मां मीना संग तन्वी
होशियारपुर पंजाब की 16 वर्षीय तन्वी शर्मा ने विश्व जूनियर बैडमिंटन चैम्पियनशिप में सिल्वर मेडल जीतकर न सिर्फ भारत का नाम रोशन किया है बल्कि उस हर भारतीय मां के सपने को भी साकार किया जो अपनी बेटी को ऊंचाइयों पर देखना चाहती है। तन्वी की सफलता सिर्फ एक खेल उपलब्धि नहीं बल्कि एक मां और बेटी की साझी तपस्या की कहानी है। सुबह चार बजे की ठंडी हवाओं में शुरू हुई मेहनत, अधूरे सपनों की पूर्ति और यह यकीन कि जज्बा और विश्वास हो तो कोई मंजिल दूर नहीं। मीना शर्मा जो सपना कभी खुद नहीं जी सकीं वही उन्होंने तन्वी की आंखों में देखा और अपनी बेटी के हर कदम पर उसका हौसला बनकर खड़ी रहीं। यह कहानी सिर्फ रैकेट और शटल की नहीं, बल्कि उस अमर प्रेम की है जो एक मां अपनी बेटी के लिए अपने हर त्याग से लिखती है


हार-जीत के पीछे कोई कहानी होती है और कभी-कभी वह कहानी व्यक्ति की नहीं बल्कि उस शख्स की होती है जो उसके पीछे खड़ा होता है। तन्वी शर्मा की कहानी भी ऐसी ही है। यह कहानी है पंजाब के एक छोटे से शहर होशियारपुर की जहां एक मां ने अपनी अधूरी इच्छाओं को अपनी बेटी के सपनों में ढाल दिया। मीना शर्मा जो कभी खुद बैडमिंटन खेलती थीं, को जब समाज और हालात की वजह से खेल छोडना पड़ा तब उन्होंने मन ही मन ठान लिया कि अगर कभी मौका मिला तो वे अपनी बेटियों को वही रास्ता देंगी जिसे वो खुद नहीं चल पाईं।
जब तन्वी ने पहली बार रैकेट उठाया, तो वह महज खेल नहीं एक विरासत थी जो मां से बेटी तक पहुंची थी। घर में आर्थिकी तंगी थी लेकिन मीना ने कभी इसे बाधा नहीं बनने दिया। उन्होंने खुद को अपनी बेटियों की कोच बना लिया। किसी ने औपचारिक ट्रेनिंग नहीं दी थी, लेकिन मीना के भीतर जुनून और समझ दोनों थे। वह हर सुबह चार बजे उठतीं, अपनी दोनों बेटियों, तन्वी और राधिका को उठाकर ग्राउंड ले जातीं। ठंड के मौसम में जब बाकी बच्चे रजाई में दुबके रहते तब यह मां-बेटी की जोड़ी मैदान में पसीना बहाती थी। कभी दौड़ लगाना, कभी फुटवर्क सुधारना तो कभी रैकेट की पकड़ पर काम करना, यह सब रोज का हिस्सा बन गया।


मीना खुद पुराने मैचों के वीडियो देखकर नई तकनीकें सीखतीं और फिर अपनी बेटियों को सिखातीं। उन्होंने यह समझ लिया था कि खेल सिफज् ताकत का नहीं बल्कि दिमाग और संतुलन का भी है। मीना का कहना था, ”अगर खिलाड़ी खुद को समझ ले तो वह किसी भी विरोधी को मात दे सकता है।” तन्वी धीरे-धीरे इस समझ को अपने खेल में ढालने लगी। उसका शॉट सटीक होता गया, मूवमेंट तेज होती गई और आत्मविश्वास बढने लगा। पर सफर आसान नहीं था। उपकरणों के लिए पैसे जुटाना, टूनामेन्ट फीस भरना, ट्रेनिंग का खर्च निकालना, इन सबके बीच मीना ने कभी हार नहीं मानी। कई बार उन्होंने अपनी जरूरतें छोड़ दीं ताकि बेटियों के लिए रैकेट या शूज खरीदे जा सकें। तन्वी ने बाद में एक इंटरव्यू में कहा, श्मां खुद के लिए कुछ नहीं खरीदती थीं, लेकिन मेरे हर टूनामेज्ंट के लिए कुछ नया लाती थीं। वही मेरी ताकत थी।”

तन्वी का खेल जल्द ही स्थानीय स्तर पर छाने लगा। वह पंजाब की जूनियर बैडमिंटन चैम्पियन बनी और राज्य टीम में शामिल हुई। यहीं से उसका पेशेवर सफर शुरू हुआ। मीना ने उसे मोहाली भेजा जहां उसे बेहतर प्रशिक्षण मिला। वहीं कोच पार्क ते-सांग की निगाह उस पर पड़ी जो पहले पी.वी. सिंधु के साथ भी काम कर चुके थे। पार्क ने तन्वी में प्रतिभा देखी। वे कहते हैं कि ”इस लड़की में सायना नेहवाल की समझ और सिंधु की आक्रामकता दोनों मैंने देखी।”

