जब लाजिम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौह-ए-अजल में लिखा है
जब जुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिरां
रुई की तरह उड़ जाएंगे
हम महकूमों के पांव-तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हुकूम के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहल-ए-सफा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो गायब भी है, हाजिर भी
जो मंजर भी है, नाजिर भी
उठेगा अनल-हक का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो -फैज अहमद फैज
जिस देश की परम्परा कबीर, गालिब, प्रेमचंद, निराला और टैगोर की हो, वहां असहमति लोकतंत्र का गहना है, अपराध नहीं। लेकिन जब कविता गाने से राजद्रोह लगता है और पत्रकारिता करने पर जेल होती है तब सवाल उठता है: क्या अब ‘हम देखेंगे’ कहना भी देशद्रोह है? कविताओं का काम दिलों को जोड़ना, चेतना को जगाना और सत्ता को आइना दिखाना होता है। फैज अहमद फैज की नज्म ‘‘हम देखेंगे’’ भी कुछ ऐसी ही कालजयी रचना है जिसने न केवल पाकिस्तान में, बल्कि भारत में भी दशकों से प्रतिरोध की भाषा को स्वर दिया है। लेकिन जब इस कविता का पाठ भारत में राजद्रोह के आरोपों के साथ जोड़ा जाने लगे तो यह केवल एक साहित्यिक विवाद नहीं, बल्कि लोकतंत्र और असहमति की सच्ची परीक्षा बन जाता है। ‘हम देखेंगे’ का पहला गूंजता पाठ 1980 के दशक में पाकिस्तान में जिया-उल-हक की तानाशाही के खिलाफ हुआ था। भारत में भी यह कविता नागरिक प्रतिरोध का पर्याय बन गई। 2014-15 में हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद उठी छात्र आंदोलनों में यह कविता एक आम नारा बनी। 2019-20 में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और एनआरसी के विरोध में शाहीन बाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जेएनयू सहित देशभर के प्रदर्शन स्थलों पर यह कविता गूंजती रही।
2020-2021 के किसान आंदोलन के दौरान दिल्ली की सीमाओं पर जुटे किसान मंचों से भी इस कविता का स्वर प्रतिरोध की पहचान बना। भीमा कोरेगांव और एल्गार परिषद से जुड़ी गतिविधियों में भी यह नज्म सामाजिक न्याय के लिए लड़ाई का प्रतीक बन गई। लेकिन अब इसी कविता पर राजद्रोह का आरोप लगाया जा रहा है। 13 मई 2025 को नागपुर के विदर्भ साहित्य संघ में सामाजिक कार्यकर्ता वीरा साथीदार की स्मृति में आयोजित एक कार्यक्रम में ‘हम देखेंगे’ गाया गया। मुम्बई के समता कला मंच के युवा सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत इस कविता के पाठ को लेकर पुलिस ने आयोजकों और वक्ताओं पर भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 152, 196 और 353 के तहत मामला दर्ज किया है। ध्यान देने योग्य है कि बीएनएस की धारा 152, औपनिवेशिक राजद्रोह कानून (आईपीसी धारा 124ए) के स्थान पर लाई गई है, लेकिन इसकी भावना और मंशा वही है।
शिकायतकर्ता दत्तात्रेय शिर्के ने इसे ‘सरकार को धमकी’ करार देते हुए कहा कि एक पाकिस्तानी कवि की कविता का पाठ भारत की अस्मिता पर चोट है। शिकायत में पंक्ति ‘सब तख्त गिराए जाएंगे’ को सरकार के खिलाफ घातक बताया गया है। यह वही मानसिकता है जो कविता में ‘तख्त’ शब्द को सत्ता के खिलाफ षड्यंत्र मान बैठती है, जबकि फैज की कविता में यह प्रतीकात्मक रूप से अन्याय के अंत का बिम्ब है।
