Uttarakhand

राजनीति का फौलादी फीनिक्स: न उम्र रोके, न हार

‘गंगा सम्मान यात्रा’ के जरिए एक बार फिर हरीश रावत उत्तराखण्ड में कांग्रेस की बुझती चिंगारी को सुलगाने निकले हैं। 77 वर्षीय यह अनुभवी राजनेता अपनी पार्टी के निष्क्रिय संगठन और नेतृत्वहीनता के बीच एक बार फिर जनसरोकारों की मशाल थामे सड़क पर हैं। हालांकि उनके साथ न प्रदेश संगठन खड़ा दिखता है, न शीर्ष नेता, लेकिन राज्य के गांव-गांव में एक पुराना भरोसा फिर से उनके साथ खड़ा होता दिख रहा है – हरीश रावत का भरोसा। उनकी यह यात्रा न केवल गंगा की पवित्रता और सरकार की असफलताओं पर सवाल उठा रही है, बल्कि यह कांग्रेस के पुनर्जीवन का भी प्रतीक बनने का प्रयास है। वे अकेले हैं, लेकिन अकेले नहीं दिखते, क्योंकि हर जन मुद्दे पर आवाज बुलंद करना, उनके राजनीतिक जीवन की पहचान बन चुका है

हरीश रावत का राजनीतिक जीवन संगठन के सबसे मूल स्वरूप से शुरू हुआ, ट्रेड यूनियन आंदोलन से। वे ट्रेड यूनियनों के शीर्ष संगठन केंद्रीय सरकारी कर्मचारी एवं मजदूर परिसंघ के अध्यक्ष रहे और कई अन्य मजदूर संगठनों में सक्रिय रहे, जहां उन्होंने श्रमिकों के अधिकारों के लिए लम्बी लड़ाइयां लड़ीं। इसके बाद कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे में उन्होंने नेतृत्व की भूमिका निभाई और सेवा दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने, जहां उन्होंने युवाओं को सामाजिक और राजनीतिक चेतना से जोड़ा। रावत ने पहली बार 1980 में अल्मोड़ा से लोकसभा चुनाव जीता और भाजपा के दिग्गज नेता डाॅ. मुरली मनोहर जोशी को हरा संसद पहुंचे। इसके बाद 1984 और 1989 में भी लगातार जीत दर्ज की। 1991 में वे पराजित हुए और 1999 में भी हार का सामना किया। लेकिन 2009 में हरिद्वार से जीतकर संसद पहुंचे और केंद्र में पहले श्रम राज्यमंत्री और फिर जल संसाधन मंत्रालय में कैबिनेट मंत्री बने। वे 2014 में उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री बने, लेकिन 2017 में हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा, दोनों सीटों से चुनाव हार गए। 2022 में भी कांग्रेस के साथ वे सत्ता से दूर ही रहे।

मुख्यमंत्री बनते ही शुरू हुआ कांग्रेस का बिखराव

हरीश रावत को जब विजय बहुगुणा की जगह मुख्यमंत्री बनाया गया, उम्मीद थी कि संगठन मजबूत होगा। लेकिन ठीक इसके विपरीत, कांग्रेस में टूट की शुरुआत हो गई। सतपाल महाराज सबसे पहले भाजपा में गए, फिर खुद विजय बहुगुणा और 9 विधायक पार्टी छोड़ गए। इसके बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा और कांग्रेस का संकट गहरा गया। भले ही हरीश रावत कोर्ट के आदेश से दोबारा मुख्यमंत्री बने, लेकिन तब तक पार्टी का मनोबल बिखर चुका था।

यह हरीश रावत की ही जिजीविषा थी कि राष्ट्रपति शासन के बाद जिस तरह से कांग्रेस में एक बड़ी हताशा और निराशा का माहौल बन गया था उसे उन्होंने कभी भी पार्टी और अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। अखिरकार हाईकोर्ट के आदेश पर राष्ट्रपति शासन खत्म हुआ और फिर से वे मुख्यमंत्री बने। लेकिन इस बीच कांग्रेस की राजनीति में एक बड़ा बदलाव आ चुका था जिसको समझने में हरीश रावत नाकाम रहे। अपनी सरकार को बचाने के लिए सौदेबाजी का स्टिंग ऑपरेशन ने तो हरीश रावत की समूची राजनीति में ही तुुफान खड़ा कर दिया जिसका यह असर रहा कि 2017 में भाजपा को प्रंचड बहुमत मिला और वह सत्ता पर काबिज हो गई। हरीश रावत स्वयं दो जगहांे सीटों पर चुनाव लड़े लेकिन उनका दोनों ही सीटों पर पराजय हासिल हुई। कांग्रेस अपने राजनीतिक इतिहास में सबसे कम सीटों पर चुनाव जीती। जो कांग्रेस कभी प्रदेश की राजनीति में एक ताकत रखती थी वही महज 11 सीटों पर सिमट कर रह गई।

सरकार और संगठन को अपने तरीके से हांकने वाले हरीश रावत ने प्रदेश अध्यक्ष भी अपने मनमाफिक बनाए हैं। किशोर उपाध्याय और गण्ेाश गोदियाल हों या फिर प्रीतम सिंह और यशपाल आर्य इन सभी को हरीश रावत के ही इशारे पर प्रदेश अध्यक्ष का ताज नसीब हो पाया है। लेकिन यह भी दिलचस्प बात है कि प्रदेश अध्यक्ष और हरीश रावत के सम्बंधों में उतार-चढ़ाव हमेशा से देखने को मिलता रहा है। किशोर उपाध्याय और मुख्यमंत्री हरीश रावत के बीच हमेशा विवाद और बयानबाजी का दौर देखने को मिला। प्रीतम सिंह और हरीश रावत के बीच भी सम्बंध मधुर थे ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। प्रीतम सिंह के अध्यक्षीय कार्यकाल में तो कांग्रेस की वरिष्ठ नेत्री स्वर्गीय इंदिरा हृदयेश और प्रीतम सिंह का एक मजबूत गुट बन गया था जिसके जद में हरीश रावत के समर्थक ही आए। गणेश गोदियाल के कार्यकाल में कांग्रेस 2022 का विधानसभा चुनाव बुरी तरह हार गई जबकि हरीश रावत मुख्यमंत्री के अघोषित चेहरा बन गए थे और एक तरह से उनके चेहरे पर ही कांग्रेस का चुनाव सिमट गया था बावजूद इसके हार का ठीकरा गणेश गोदियाल के सिर फोड़ा गया और उनको अध्यक्ष पद से त्याग देने पर मजबूर होना पड़ा।

राजनीति का ‘किंगमेकर’ और शत्रुओं का निर्माणकर्ता भी

हरीश रावत का संगठन पर व्यापक नियंत्रण रहा – प्रीतम सिंह, किशोर उपाध्याय, गणेश गोदियाल जैसे नेता उनके करीबी रहे। लेकिन यह समीकरण अक्सर टकराव में बदलता रहा। मंत्रियों के विभागों में हस्तक्षेप, प्रदेश अध्यक्षों के चयन में दखल, यह सब उनके आलोचकों को लगातार बढ़ाता रहा।

निश्चित ही वे ऐसे नेता रहे हैं जिनकी छत्रछाया में अनेक नेता राजनीतिक तौर पर मजबूत हुए हैं और कांग्रेस में अपना वजूद बनाने में सफल रहे हैं। प्रीतम सिंह हो या किशोर उपाध्याय, मदन सिंह, बिष्ट हीरा सिंह बिष्ट, जोत सिंह गुनसोला हो या गोविंद सिंह कुंजवाल अनेकों नेताओं के नाम लिए जा सकते हैं जिनकी प्रदेश में राजनीति को अलग धार देने में हरीश रावत का हाथ रहा है। यही नहीं कांग्रेस की दूसरी पंक्ति के नेताओं की भी एक बड़ी जमात है जिनको हरीश रावत का साथ मिला और वे अपने-अपने क्षेत्र में कांगेस के युवा नेताओं में शुमार किए गए। इनमें युवा कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राजपाल खरोला का नाम सबसे आगे है। राजपाल दो बार ऋषिकेश विधानसभा से कांग्रेस के उम्मीदवार भी रहे हैं।

यह एक विरोधाभाष ही है कि जहां हरीश रावत के इर्द-गिर्द कांग्रेस की राजनीति की धुरी घूमती रही है और सरकार से लगकर संगठन में भी हरीश रावत का ही मजबूत दखल रहा है लेकिन उनके सभी कार्यकाल में अपनों ने भी साथ छोड़ने में कमी नहीं की है। नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद कांग्रेस में खासा हंगामा हुआ और 25 से भी ज्यादा विधायक हरीश रावत के साथ खड़े होकर उनको मुख्यमंत्री बनाए जाने की मांग कई दिनों तक दिल्ली कांग्रेस दफ्तर में करते रहे। इसके बाद ज्यादातर विधायक और नेता सत्ता के साथ जुड़ते चले गए लेकिन हरीश रावत की ताकत कम नहीं हुई।

हरीश रावत पर अपने और अपनों के राजनीतिक फायदे के लिए बार्गिनिंग करने के भी आरोप लगते रहे हैं। 2002 में मुख्यमंत्री न बन पाने के बाद उन्होंने अपने समर्थकों को सरकार में शामिल करवाया। बहुगुणा सरकार के समय में भी हरीश रावत की राजनीतिक सौदेबाजी देखने को मिली। सरकार में कई समर्थकों को शामिल करवाकर न सिर्फ मंत्री बनाया यहां तक कि उनको भारी भरकम विभागों की भी जिम्मेदारियां दिलवाने में रावत कामयाब रहे। तमाम विरोध के बावजूद विधानसभा अध्यक्ष का पद भी अपने खास समर्थक गोविंद सिंह कुंजवाल को बनाने में हरीश रावत सफल रहे।

यही राजनीतिक सौदेबाजी कई बार हरीश रावत पर भारी भी पड़ी है। इसके चलते कई नेताओं में नाराजगी भी देखने को मिली। कई नेता एक के बाद एक पार्टी छोड़कर भाजपा में जा चुके हैं। आज भी कांग्रेसी नेताओं का पार्टी छोड़ने का सिलसिला लगातार बना हुआ है। 40 वर्षों से कांग्रेसी नेता मथुरादत्त जोशी जैसे प्रखर नेता भी कांग्रेस छोड़ चुके हैं। ऐसी एक लम्बी लिस्ट है जिसमें अनेक कांग्रेसी नेता जो पदाधिकारी भी रह चुके हैं वे पार्टी छोड़ चुके हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव में तो कहा जाता है कि करीब 15 हजार छोटे-बड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं ने कांग्रेस को अलविदा कह भाजपा का दामन थामा है। नगर निकाय चुनाव में भी यही देखने को मिल चुका है। 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के गढ़वाल क्षेत्र के सबसे मजबूत नेता सतपाल महाराज कांगे्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए। महाराज जैसे नेता के पार्टी छोड़ने पर हरीश रावत को ही इसका दोषी बताया जाता है। 2016 में तो कांग्रेस में सबसे बड़ी टूट हुई जिसमें 9 कांग्रेसी विधायक और पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा पार्टी को अलविदा कह गए और प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में पहली बार राष्ट्रपति शासन भी देखने को मिला।

सत्ता से बाहर जाने के बाद जहां कांग्रेस में बिखराव शुरू हुआ और राजनेता हताश हो घर बैठ गए, रावत ने हार नहीं मानी। राज्य में जब भी कोई जनमुद्दा उठा – गैरसैंण को राजधानी बनाने की मांग, गेस्ट टीचरों के अधिकार, जोशीमठ आपदा, चारधाम यात्रा अव्यवस्थाएं या गन्ना किसानों की समस्या, हरीश रावत सबसे आगे दिखे। उनकी उम्र कभी उनके संघर्ष के रास्ते में नहीं आई। परेड ग्राउंड में ठंड में धरना, विधानसभा के बाहर प्रदर्शन, गांधी पार्क में उपवास, ग्रामीण क्षेत्रों का दौरा, यह सब उन्हें बाकी नेताओं से अलग बनाता है।

राजनीतिक जानकार मानते हैं कि हरीश रावत एक बड़े नेता तो हैं और वे कांग्रेस को एक रखने में जितनी कुब्बत उनमें है उतनी किसी अन्य नेता में नहीं है लेकिन हरीश रावत एक तरह से पूरी ताकत और एकछत्र राज करने की नीति के चलते उनके राजनीतिक शत्रुओं की तादात बढ़ती रही है। 2014 में जब हरीश रावत बहुगुणा के बाद मुख्यमंत्री बने तो करीब एक माह तक किसी मंत्री को विभागों का बंटवारा तक नहीं किया गया था। एक तरह से एक महीने तक प्रदेश की राजनीति और सरकार में केवल और केवल हरीश रावत ही नजर आ रहे थे। भारी दबाव या समय अनुकूल होने के बाद मंत्रियों को विभागों का बंटवारा किया गया। जानकारों की मानें तो हरीश रावत कोई भी राजनीतिक फैसला तब तक नहीं करते जब तक समय अपने अनुकूल न हो। मंत्रियों के विभागों का मामला भी कुछ ऐसा ही था।

