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‘श्मशान अमेरिका’ में असुरक्षित अल्पसंख्यक

अमेरिकी उपराष्ट्रपति जे.डी. वेंस भारतीय मूल की छात्रा
मिसिसिपी यूनिवर्सिटी में उपराष्ट्रपति जे.डी. वेंस से भारतीय-मूल की एक छात्रा के साहसिक सवाल ने पूरे अमेरिका में हलचल मचा दी है। छात्रा ने पूछा कि ‘‘हम कानूनी प्रवासी हैं, हमने इस देश को सपनों और मेहनत से चुना, फिर आज हमें ही क्यों बताया जा रहा है कि हम ज्यादा हो गए?’’ यह बहस केवल इमीग्रेशन तक सीमित नहीं रही। इसमें धर्म और नस्ल का संवेदनशील सवाल भी जुड़ गया कि ‘‘क्या अमेरिका से प्यार का प्रमाण देने के लिए ईसाई होना जरूरी है?’’ इसी बीच पिछले कुछ वर्षों में हेट-क्राइम और नस्ली हिंसा के बढ़ते आंकड़े यह संकेत दे रहे हैं कि बहुसांस्कृतिक समाज की आत्मा पर दबाव बढ़ रहा है। मुस्लिमों, अफ्रीकी-मूल अमेरिकियों, एशियाई-अमेरिकियों के बाद अब हिंदू-अमेरिकी भी खुलेआम निशाने पर आने लगे हैं

अमेरिका इस समय एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जहां प्रवासन, धर्म और नस्ल के सवाल राजनीति की धुरी बन गए हैं। मिसिसिपी यूनिवर्सिटी के एक कार्यक्रम में उपराष्ट्रपति जे.डी. वेंस से एक भारतीय मूल की छात्रा ने जिस बेबाकी से सवाल पूछे उसने देशभर में चर्चा की नई लहर पैदा कर दी है। कार्यक्रम ‘टर्निंग पाॅइंट यूएसए’ का था, पर वहां जो हुआ उसने विश्वविद्यालय की सीमाओं को पार करते हुए अमेरिका के दिल तक दस्तक दे डाली है। कार्यक्रम के दौरान यह छात्रा खड़ी हुई और विनम्र लेकिन ठोस आवाज में बोली- ‘‘आपकी पत्नी हिंदू पृष्ठभूमि से हैं, आपके बच्चे इंटरफेथ परिवार में पले-बढ़े रहे हैं। आप उन्हें कैसे सिखाते हैं कि आपके धर्म को उनकी मां के धर्म से ऊपर न रखें?’’ यह प्रश्न केवल निजी जीवन का नहीं था, बल्कि इस बात की पड़ताल भी थी कि अमेरिका में आज धर्म और पहचान कितनी प्रमुख बहस बन चुके हैं। इसके बाद छात्रा ने असल राजनीतिक तीर चलायाµ ‘‘हम कानूनी प्रवासी हैं। आपने हमें बताया कि अमेरिका अवसरों की भूमि है, सपने सच होते हैं। हमने पढ़ाई में पैसा लगाया, करियर बनाया, टैक्स दिया, यहां की अर्थव्यवस्था में योगदान दिया… तो अब आप क्यों कह रहे हैं कि बहुत ज्यादा इमीग्रेंट्स आ गए हैं? कब तय हुआ कि ‘अब और नहीं’?’’ इसने उस मूल चोट को उजागर किया जो आज लाखों भारतीय-अमेरिकियों और अन्य प्रवासी समुदायों के दिल में है। सपना बेचकर अगर सीमा खींची जाए तो निराशा गहरी होती है।

छात्रा का वह सवाल जो सबसे अधिक चर्चा में है, वह था- ‘‘क्या इस देश से प्यार करने की शर्त ईसाई होना है?’’ यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हाल के महीनों में वेंस ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि वे चाहते हैं कि उनकी पत्नी भविष्य में ईसाई मार्ग अपनाए और बच्चों को ईसाई परम्परा में पाला जा रहा है। यह निजी निर्णय है, लेकिन जब इसे सार्वजनिक मंच से दोहराया जाता है तो वह राजनीतिक संकेत भी बन जाता है। अमेरिकी पहचान क्या है? क्या उसमें धर्म की एक अनकही सीढ़ी बन रही है? यह प्रश्न सिर्फ भारतीय-अमेरिकियों का नहीं, बल्कि मुसलमानों, सिखों, यहूदियों और अन्य समुदायों का भी है। यह बहस हवा में नहीं उठी। पिछले कुछ वर्षों के वास्तविक घटनाक्रमों ने प्रवासी समुदायों के मन में चिंता पैदा की है। 2020 के बाद नस्ली तनाव चरम पर दिखा। जाॅर्ज फ्लाॅयड केस और उसके बाद की घटनाओं ने अमेरिका को हिला दिया। कई आंकड़ों ने दिखाया कि ब्लैक समुदाय के खिलाफ हिंसा में तेज उछाल आया। यह केवल पुलिस हिंसा नहीं थी, आम नागरिकों द्वारा किए गए नस्ली अपराध भी सुर्खियों में आए। कोविड काल में ‘एशियन हेट’ ने एक घातक रूप लिया। दादी-नानी उम्र की महिलाओं पर सड़क पर हमला, दुकानों पर तोड़-फोड़ और सार्वजनिक स्थानों पर अपमान की घटनाएं आम हुईं। कई रिपोर्टों में कहा गया कि 50 प्रतिशत से अधिक एशियाई मूल अमेरिकी किसी न किसी रूप में नफरत या हिंसा का अनुभव कर चुके हैं। 9/11 के बाद जो माहौल बना था, वह कुछ समय तक शांत हो गया था, लेकिन फिर वैश्विक राजनीति और अंदरूनी बयानबाजी के माहौल में इस्लामोफोबिया दोबारा उभरता दिखाई दिया। मुस्लिम छात्रों, महिलाओं और पेशेवरों ने नफरत और भेदभाव की घटनाओं में बढ़ोतरी की शिकायत की।
लम्बे समय तक ऐसा माना जाता था कि हिंदू-अमेरिकी समुदाय हेट-क्राइम से अपेक्षाकृत बचा रहा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में तस्वीर बदलने लगी है। कैलिफोर्निया से न्यू जर्सी तक मंदिरों पर हमले हुए, दीवाली सजावट पर आपत्तिजनक टिप्पणियां की गईं, सोशल मीडिया पर ‘H-1B invader’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल बढ़ा, हिंदू पहचान रखने वाले लोगों को कहा गया- ‘‘अमेरिका छोड़ो’’, केंटकी के स्वामीनारायण मंदिर पर केवल जीजस ही अकेले भगवान हैं। ‘Jesus is the only God’ लिखे जाने की घटना ने पूरे समुदाय को झकझोर दिया था। फ्लोरिडा, न्यूयाॅर्क और टेक्सास से भी ऐसे मामले आए जहां हिंदू प्रतीकों और पूजा स्थलों को निशाना बनाया गया। इन घटनाओं ने स्पष्ट किया कि नफरत केवल एक समुदाय तक सीमित नहीं रहती, वह फैलती है और कमजोर होते संस्थानों के बीच वह हर नए समूह को शिकार बनाती है।
कई विश्लेषकों का मानना है कि ‘‘अमेरिका को दोबारा महान बनना है।’’ ‘Make America Great Again’ का नारा शुरू में राष्ट्रवाद की भावना जगाने के लिए था, लेकिन समय के साथ कई कट्टर समूहों ने इसे नस्ली शुद्धता और धार्मिक वर्चस्व के प्रतीक में बदल दिया।
सोशल मीडिया और राजनीतिक
ध्रुवीकरण ने आग में घी का काम किया। अमेरिकी मूल के श्वेत राष्ट्रवादी समूह खुले तौर पर कहते हैं कि ‘अमेरिका का चरित्र बदल रहा है’’ और वे इसे रोकना चाहते हैं। कई बार इन बातों का निशाना प्रवासी समुदाय ही बनता है। इस पूरे परिदृश्य में एक दिलचस्प और कठिन प्रश्न यह भी उठता है कि जब भारत में अल्पसंख्यकों पर सवाल उठते हैं, तो क्या हिंदू-अमेरिकियों की आवाज उतनी मुखर होती है जितनी वे अमेरिका में अपने अधिकारों के लिए होती है? कई मानवाधिकार संगठन कहते हैं कि अमेरिका में न्याय की मांग करने वाले प्रवासी, भारत में मानवाधिकार के मुद्दों पर चुप क्यों रहते हैं? यह नैतिक प्रश्न बहस का हिस्सा है और आने वाले वर्षों में और तीखा हो सकता है।
कानूनी प्रवासी आज एक नए प्रकार के तनाव में हैं। वीजा नियम, बैकलाॅग, नीतिगत अनिश्चितता और राजनीतिक बयानबाजी- ये सब मिलकर उनकी मानसिक शांति पर असर डालते हैं। भारतीय-अमेरिकी परिवार, जिनका बड़ा हिस्सा पढ़ा-लिखा और कानून मानने वाला है, पूछ रहा है, ‘‘हमने अपनी जवानी, पैसा और मेहनत यहां लगाई। हमारे बच्चे यहां पैदा हुए। फिर भी हमें बताने की कोशिश क्यों हो रही है कि हम ‘बहुत ज्यादा’ हो गए?’’ विशेषज्ञ कहते हैं कि अमेरिका को अपनी ताकत, विविधता और लोकतांत्रिक मूल्यों  की तरफ लौटना होगा। इमीग्रेशन नीति स्पष्ट और सम्मानजनक हो, धार्मिक-नस्ली अल्पसंख्यकों को सुरक्षा आश्वासन मिले, हेट-क्राइम के मामलों में त्वरित कार्रवाई हो, राजनीतिक भाषा में संवेदनशीलता और संयम हो, शिक्षा और मीडिया पर नागरिक सहभागिता को बढ़ावा मिले, लोकतंत्र केवल कानून से नहीं, संस्कृति और संवेदनशीलता से चलता है। जब नागरिक डर में जीते हैं, लोकतंत्र कमजोर होता है।
अंत में मिसिसिपी यूनिवर्सिटी में पूछे गए सवाल केवल एक छात्रा की हिम्मत नहीं थे, वह सवाल प्रवासी भारतवंशियों, अफ्रीकी-अमेरिकियों, मुस्लिमों, एशियाई-अमेरिकियों और उन सभी आवाजों का प्रतिनिधित्व थे जो महसूस कर रहे हैं कि अमेरिका का सपना कहीं पहचान की राजनीति में खो न जाए। वह आवाज कह रही थी, ‘‘हमने इस देश को अपनाया, अब यह देश भी हमें पूरी तरह अपनाए।’’ अमेरिका का भविष्य इसी सवाल के जवाब में छिपा है कि क्या वह विविधता से डरकर सिमटेगा या उसे गले लगाकर आगे बढ़ेगा।

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