- हरीश रावत
पूर्व मुख्यमंत्री, उत्तराखण्ड
इस बार उत्तराखण्ड के वित्त मंत्री की पोटली से इस समस्या के तत्कालीन और दीर्घकालिक निदान के लिए कुछ योजनाएं जरूर निकलेंगी। राज्य के संतुलित विकास के लिए यह आवश्यक है। निराशा, राज्य के लिए घातक होने जा रही है। मैंने अपने सर को झटका, पलायन के दर्द को मैंने कुछ भुलाने की कोशिश की तो तब तक मुझे नौजवानों के बुझे-बुझे, निराश से चेहरे स्मरण आने लगे। मैं यहां से जितना भी ध्यान हटाने का प्रयास कर रहा था, मुझे उनके गुस्से, तमतमाए हुए चेहरों और ‘नौकरी दो-नौकरी दो, वरना राजनीति छोड़ दो’ के नारे लगाते हुए स्वर याद आने लगे, तो मैं उन नौजवानों के भविष्य के विषय में सोचने लगा जिन्हें हम उपनल कर्मी और अतिथि शिक्षक कहते हैं। हमने 2016 में एक समाधान निकाला था जो इन दोनों संगठनों के तत्कालीन नेतृत्व ने स्वीकार नहीं किया। अब गंगा- जमुना में काफी पानी बह चुका है। इस चुनौती का भी समाधान और अधिक नहीं टाला जा सकता है। मैंने मन ही मन बुदबुदाया कि दोस्तो तुमने मुझे तीन साल का समय दिया, मैंने 32000 लोगों को सरकारी नौकरी से जोड़ा। हम तो अस्थाई तौर पर नौकरियों पर लगे हुए लोगों की समस्या का समाधान करके गए, मगर अतिथि शिक्षक और उपनल पर लगे हुए लोगों ने हम पर विश्वास नहीं किया। फिर मुझे स्मरण आया कि हमारी सरकार 18000 पदों के अध्याचन की प्रक्रिया प्रारम्भ करके गई, सरकार दर सरकार, मुख्यमंत्री के बाद मुख्यमंत्री आए, मगर 8 साल बाद भी सब इसी 18000 अध्याचित पदों में उलझे हुए हैं
विकसित भारत का सपना एक जबरदस्त आकर्षण है। श्री मोदी जी और श्रीमती सीतारमण जी इस नारे को छात्र यूनियन के चुनाव के तर्ज पर लगा रहे हैं। 1 और 2 फरवरी को दिनभर व रात देर तक दिल्ली विधानसभा के चुनाव प्रचार में मैं व्यस्त रहा। बिस्तर में लेटते ही दोनों दिन नींद ने आ घेरा। दोनों दिन सुबह भी आंख देर से खुली, वह भी मेरे सहयोगियों के झकझोरने पर। 3 फरवरी को थोड़े चुनाव प्रचार के बाद जब मैं देहरादून की तरफ लौटा तो रास्ते भर बजट प्रस्तावों का अर्थव्यवस्था व समाज के विभिन्न हिस्सों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, उस बारे में सोचता रहा और मन ही मन मूल्यांकन करता रहा। देहरादून बहुत दिनों बाद आया। पुराने स्थानीय अखबार पढ़े सबने वित्त मंत्री जी के बजट के चारों ओर बहुत सारी आशाएं बिखेरी हैं। मैं बिस्तर पर लेटे-लेटे सोचने लगा कि इस बजट में किसान, मजदूर, आम गरीब व्यक्ति और सामान्य उपभोक्ता को क्या मिला है? उसके लिए कुछ आशा बढ़ाने वाली योजनाएं दी गई? फिर मन में विचार आया कि इस बजट में नौजवानों के लिए ऐसा क्या है? मैंने सोचा मध्यम वर्ग को इनकम टैक्स में जितनी राहत दी गई है, आम उपभोग की वस्तुओं पर नित्य प्रतिदिन बढ़ी दरों के सामने वह ‘ऊंट के मुंह में जीरा होगी’ होम लोन और एजुकेशन लोन पर ब्याज की दरें भी घटाना वित्त मंत्री जी भूल गई हैं। शिक्षित बेरोजगार नौजवानों को बेरोजगारी भत्ते का भी बजट में कोई उल्लेख न देखकर मुझे निराशा हुई। एमएसपी को कानूनी दर्जा देने की मांग को मानना तो इस सरकार की नियत में है ही नहीं। थोड़ी मुझे झपकी जैसी आती महसूस हो रही थी कि मुझे दूर कुछ आवाज सुनाई दी। मैंने बहुत गौर से देखा तो उसमें विपक्ष के नेताओं के चेहरे जैसे उभर रहे थे और वह जोर-जोर से नारा लगा रहे थे ‘डाॅलर के मुकाबले रुपए का गिरना रोको-वरना गद्दी छोड़ दो, विदेशी कर्ज लेना छोड़ दो’ और वह बढ़ते हुए विदेशी कर्ज का सवाल उठाते दिखे। कोई एक व्यक्ति उसमें से जोर से दहाड़ करके कह रहा था, 2014 के मुकाबले यह विदेशी कर्ज पौने तीन गुना हो गया है और फिर लोग नारे लगा रहे हैं ‘शर्म करो-शर्म करो’। माननीय वित्त मंत्री जी ने वास्तव में उनकी शर्म की और अपना घुंघट उनकी तरफ को ओढ़ लिया। जैसा जेठ को देखते ही सनातनी महिला करती है। फिर होते-होते विकसित भारत की कल्पना में मुझे नींद ने अपने आगोश में ले लिया। रास्ते भर की थकान के कारण रात के सपने तो मुझे याद नहीं, मगर भोर में लगभग आधी निद्रा में देखा सपना मुझे जरूर याद है। जिसमें एक नौजवान जो हमारे मुख्यमंत्री जी जैसा दिखाई दे रहा था,
विकसित भारत जिंदाबाद, विकसित भारत जिंदाबाद का नारा लगाते-लगाते विकसित उत्तराखण्ड, विकसित उत्तराखण्ड-विकसित उत्तराखण्ड चिल्लाते हुए आगे को बढ़ रहा है। मगर उस नौजवान की पीठ और छाती पर दो लोगो लगे हैं जिनमें रुयूसीसी और यूसीसी लिखा है। जब मेरी आंख खुली तो अलसाया जैसा मैं सोचने लगा कि माननीय वित्त मंत्री जी के बजट प्रस्तावों में उत्तराखण्ड के लिए क्या है? बिहार की तर्ज पर यूसीसी पैकेज तो नहीं दे दिया? मैं फिर से पुराने अखबारों में विकसित भारत के साथ विकसित उत्तराखण्ड का रोड मैप ढूंढ़ने लगा, बहुत कोशिश करके भी मैं कुछ देख नहीं पाया। बहुत बार सर खुजलाया, फिर देखा। मगर विकसित भारत के नक्शे में उत्तराखण्ड की केवल छाया दिखाई दी। शायद प्रधानमंत्री जी ने यह मान लिया है कि रुयूसीसीऋबाॅय श्री पुष्कर धामी जी के साथ उत्तराखण्ड प्रसन्न है। उन्हें श्री चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार जी तो याद रहे, मगर अपने यूसीसी बाॅय और उत्तराखण्ड को भूल गए। ऐसा लगता है अपने बजट प्रस्तावों में माननीय वित्त मंत्री ने खिलौना प्रोत्साहन योजना की बात कही है, वह श्री धामी जी को ही ध्यान में रखकर कही गई है। ग्रीन बोनस व डिस्टेंस डिसएडवांटेज बोनस का तो बजट प्रस्तावों में कहीं उल्लेख ही नहीं है। देश में बन रहे दर्जनों एयरपोर्टों में मुझे कहीं भी चिनियालीसौड़, नैनी-सैनी, गौचर की हवाई पट्टी का विस्तारीकरण दिखाई नहीं दिया और अति महत्वाकांक्षी, राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी आवश्यक चैखुटिया डांग में प्रस्तावित हवाई अड्डे का भी कहीं उल्लेख दिखाई नहीं दिया। निराशा में मैं सुबह की चाय भूल कर बार-बार पानी पीने लगा। मगर बिहार के हवाई अड्डे चमाचम होंगे ऐसा दिखाई दिया। मैं बिहार के भाग्य की सराहना करने लगा और मैंने सोचा कि भई