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सत्ता बदली, चरित्र बदलना बाकी है

नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री (बाएं से) पुष्पकमल दहल, शेर बहादुर देउबा, केपी ओली शर्मा और माधव कुमार नेपाल
नेपाल का लोकतंत्र आज एक नाजुक मोड़ पर है। अगर यह अंतरिम सरकार केवल समय काटने वाली सरकार बनकर रह गई तो युवाओं का भरोसा टूट जाएगा और 2025 का विद्रोह सिफज् एक श्क्षणिक राहत्य की घटना बनकर रह जाएगा। लेकिन अगर सुशीला काकीज् अपनी पहचान न्यायिक सख्ती और नैतिक दृढ़ता से जोड़कर सत्ता तंत्र को साफ करने में सफल होती हैं तो यह नेपाल के लिए एक स्थायी मोड़ साबित हो सकता है


नेपाल में सत्ता तो बार-बार बदलती रही है लेकिन सवाल यह है कि क्या सत्ता का चरित्र भी बदला है। यह प्रश्न आज पहले से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि हाल के महीनों में जो घटनाएं नेपाल में घटित हुईं, उन्होंने यह साफ कर दिया कि केवल राजनीतिक चेहरे बदलने से शासन का स्वरूप नहीं बदलता। नया संविधान, नई सरकारें और नए गठबंधन आने के बावजूद प्रशासनिक व्यवहार, निर्णय-प्रक्रिया और जवाबदेही का ढांचा वही पुराना बना हुआ है। यही कारण है कि ‘नए नेपाल’ की अवधारणा बार-बार उभरती है, पर उतनी ही बार ढह भी जाती है। लोग कहते हैं सत्ता बदली है पर सत्ता का चरित्र वैसा ही क्यों रहा? यही वह केंद्रीय प्रश्न है जिस पर नेपाल की राजनीति, युवाशक्ति और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की निगाहें टिकी हैं।

वषज् 1990 के दशक में जब राजशाही विरोधी आंदोलन ने लोकतंत्र की नींव रखी थी तब जनता को लगा था कि एक नई सुबह आई है। 2006 के जनआंदोलन ने उस उम्मीद को फिर जगा दिया, माओवादी आंदोलन का समावेश हुआ, राजा की सत्ता खत्म हुई, गणराज्य की घोषणा हुई पर कुछ ही वर्षों में यह स्पष्ट हो गया कि सत्ता का ढांचा ऊपर से भले ही बदला लेकिन उसके भीतर का व्यवहार वही पुराना रहा। शासन अब जनता के नाम पर था पर जनता तक नहीं पहुंचा। दलगत राजनीति, गुटबाजी, भ्रष्टाचार और सत्ता-संरक्षण की संस्कृति ने लोकतंत्र को धीरे-धीरे खोखला बना दिया। संविधान 2015 में आया तो उम्मीद जगी कि विकेंद्रीकरण से जनता को अधिकार मिलेंगे, मगर व्यवहार में हुआ यह कि केंद्र ने सब कुछ नियंत्रित रखना जारी रखा। राजनीति में अस्थिरता ने इसे और गहरा किया। 2008 से 2025 तक नेपाल में लगभग बारह प्रधानमंत्री बदले। हर सरकार अपने कार्यकाल में पिछली नीतियों को रद्द करती और नई योजनाएं बनाती, लेकिन कोई भी योजना अंत तक नहीं पहुंच पाती। जनता के लिए यह सिलसिला थकाऊ बन गया, एक सरकार जाती, दूसरी आती, पर जीवन में कुछ नहीं बदलता। यही वह निराशा थी जिसने 2025 में युवाओं के नेतृत्व वाले जनविरोध को जन्म दिया।

सोशल मीडिया पर सरकार द्वारा लगाई गई पाबंदी चिंगारी साबित हुई। कुछ ही दिनों में #NayaNepal और #FreeInternet जैसे हैशटैग पूरे देश में विरोध का प्रतीक बन गए। प्रदर्शन सड़कों से होते हुए सरकारी इमारतों तक पहुंचे। पुलिस-बल और प्रदर्शनकारियों में हिंसक झड़पें हुईं, कई लोग घायल हुए, और अंततरू प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। देश एक बार फिर अस्थिरता के दौर में पहुंचा। लेकिन इस बार फकज् यह था कि आंदोलन किसी राजनीतिक दल का नहीं, बल्कि एक पूरी पीढ़ी का था, वह पीढ़ी जो डिजिटल युग में पली-बढ़ी है और जो अब पुरानी राजनीति की भाषा नहीं बोलती।

