कांग्रेस नेता शशि थरूर
बिहार चुनावों की गर्मी के ठीक मध्य कांग्रेस नेता शशि थरूर ने वंशवाद को लोकतंत्र के लिए खतरा बता गांधी परिवार पर प्रहार कर भाजपा को गद्गद् करने का काम किया। उन्होंने भाजपा के वंशवाद पर चुप्पी बरती, आडवाणी की तुलना नेहरू से कर दी और ऐसा वक्त चुना जब उनके हर शब्द को दो तरह से पढ़ा जा रहा है, क्या वे कांग्रेस को सुधार रहे हैं या उसके बाहर अपने लिए कोई रास्ता खुला छोड़ रहे हैं


भारतीय राजनीति में कुछ नेता ऐसे होते हैं जो केवल बोलते नहीं बल्कि अपने हर वाक्य से एक संकेत छोड़ते हैं। शशि थरूर उन्हीं नेताओं में शामिल हैं। उनके शब्द अक्सर वैचारिक बहस का फ्रेम तैयार करते हैं लेकिन उसी वक्त उनकी टाइमिंग यह भी बताती है कि यह बहस केवल विचारों की नहीं, राजनीतिक पैंतरेबाजजी भी है। यही कारण है कि बिहार चुनाव से ठीक पहले उन्होंने वंशवाद पर लिखा और सीधे गांधी-नेहरू परिवार का नाम लेकर कांग्रेस के नेतृत्व पर सवाल उठाए। यह बात अपने आप में नई नहीं लेकिन इसका समय, इसकी भाषा और इसका निष्कर्ष उन्हें एक साधारण असंतुष्ट नेता से अलग करके सामने रखता है। उनके लेख ने कांग्रेस खेमे में बेचैनी और भाजपा में संतोष पैदा किया क्योंकि भाजपा को वंशवाद की बहस हमेशा अपने विरोधी दलों के खिलाफ एक हथियार के रूप में मिल जाती है। विशेषकर तब जब यह हथियार कांग्रेस का ही एक वरिष्ठ सांसद उठा ले तो इसकी राजनीतिक गूंज अलग हो जाती है।

इस बहस को समझने से पहले थरूर की यात्रा को समझना जरूरी है। 1956 में जन्मे, दिल्ली के सेंट स्टीफेंस में पढ़े, टफ्ट्स यूनिवर्सिटी के फ्लेचर स्कूल से मात्र 22 साल की उम्र में पीएचडी पूरी करने वाले थरूर की  असाधारण शैक्षणिक पृष्ठभूमि उन्हें सीधे अंतरराष्ट्रीय नौकरशाही में ले गई। 1978 में संयुक्त राष्ट्र में नियुक्ति, शरणार्थी विभाग से लेकर जन-सूचना और शांतिरक्षा तक विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्व और फिर संयुक्त राष्ट्र के अंडर-सेक्रेटरी-जनरल बनकर संगठन के शीर्ष प्रशासनिक ढांचे में पहुंचना, यह करियर किसी राजनीतिक कृपा का परिणाम नहीं बल्कि कठोर प्रतिस्पर्धा और योग्यता का नमूना था। 2006 में वे संयुक्त राष्ट्र महासचिव पद की दौड़ में भारत के उम्मीदवार बने, अंतिम राउंड तक पहुंचे और विश्व राजनीति में भारत के प्रतिनिधि के रूप में एक अलग पहचान स्थापित की। यह अंतरराष्ट्रीय सेवा उनके व्यक्तित्व और सार्वजनिक छवि की रीढ़ है।

2007 में संयुक्त राष्ट्र छोड़ने के बाद वे भारतीय राजनीति में आए और 2009 में कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा पहुंचे। मनमोहन सिंह सरकार में विदेश राज्य मंत्री बने। उनकी संवाद शैली ने उन्हें देश का पहला ‘ट्विटर मिनिस्टर’ बना दिया। संयुक्त राष्ट्र रिटर्न, अंतरराष्ट्रीय अभिजात्य और शहरी-उदार इमेज, पर राजनीति का रास्ता हमेशा सीधा नहीं होता। 2010 में आईपीएल-कोच्चि से जुड़े विवाद के चलते उन्हें मंत्री पद छोड़ना पड़ा। 2012-14 में वे फिर केंद्र सरकार में मंत्री बने। चार बार तिरुवनंतपुरम से संसद पहुंचे और आज भी कांग्रेस के सबसे चर्चित, शिक्षित और वैश्विक सोच वाले नेताओं में गिने जाते हैं।