2025 का साल तन्वी के जीवन में मोड़ लेकर आया। उसने पहले एशिया जूनियर चैम्पियनशिप में ब्रॉन्ज मेडल जीता और फिर विश्व जूनियर बैडमिंटन चैम्पियनशिप में सिल्वर मेडल हासिल किया। यह उपलब्धि सिर्फ उसके लिए नहीं बल्कि पूरे भारत के लिए गर्व का पल थी। तन्वी ने फाइनल में बेहद कठिन मुकाबले में हार मानी लेकिन उसके खेल ने विशेषज्ञों को चौंका दिया। उसकी परिपक्वता, संयम और खेल की समझ ने साबित कर दिया है कि वह आने वाले वर्षों में भारतीय बैडमिंटन की नई पहचान बनेगी। विश्व चैम्पियनशिप के बाद तन्वी ने अमेरिका जाकर यूएस ओपन समर 300 टूनामेंट में हिस्सा लिया। वहां उसने कई दिग्गज खिलाडियों को हराते हुए फाइनल में प्रवेश किया। मीडिया ने उसे ‘भारत की अगली सिंधु्’ कहना शुरू कर दिया। लेकिन तन्वी ने बहुत सादगी से कहा, ‘मैं किसी की जगह नहीं लेना चाहती, मैं अपनी जगह बनाना चाहती हूं।’ यह आत्मविश्वास उसके व्यक्तित्व की पहचान बन गया है।

तन्वी की मां मीना हर मैच में उसके साथ रहती हैं। वे स्टैंड में बैठकर हर पॉइंट पर नजर रखती हैं। जब तन्वी गलती करती है तो मीना उसे सिर्फ एक नजर से समझा देती हैं। एक बार तन्वी ने मजाक में कहा था, ”कोच कुछ भी बोले, लेकिन मां की नजर का असर ज्यादा होता है।” सच भी यही है मीना सिर्फ कोच नहीं, एक भावनात्मक सहारा हैं जो हर समय तन्वी को उसके लक्ष्य की याद दिलाती रहती हैं। आज तन्वी भारत की जूनियर रैंकिंग में नम्बर वन खिलाड़ी है और इंटरनेशनल जूनियर सर्टिफिकेट में भी शीर्ष पर है। उसके खेल में परिपक्वता और आत्मविश्वास दोनों झलकते हैं। वह कहती हैं, ” मुझे पता है कि अभी सफर लंबा है, लेकिन अब मैं रुकने वाली नहीं। मां ने मुझे सिखाया है कि हारने से पहले हार मानना गलत है।”

तन्वी की सफलता ने पंजाब में एक नई लहर पैदा की है। होशियारपुर में बच्चे अब बैडमिंटन को लेकर उत्साहित हैं। वहां के लोग गर्व से कहते हैं कि ”हमारी तन्वी ने कर दिखाया।” मीना शमाज् अब कई युवा खिलाडियों को मार्गदर्शन भी देती हैं। उन्होंने अपनी बेटियों के माध्यम से साबित किया कि बड़े कोचिंग सर्टिफिकेट से ज्यादा जरूरी है समपज्ण और विश्वास।

इस पूरी यात्रा में तन्वी की बहन राधिका भी उसके साथ रही। दोनों बहनें एक-दूसरे के खेल को सुधारती हैं। जब तन्वी विदेश में खेल रही होती है तो राधिका उसके वीडियो देखकर उसे सुझाव भेजती है। यह रिश्ता सिर्फ खून का नहीं बल्कि सपनों का भी है।

तन्वी अब सीनियर स्तर पर खेलने की तैयारी में है। उसका लक्ष्य ओलम्पिक में पदक जीतना है। वह जानती है कि यह आसान नहीं होगा, लेकिन उसकी तैयारी भी उतनी ही कठिन है। मीना आज भी सुबह चार बजे उठती हैं और भले अब तन्वी विदेश में प्रशिक्षण ले रही हो, मां के फोन पर वही आवाज आती है ‘उठो, मेहनत करने का वक्त है।’

आज जब भारत बैडमिंटन में नई ऊंचाइयों को छू रहा है तो तन्वी शमाज् उस नई पीढ़ी का चेहरा है जो मेहनत और आत्मविश्वास से दुनिया को बता रही है कि भारतीय बेटियां किसी से कम नहीं। और जब वह कोर्ट पर खड़ी होती है तो हर स्ट्रोक के साथ उसकी मां का सपना उड़ान भरता है। वह सपना जो कभी मीना शर्मा ने अपने लिए देखा था अब वह तन्वी के रैकेट से हर शटल में चमक रहा है। यही है असली जीत। यही है श्मां का सपना, बेटी की उड़ान।’

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