यही वह समय था जब राष्ट्रपति ने न्यायपालिका की पूर्व प्रमुख सुशीला काकीज् को अंतरिम प्रधानमंत्री नियुक्त किया। उनकी छवि एक सख्त और ईमानदार न्यायाधीश की रही है जिन्होंने अपने कार्यकाल में कई भ्रष्टाचार मामलों को बेबाकी से उठाया था। इसलिए उनकी नियुक्ति से देश में उम्मीद की लहर दौड़ी। यह लगा कि शायद अब कोई ऐसा नेतृत्व आया है जो नैतिकता और संवैधानिकता को साथ लेकर चलेगा लेकिन कुछ ही हफ्तों में यह भी साफ हो गया कि यह उम्मीद आसान नहीं थी।

कार्की सरकार ने शुरुआत में तीन बड़े कदम उठाए। पहला, सोशल- मीडिया पर लगे प्रतिबंधों को हटाया गया। दूसरा एक अंतरिम कैबिनेट गठित कर प्रशासनिक रिक्तता को भरा गया और तीसरा छह महीने में चुनाव कराने की घोषणा की गई। ये कदम तत्काल राहत के रूप में जरूरी हैं पर युवाओं के लिए यह पर्याप्त नहीं हैं क्योंकि उनका विद्रोह केवल इंटरनेट या अभिव्यक्ति की आजादी के लिए नहीं था बल्कि उस शासन-संस्कृति के खिलाफ था जिसने वर्षों से भ्रष्टाचार, पक्षपात और जवाबदेही हीनता को जन्म दिया।

Reuters, Al Jazeera और Guardian जैसी रिपोर्टों में यह सामने आया कि हिंसा थमने के बावजूद सरकार अब भी असहज स्थिति में है। जांच आयोगों का गठन तो हुआ, पर अभी तक किसी बड़े भ्रष्टाचार मामले में औपचारिक अभियोग या कारज्वाई की खबर नहीं आई। युवाओं ने मांग की थी कि जिन पूर्व मंत्रियों और अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप हैं, उन्हें सार्वजनिक जांच का सामना करना चाहिए, लेकिन सरकार इस दिशा में निर्णायक कदम नहीं उठा पाई है। यही कारण है कि जहां ‘नया भोर’ का सपना फिर धुंधलाने लगता है।

नेपाल की नई पीढ़ी का सबसे बड़ा डर यही है कि उनका विद्रोह कहीं ‘एक और व्यर्थ क्रांति’ न हो। उन्हें डर है कि जिन मूल्यों के लिए उन्होंने सड़कों पर उतरकर सरकार को झुकाया, वे कुछ महीनों में फिर
राजनीतिक सौदों की भेंट न चढ़ जाएं और यह डर व्यर्थ नहीं है। देश के पुराने सत्ता-नेटवर्क अब भी सक्रिय हैं। कई वरिष्ठ राजनेता और ब्यूरोक्रेट जो पहले सत्ता में थे, वे अब परदे के पीछे से निर्णयों को प्रभावित कर रहे हैं। यही कारण है कि काकीज् की सरकार, जो नैतिकता की उम्मीद के साथ शुरू हुई थी अब व्यावहारिकता की दीवारों में फंसी नजर आ रही है।

कार्की का व्यक्तित्व साफ-सुथरा है लेकिन शासन किसी व्यक्ति की नीयत से नहीं चलता, बल्कि संस्थानों की मजबूती से चलता है। नेपाल के संस्थान, चाहे न्यायपालिका हो, लोक लेखा आयोग हो या प्रशासनिक ढांचा, दशकों से राजनीतिक हस्तक्षेप के आदी रहे हैं। इस व्यवस्था में अकेली ईमानदारी पर्याप्त नहीं। सुशीला काकीज् को न केवल भ्रष्टाचार पर चोट करनी होगी बल्कि उस तंत्र को भी बदलना होगा जो भ्रष्टाचार को जन्म देता है और यही सबसे कठिन हिस्सा है।

अब तक के संकेत मिश्रित हैं। सरकार ने युवाओं की चिंताओं को सुना जरूर है पर उनकी भागीदारी को औपचारिक रूप नहीं दिया। युवाओं की यह भी मांग थी कि उन्हें नीति-निर्माण की प्रक्रिया में शामिल किया जाए, कोई युवा परामर्श समिति बनाई जाए या उन्हें आगामी चुनाव की तैयारियों में प्रतिनिधित्व मिले लेकिन इन मोर्चों पर सरकार अब तक चुप है। यही कारण है कि आंदोलन की ऊर्जा ठंडी होने लगी है और जनता फिर से संशय में है।

कई विश्लेषकों का मानना है कि अगले तीन से छह महीने नेपाल के भविष्य के लिए निर्णायक होंगे। अगर इस अवधि में सरकार भ्रष्टाचार विरोधी मामलों में ठोस प्रगति नहीं दिखा पाई, न्यायालयों में लम्बित मुकदमों की सुनवाई तेज नहीं हुई, युवाओं को राजनीतिक मंच पर आवाज नहीं मिली तो यह विद्रोह इतिहास की फाइलों में दर्ज एक और अधूरा अध्याय बन जाएगा।

नेपाल की जनता अब केवल नारों से नहीं परिणामों में भरोसा करती है। इसलिए कार्की सरकार को प्रतीकात्मक नहीं, वास्तविक सुधार दिखाने होंगे। पहला काम होना चाहिए एक स्वतंत्र और पारदर्शी जांच आयोग का गठन, जिसकी रिपोर्ट जनता के सामने खुले रूप में पेश की जाए और जिसकी सिफारिशें बाध्यकारी हों। दूसरा युवाओं के लिए एक औपचारिक मंच का निर्माण, जहां वे नीति निर्णयों में सक्रिय भूमिका निभा सकें। तीसरा मीडिया और सोशल मीडिया की स्वतंत्रता को संवैधानिक सुरक्षा देना ताकि आने वाले चुनाव निष्पक्ष माहौल में हो सकें।

नेपाल का लोकतंत्र आज एक नाजुक मोड़ पर है। अगर यह अंतरिम सरकार केवल समय काटने वाली सरकार बनकर रह गई तो युवाओं का भरोसा टूट जाएगा और 2025 का विद्रोह सिर्फ एक श्क्षणिक राहत्य की घटना बनकर रह जाएगा। लेकिन अगर सुशीला कार्की अपनी पहचान न्यायिक सख्ती और नैतिक दृढ़ता से जोड़कर सत्ता-तंत्र को साफ करने में सफल होती हैं तो यह नेपाल के लिए एक स्थायी मोड़ साबित हो सकता है।

सत्ता का असली परिवर्तन तब होगा जब संस्थाएं व्यक्ति-केंद्रित नहीं, संविधान-केंद्रित बनें। नेपाल के युवाओं ने दिखा दिया कि वे लोकतंत्र को बचाने के लिए सड़क पर उतर सकते हैं। अब सरकार की परीक्षा है कि वह उस ऊजाज् को सकारात्मक दिशा दे सके। अगर यह सरकार युवाओं की आकांक्षाओं को समझ पाए, भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्रवाई करे और चुनाव को पारदर्शी बनाए तो ‘नया नेपाल’ केवल एक नारा नहीं, एक वास्तविकता बन सकता है। लेकिन अगर फिर वही पुरानी राजनीति लौट आई तो यह एक और झूठा भोर होगा, एक और सुबह जो रोशनी देने से पहले ही अंधेरे में डूब जाती है।

नेपाल के इस संक्रमण काल में यह प्रश्न उठ रहा है कि सत्ता बदली है, पर क्या चरित्र बदला? जवाब अभी अधूरा है पर उम्मीद जिंदा है। उम्मीद जब जनता से जन्म लेती है तो कोई भी सत्ता हमेशा के लिए स्थिर नहीं रह सकती।

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