2014 में उनकी पत्नी सुनंदा पुष्कर की मौत ने उनके जीवन को राष्ट्रीय भूचाल बना दिया। होटल के कमरे में मिली सुनंदा पुष्कर की मृत देह, शुरुआती जांचें, पुलिस की कार्रवाई, मीडिया की अटकलें, और भाजपा द्वारा लगातार लगाए गए आरोप, इस घटना ने थरूर के राजनीतिक सफर को हिला दिया। कुछ भाजपा नेताओं ने यह तक कहा कि मामला संदिग्ध है, कई ने बेहद अपमानजनक बातें कही और 2012 में प्रधानमंत्री मोदी ने चुनावी मंच से थरूर पर कटाक्ष करते हुए सुनंदा को लेकर विवादित टिप्पणी 150 करोड़ की गर्लफ्रेंड कह कर की।। 2021 में अदालत ने थरूर को डिस्चार्ज कर दिया और मामला कानूनी रूप से उनके खिलाफ नहीं रहा। पर राजनीति में हर आरोप का एक लम्बा साया होता है और वही साया आज भी थरूर की हर टिप्पणी को संदर्भित करता है। जब वे भाजपा पर कम और अपनी ही पार्टी पर ज्यादा हमला करते हैं तो प्रश्न उठता है कि जिन लोगों ने आपके सबसे निजी दुख को राजनीतिक हथियार बनाया, आज उनके राजनीतिक ढांचों पर आपकी आवाज उतनी प्रखर क्यों नहीं?

इस सबके बीच वंशवाद पर उनका नया हमला सामने आया है। उनका कहना है कि भारत की राजनीति में नेतृत्व जन्मसिद्ध अधिकार नहीं होना चाहिए और योग्यता को सर्वोपरि माना जाना चाहिए। यह बात सिद्धांततः बिल्कुल सही है। पर यह तभी पूर्ण सत्य बनती है जब इसका दायरा केवल एक परिवार या एक पार्टी तक सीमित न हो क्योंकि भाजपा में भी वंशवाद की पूरी फसल खड़ी है। राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह, सुषमा स्वराज की बेटी बांसुरी स्वराज, ब्रिजभूषण शरण सिंह के बेटे करन भूषण सिंह, वसुंधरा राजे के पुत्र दुष्यंत सिंह, यदुरप्पा के पुत्र बी.वाई. राघवेंद्र, रामनाथ शिंदे के पुत्र श्रीकांत शिंदे, प्रमोद महाजन की पुत्री पूनम महाजन इत्यादि सूची लम्बी है। पर थरूर इन उदाहरणों को उतनी निर्ममता से नहीं छूते जितनी गांधी परिवार को। यही उनके सिद्धांत को राजनीतिक पैंतरेबाजी साबित करता है।

अब इस बहस में एक नया अध्याय जुड़ता है, थरूर का हालिया बयान जिसमें उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की तुलना पंडित जवाहरलाल नेहरू से कर दी। यह तुलना महज एक प्रशंसा नहीं है, यह एक राजनीतिक संकेत है। अडवाणी और नेहरू, दो भिन्न विचारधाराएं, दो राजनीतिक संस्कृतियां। उन्हें एक तराजू में रखकर थरूर क्या कहना चाह रहे हैं? इसे तीन हिस्सों में समझिए, पहला, थरूर यह दिखाते हैं कि वे केवल कांग्रेस के नेता नहीं बल्कि भारतीय इतिहास और राजनीति को संतुलित दृष्टि से देखने वाले विद्वान हैं। दूसरा, यह तुलना भाजपा में बैठे लोगों के लिए एक साॅफ्ट मैसेज है कि थरूर कांग्रेस के आंतरिक आलोचक हैं पर भाजपा के वैचारिक आइकाॅन के प्रति सम्मान रखते हैं। तीसरा, यह कांग्रेस नेतृत्व को भी एक चेतावनी है कि थरूर केवल पार्टी-लाइन में बंधे नेता नहीं हैं। कांग्रेस उनसे उम्मीद करे कि वे केवल एक तरफा हमले करें, यह सम्भव नहीं।