हवाई अड्डे भूल गए हैं। रेल विस्तार में उत्तराखण्ड राज्य के हाथ जरूर कुछ आया होगा। मुझे यहां भी निराश होना पड़ा, कहीं भी टनकपुर-बागेश्वर- जौलजीवी, गंगोत्री धाम तक पहुंचने वाली रेलवे लाईन, रामनगर-चैखुटिया -गैरसैंण रेलवे लाईन का कहीं भी कोई उल्लेख दिखाई नहीं दिया। मुझे बहुचर्चित श्री अनिल बलूनी उपवाचित कुमाऊं-गढ़वाल सीधी रेल लाईन भी नहीं दिखाई दी। सहारनपुर से विकासनगर, देहरादून को जोड़ने वाले लिंक का भी कोई उल्लेख नहीं दिखाई दिया। धामपुर-जसपुर-काशीपुर लिंक का भी कोई उल्लेख नहीं दिखाई दिया। यह सोचकर कि कहीं शायद गैरसैंण पैकेज दिखाई दे, मैं पानी पीते-पीते फिर से समाचार पत्र टटोलने लगा। मुझे फिर निराश होना पड़ा। राजधानी पैकेज तो छोड़िए, ग्रीष्मकालीन राजधानी पैकेज का भी कहीं कोई काॅलम दिखाई नहीं दिया। कुछ निराशा में, कुछ अखबार टटोलने और उन्हें पढ़ने में मैं थक सा गया। सोफे पर बैठे-बैठे मुझे फिर झपकी ने आ घेरा। निंद्रा में मुझे विकसित भारत – विकसित भारत, विकसित भारत के नारे लगाते हुए दसों चेहरे दिखाई दिए उनमें कुछ उत्तराखण्डी चेहरों में मुझे एक सजीला नौजवान जो हमारे मुख्यमंत्री जैसा दिखाई दे रहा था, सबसे अधिक उछल-उछल करके नारे लगाते हुए दिखाई दिए। फिर यह शोर कब विकसित उत्तराखण्ड-विकसित उत्तराखण्ड, विकसित उत्तराखण्ड के नारों में बदल गया, फिर मुझे गैरसैंण विधानसभा जैसी दिखाई दी। फिर एक मोटी सी पोथी लिए हुए एक दूसरा हट्टा-खट्टा नौजवान दिखाई दिया। उस नौजवान का चेहरा हमारे वित्त मंत्री जैसा लगा। मैं पहचाने की कोशिश ही कर रहा था, मेरी निंद्रा फिर से टूट गई। मैंने वाॅशरूम में जाकर मुंह धोया और चाय मंगाई, फिर चाय पीते-पीते मैं, विकसित उत्तराखण्ड के उल्लासमय कोलाहल का विश्लेषण करने लगा। मुझे स्मरण आया कि पिछले 8 वर्षों में 12 और नए भूतिया गांव उत्तराखण्ड के भूतिया गांवों की लिस्ट में जुड़ गए हैं। रोज पलायनित होता उत्तराखण्ड दिखाई दिया, पलायन तो 2002 से भी हुआ, लेकिन वह पलायन गांव से जिले या राज्य के अंदर स्थापित हो रहे विभिन्न उद्योगों वाले जिलों की तरफ था। मैंने सोचा कि यह पलायन तो स्वीकार्य है। फिर जब मैंने सर खुजलाया तो मुझे एक रिपोर्ट का स्मरण आया कि 2020 के बाद अब उत्तराखण्ड से दूसरे राज्यों में हो रहे पलायन की गति में भारी वृद्धि हो रही है। अब लोग गांव से शहर तो आ रहे हैं, मगर शहर में भी शहर से डगर कई दिन भटकने के बाद दिल्ली और देश के दूसरे नगरों की ओर पलायन हो रहे हैं, यह सक्षम पलायन नहीं है। यह तो बेबसी का पलायन है। मजबूर लोग पेट की भूख के लिए राज्य से बाहर जा रहे हैं। करें तो करें भी क्या? फौज में भर्ती का एक सहारा था, केंद्र की अग्निपथ योजना ने उसे भी छीन लिया। राज्य में नौकरी बाद में लग रही है, घोटाले पहले हो जा रहे हैं।