2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की बुरी तरह से हार हुई। 2019 तथा 2024 में भी लगातार कांग्रेस लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं जीत पाई है। 2017 के विधानसभा चुनाव में करारी हार का सिलसिला 2022 के चुनाव में भी बरकरार रहा। इस हार का खलनायाक हरीश रावत को ही बताया जाता है। आज भी कांग्रेस के कई नेता दबे स्वरों में हरीश रावत को कांग्रेस की दुर्दशा का जिम्मेदार बताने में कोई कमी नहीं करते। हैरत की बात यह है कि भरा पूरा संगठन और अनुभवी नेताओं के होने के बाद भी कांग्रेस भाजपा सरकार के खिलाफ कोई बड़ा मोर्चा नहीं खोल पाई है जबकि हरीश रावत एक के बाद एक जनता के मुद्दों को लेकर सड़क पर अपना दमखम दिखाने में पीछे नहीं रहे हैं। 2017 की हार के बाद जहां कांग्रेस के कई नेताओं में सरकार के खिलाफ बोलने से परहेज करते नजर आ रहे हैं तो वही हरीश रावत लगातार 8 वर्षों से प्रदेश की
राजनीति में पहले की ही तरह से सक्रिय है। लगातार हार का साया हरीश रावत की राजनीति में पड़ा हो ऐसा कभी देखने को नहीं मिला है। चाहे त्रिवेंद्र सरकार के समय गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने के दावों की बात हो तो हरीश रावत समूचे चमोली जिले और गैरसैंण भ्रमण पर जाकर सरकार को खुली चुनौती देते नजर आए है, साथ ही उनके यह सवाल ‘भैजी कख च हमारी ग्रीष्मकालीन राजधानी।’ तत्कालीन भाजपा सरकार को भी असहज करने के लिए काफी था। इसके अलावा गेस्ट टीचरों के साथ भयंकर ठंड में परेड ग्राउंड में उनका साथ देने का मामला हो या चारधाम यात्रा की अव्यवस्थाओं का मामला हो या आपदा से ग्रस्त जोशीमठ का दौरा हो, गन्ना किसानों को उचित मूल्य दिलवाने का मामला हो हर मुद्दों पर हरीश रावत ने अपनी उम्र और अपनी शारीरिक क्षमता को कभी आड़े नहीं आने दिया। प्रदेश में आई आपदाओं  के समय भी हरीश रावत आपदाग्रस्त क्षेत्र में देखे जाते रहे हैं जबकि कांग्रेस के अन्य नेताओं में यह देखने को नहीं मिला। विधानसभा के बाहर धरने का मामला हो या जनहित के मामलों पर गांधी पार्क में धरना उपवास का मामला, हरीश रावत हर बार सबसे अलग और सबसे आगे नजर आते रहे हैं।

गंगा सम्मान यात्रा : एक प्रतीकात्मक विद्रोह

वर्तमान में गंगा सम्मान यात्रा के माध्यम से वे फिर एक बड़ी राजनीतिक लड़ाई के केंद्र में हैं। वे केंद्र सरकार द्वारा ‘नमामि गंगे योजना’ पर हुए खर्च और गंगा की वास्तविक स्थिति को लेकर जनता के बीच जा रहे हैं। वे गंगा को आस्था नहीं, उत्तर भारत की जीवनरेखा मानते हैं और इसे राजनीतिक नारों से मुक्त देखना चाहते हैं। हालांकि इस यात्रा में भी कांग्रेस के शीर्ष नेताओं की सक्रियता नहीं दिखती। हरीश रावत इस आंदोलन में भी अकेले हैं, लेकिन पहले से कहीं अधिक मुखर और प्रतिबद्ध। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि हरीश रावत वह दुर्लभ नेता हैं जो चुनावी हार से नहीं, विचारों के परित्याग से डरते हैं। उनकी राजनीति सत्ता के लिए नहीं, संघर्ष की संस्कृति के लिए है। वे मानते हैं कि अगर संगठन न रहे, फिर भी विचार जीवित रहने चाहिए और यह विचार वह आज भी अकेले ढो रहे हैं।

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