यही वह बिंदु है जहां सबसे बड़ा सवाल उठता है कि क्या शशि थरूर मौका तलाश रहे हैं? क्या वे कांग्रेस को सुधारने के लिए लड़ रहे हैं, या यह लड़ाई वास्तव में उनके राजनीतिक भविष्य को मजबूत करने की चतुराई भरी पहल है? क्या वे उस स्थिति में खुद को ला रहे हैं कि कांग्रेस या तो उन्हें सुने, या बाहर कर दे? अगर कांग्रेस उन्हें निकालती है तो थरूर तुरंत राष्ट्रीय स्तर पर ‘आंतरिक लोकतंत्र का शहीद’ बन जाएंगे, एक ऐसी छवि जो शहरी शिक्षा-प्राप्त, सिस्टम से असंतुष्ट युवाओं और उदार-मध्यवर्ग में उन्हें भारी सहानुभूति दिलाएगी। अगर वे खुद बाहर जाते हैं तब भाजपा उन्हें खुले हाथों से स्वागत कर सकती है क्योंकि भाजपा को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी छवि सुधारने के लिए थरूर जैसे ‘लिबरल, क्लासिकल’ चेहरे की जरूरत हो सकती है। भाजपा के भीतर एक ऐसा चेहरा जो उसे एक साॅफ्ट, बौद्धिक संतुलन दे सकता है।

थरूर सम्भवतः कुछ ऐसा ही चाहते हैं लेकिन ‘शहीद’ बनकर इसलिए वे न कांग्रेस छोड़ रहे हैं, न भाजपा की खुली आलोचना कर रहे हैं, वे एक ‘स्ट्रेटेजिक न्यूट्रल’ पोजिशन बना रहे हैं। यह स्थिति उन्हें कांग्रेस के भीतर भी महत्व देती है और बाहर भी सम्भावना खुली रखती है। कांग्रेस उन्हें निकाल नहीं सकती क्योंकि इससे थरूर बड़े नेता बन जाएंगे और भाजपा उन्हें कभी भी ले सकती है क्योंकि उन्होंने कभी भी भाजपा की विचारधारा पर असाधारण तीखा हमला नहीं किया, बल्कि आडवाणी-नेहरू जैसी तुलना करके खुद को ‘आइडियोलाॅजिकल आॅब्जर्वर’ की स्थिति में रख भाजपा को सुकून पहुंचाने का काम कर दिखाया है।

वंशवाद पर उनका हमला इसी रणनीति का हिस्सा है। वे जानते हैं कि इस शब्द से सबसे ज्यादा चोट कांग्रेस को लगती है क्योंकि गांधी परिवार इसकी केंद्रीय धुरी है। भाजपा को यह मुद्दा पसंद है इसलिए थरूर का  31 अक्टूबर को ‘प्रोजेक्ट सिंडिकेट’ लेख स्वाभाविक रूप से भाजपा के नैरेटिव को मजबूती देता है और भाजपा के लिए यह अवसर बन जाता है कि वह कह सकती है कि ‘देखो, कांग्रेस का नेता ही कांग्रेस को गलत बता रहा है।’ थरूर इससे खुद भी चर्चा में रहते हैं।

सवाल यह भी है कि क्या वंशवाद केवल एक पार्टी का मुद्दा है? भारतीय राजनीति के इतिहास में परिवार आधारित राजनीति कांग्रेस, सपा, राजद, अकाली दल, टीआरएस, डीएमके, शिवसेना सबमें रही है। भाजपा भी इससे मुक्त नहीं है। इसलिए वंशवाद पर थरूर की लड़ाई तभी विश्वसनीय बनती है जब यह लड़ाई सबके खिलाफ हो। पर जब लड़ाई चयनात्मक हो, तब इसका अर्थ बदल जाता है, यह विचार नहीं, राजनीति बन जाता है।

अंत में यही कहा जा सकता है कि शशि थरूर का मौजूदा राजनीतिक हस्तक्षेप एक साधारण टिप्पणी नहीं है। यह वक्तव्य नहीं, रणनीति है। इसमें वैचारिक गम्भीरता और राजनीतिक गणित भी है। वे कांग्रेस में भी बने रहना चाहते हैं और अगर समय आए तो बाहर निकलने की संभावना भी खुली रखना चाहते हैं। वे वंशवाद का विरोध भी करना चाहते हैं और भाजपा से पूरी दूरी भी नहीं बनाना चाहते। वे गांधी परिवार पर चोट भी करते हैं और आडवाणी की तारीफ भी। यही थरूर पॉलिटिक्स का सार है, विचार और अवसर का संतुलन। इसमें जोखिम भी है, सम्भावना भी। यह राजनीति उतनी ही बौद्धिक है जितनी व्यवहारिक। आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि थरूर अंततः किस दिशा में बढ़ते हैं, सुधारक की भूमिका में कांग्रेस में बने रहते हैं या किसी बड़े राजनीतिक पुनर्संयोजन के केंद्र में खुद को स्थापित करते हैं। फिलहाल इतना निश्चित है कि उन्होंने भारतीय राजनीति में बहस भी जगाई है और अपने लिए नया राजनीतिक स्पेस भी बनाया है।

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