दहेज एक लानत है, बुराई है और अगर ऐसा ही चला रहा तो आगे जो है शादियों, निकाहों में परेशानी होगी और जब शादियों में परेशानी होगी तो समाज में गंदगी फैलेगी। नबी ने फरमाया था कि निकाह जितना आसान होगा उतना ही ज्यादा अच्छा है। हमारी हमेशा कोशिश रहती है हम अलग-अलग जगह पर जाकर लोगों को समझाते हैं और निका निकाह ही नहीं अन्य बुराई की ओर कि हम लोगों को आगाह करते हैं। मुस्लिम संस्थाएं और वक्फ बोर्ड भी इस बारे में पहल करते हैं।