मेरा मन कहता है कि इस बार राज्य के वित्त मंत्री की पोटली से इस समस्या के तत्कालीन और दीर्घकालिक निदान के लिए कुछ योजनाएं जरूर निकलेंगी। राज्य के संतुलित विकास के लिए यह आवश्यक है। निराशा, राज्य के लिए घातक होने जा रही है। मैंने अपने सर को झटका, पलायन के दर्द को मैंने कुछ भुलाने की कोशिश की तो तब तक मुझे नौजवानों के बुझे-बुझे, निराश से चेहरे स्मरण आने लगे। मैं यहां से जितना भी ध्यान हटाने का प्रयास कर रहा था, मुझे उनके गुस्से, तमतमाए हुए चेहरों और ‘नौकरी दो-नौकरी दो, वरना राजनीति छोड़ दो’ के नारे लगाते हुए स्वर याद आने लगे तो मैं उन नौजवानों के भविष्य के विषय में सोचने लगा जिन्हें हम उपनल कर्मी और अतिथि शिक्षक कहते हैं। हमने 2016 में एक समाधान निकाला था जो इन दोनों संगठनों के तत्कालीन नेतृत्व ने स्वीकार नहीं किया। अब गंगा-जमुना में काफी पानी बह चुका है। इस चुनौती का भी समाधान और अधिक नहीं टाला जा सकता है। मैंने मन ही मन बुदबुदाया कि दोस्तो तुमने मुझे तीन साल का समय दिया, मैंने 32000 लोगों को सरकारी नौकरी से जोड़ा। हम तो अस्थाई तौर पर नौकरियों पर लगे हुए लोगों की समस्या का समाधान करके गए, मगर अतिथि शिक्षक और उपनल पर लगे हुए लोगों ने हम पर विश्वास नहीं किया। फिर मुझे स्मरण आया कि हमारी सरकार 18000 पदों के अध्याचन की प्रक्रिया प्रारम्भ करके गई, सरकार दर सरकार, मुख्यमंत्री के बाद मुख्यमंत्री आए, मगर 8 साल बाद भी सब इसी 18000 अध्याचित पदों में उलझे हुए हैं।
इधर मैंने देखा कुछ पत्रकार खामखां प्रेमचंद्र जी को उकसा रहे हैं और उनसे राज्य पर बढ़ते हुए कर्ज जो वर्ष 2016-17 के मुकाबले आज लगभग तीन गुना हो गया है और आय के श्रोतों को लेकर सवाल कर रहे हैं। अरे यह क्या प्रेमचंद्र जी ने पेपर वेट हाथ में ले लिया और वह हाथ के अन्दर मुठ्ठी में पेपर वेट को गोल-गोल घुमा रहे हैं। शायद भाव-भंगिमा देख कर प्रश्न करने वाले पत्रकार महोदय ने इसी में अपनी खैरियत समझी कि चुप्पी साध जाएं। समस्त राज्य की नगरीय व्यवस्था उत्तराखण्ड के कुछ हिस्सों और राज्य के बाहर से आने वाली बड़ी आवकों के कारण दिन प्रतिदिन जटिल होती जा रही हैं। एक असंतुलित विकास राज्य के उत्साह का गला घोंट रहा है। मैं सोचने लगा कि पिछले कई वर्षों से राज्य पर कैपिटा इनकम लगभग 2017 के कैपिटा इनकम के आस-पास भटक रही है। चिकित्सा व्यवस्था भी शीघ्र उपचार चाहती है और समग्र उपचार चाहती है। राजकीय शिक्षण संस्थाएं रुग्ण दर रुग्ण होती जा रही हैं। माननीय वित्त मंत्री जी को इस जटिलतर होती हुई समस्या का अपनी पोटली से इलाज निकालना पड़ेगा। राज्य के कई शहरीय क्षेत्र जोशीमठ जैसी समस्या के शिकार रहे हैं। 431 गांव जिन्हें भूस्खलन के कारण खतरे में बताया गया है उनका विस्थापन भी एक बड़ी चुनौती है तो यूं वित्त मंत्री जी के सामने खड़े ज्वलंत सवालों पर सोचते-सोचते मेरी चाय ठंडी हो गई तो मैंने सोचा कि मुख्यमंत्री जी की ही तरह श्री प्रेमचंद अग्रवाल जी को भी विकसित भारत-विकसित भारत और यूसीसी-यूसीसी चिल्लाते रहना चाहिए, समस्याओं का समाधान आगे आने वालों पर छोड़ देना चाहिए। शेष बजट सत्र के दौरान।
(यह लेखक के अपने विचार हैं।)