गत् 13 मई को वीरा साथीदार की स्मृति में आयोजित वार्षिक कार्यक्रम में सामाजिक कार्यकर्ता उत्तम जागीरदार को बतौर मुख्य वक्ता आमंत्रित किया गया था। नागपुर में आयोजित इस कार्यक्रम में शहर के लगभग डेढ़ सौ प्रबुद्ध लोग शामिल हुए थे। उत्तम जागीरदार ने विवादास्पद महाराष्ट्र विशेष सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक, 2024 का जिक्र करते हुए इसे मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन करने वाला बिल करार दिया। जागीरदार का कहना था कि इस विधेयक के कानून बनने बाद असहमति की हर आवाज को ‘अर्बन नक्सल’ कह खामोश कर दिया जाएगा। नागपुर के एक निवासी दत्तात्रेय शिर्के को असहमति का यह स्वर इतना अखरा कि उन्होंने एफआईआर दर्ज करा डाली। उनका कुतर्क यह है कि जब भारतीय फौज पाकिस्तान के खिलाफ ‘आॅपरेशन सिंदूर’ चला रही थी तब कुछ कट्टरपंथी वामपंथ समर्थक पाकिस्तानी कवि फैज अहमद फैज की कविता का पाठ करने में मस्त थे। राजद्रोह पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक लगाए जाने के बावजूद नागपुर पुलिस ने शिर्के की शिकायत को तुरंत एफआईआर में बदल दिया।
गौरतलब है कि 11 मई 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट निर्देश दिया था कि जब तक केंद्र सरकार राजद्रोह कानून (आईपीसी 124ए) की समीक्षा नहीं कर लेती, तब तक राज्यों को इस पर कार्रवाई से बचना चाहिए। लेकिन अब केंद्र ने बीएनएस लागू कर उसमें धारा 152 जोड़ दी – जो शब्दों में भले ‘राजद्रोह’ न कहे, मगर व्यावहारिक रूप से वही काम करे।
नागपुर पुलिस ने इस निर्देश की खुली अवहेलना की है। इससे स्पष्ट होता है कि आज असहमति जताना – चाहे कविता के माध्यम से हो या भाषण से – सत्ता को चुभने लगा है। वीरा साथीदार केवल एक अभिनेता नहीं, विचारों के योद्धा थे। 2013 में कोर्ट फिल्म की शूटिंग के दौरान पुलिस ने उन पर नक्सली सम्बंधों के संदेह में हस्तक्षेप किया। 2020 में एल्गार परिषद मामले में उन्हें ‘अर्बन नक्सल’ तक कहा गया। 2021 में कोविड से उनका निधन हो गया, लेकिन अब उनकी याद में आयोजित कार्यक्रम को ही सरकार ने शक के घेरे में डाल दिया। उनकी पत्नी पुष्पा साथीदार द्वारा हर वर्ष यह मेमोरियल आयोजित किया जाता है। इस वर्ष भी 150 से अधिक लोगों ने इसमें भाग लिया, जहां महाराष्ट्र विशेष सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक 2024 के सम्भावित दमनकारी प्रभावों पर चर्चा की गई। पुलिस की यह कार्रवाई दर्शाती है कि सत्ता को आज विचारों से डर लगता है, वो विचार जो कविता से आता है।
यही नहीं, गत् पखवाड़े गुजरात समाचार, जो दशकों से राज्य की सत्ता का निडर आइना रहा है, उसके मालिक और प्रधान सम्पादक की प्रवत्र्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा गिरफ्तारी उसी दमन का एक और अध्याय है। यह मीडिया समूह भाजपा शासन के भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिक राजनीति और काॅरपोरेट सांठ-गांठ पर लगातार रिपोर्ट करता रहा है। ईडी की इस कार्रवाई को व्यापक रूप से राजनीतिक बदले की भावना से प्रेरित माना जा रहा है। सूत्रों के मुताबिक अखबार ने हाल ही में कुछ बड़े खुलासे किए थे जिनमें सत्ताधारी दल के वरिष्ठ नेताओं और उद्योगपतियों के बीच सांठ-गांठ की बात कही गई थी। गिरफ्तारी से पहले कोई स्पष्ट वित्तीय अनियमितता साबित नहीं हुई थी, लेकिन एजेंसियों का सक्रिय होना यह बताता है कि आज पत्रकारिता भी असहमति का अपराध बन चुकी है।
ये घटनाएं यह बताती हैं कि आज का भारत उस मोड़ पर खड़ा है जहां कविता, पत्रकारिता, नाटक, भाषण, सब कुछ ‘देशद्रोह’ की छांव में आ चुका है। सत्ता को अब सशस्त्र विद्रोह से नहीं, बल्कि विचारों की आग से डर लग रहा है। जब ‘हम देखेंगे’ गाने से देश की सुरक्षा खतरे में बताई जाने लगे, जब पत्रकारों को इसलिए गिरफ्तार किया जाए क्योंकि वे सरकार से सवाल पूछते हैं- तब यह स्पष्ट हो जाता है कि लोकतंत्र खतरे में नहीं, बल्कि एक संगठित सत्ता द्वारा नियंत्रित किया जा रहा है।
भारत की आत्मा लोकतंत्र है और लोकतंत्र का सार असहमति में निहित है। फैज की कविता और पत्रकारों की लेखनी, दोनों जनता की ओर से उठी हुई वे आवाजें हैं जो सत्ता को न्याय और सत्य का स्मरण कराती हैं। इसलिए जब कोई कहता है –
‘सब तख्त गिराए जाएंगे’
तो डरने की जरूरत सत्ता को नहीं, अन्याय को होती है क्योंकि अंततः हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे।