उत्तराखण्ड एक आध्यात्मिक खोज-11
जब तक मैं मुम्बई नहीं रह रही थी मैं भी सोचती थी ईश्वर को भला कौन और क्यों विसर्जित कर सकता है? वर्ष 2014 में जब मैं मुम्बई शिफ्ट हुई, मेरे आवास से, जो कि गिरगांव चैपाटी के सामने ही है, मैं विसर्जन देखती थी। अंत में जब लालबाग के राजा आते हैं तब उनके विसर्जन के समय पर सबकी आंखें नम होती हैं। धीरे-धीरे गणेश उत्सव में मैं शामिल होने लगी। जब मैं 2021 में उत्तराखण्ड वापस आई तो गणपति आते-आते मन उद्वेलित होने लगा और आनन-फानन में मैंने भी घर पर गणेश पूजन किया। उत्तराखण्डी होने के नाते शिवार्चन और पार्थिव पूजा तो बचपन से ही करते आए हैं और फिर स्मरण हुआ कि स्वच्छ मिट्टी से पूरा शिव परिवार ही तो बनाते थे और पूजन के बाद विसर्जन करते थे। स्कंद पुराण में भी पार्थिव पूजन को श्रेष्ठ बताया गया है
- श्वेता मासीवाल
सामाजिक कार्यकर्ता
उत्तराखण्ड एक आध्यात्मिक खोज में आज मैं आपको एक ऐसे दिव्य स्थल में ले चलती हूं जो अपने आप में अनूठा है। यह स्थल समर्पित है विघ्नहर्ता भगवान श्री गणेश को और यह एक बार फिर इस बात को प्रमाणित करता है कि हिमालय ही शिव और शिव परिवार का गढ़ है।
आज इस विषय पर इसलिए भी बात कर रही हूं क्योंकि हाल ही में होली का त्योहार होकर गुजरा है। पूरे देश में चैदह को होली खेली गई काशी में मसान होली और बृज की लट्ठमार होली भी इसी तारीख को खेली गई परंतु पहाड़ में छलड़ी का पंचांग अगले दिन का निकला था। इस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करूंगी लेकिन फिर एक बार पूरे भारत और विभिन्न प्रांतों की विविधता पर बात छिड़ गई तो मुझे गणेश उत्सव याद हो आया। उत्तराखण्ड में भी अब इस उत्सव को मनाया जाने लगा है और इसको मनाए जाने का विरोध भी होने लगा है। इस पर आगे चलकर बात करेंगे, पहले विघ्नहर्ता के जन्म की कथा की तरफ चलते है।
हम सभी उस कथा से परिचित हैं कि कैसे गणेश जी हाथी के सिर वाले भगवान बने। मान्यता अनुसार जब पार्वती शिव के साथ उत्सव क्रीड़ा कर रहीं थीं, तब उन पर थोड़ा मैल लग गया। उन्हें जैसे ही इस बात की अनुभूति हुई, तब उन्होंने अपने शरीर से उस मैल को निकाल दिया और उससे एक बालक बना दिया। फिर उन्होंने उस बालक को कहा कि जब तक वे स्नान कर रहीं हैं, वह वहीं पहरा दे। जब शिवजी वापस लौटे तो उस बालक ने उन्हें पहचाना नहीं और उनका रास्ता रोका। तब भगवान शिव ने उस बालक का सिर धड़ से अलग कर दिया और अंदर चले गए। गणेश को भूमि में निर्जीव पड़ा देख माता पार्वती व्याकुल हो उठीं। शिव को उनकी त्रुटि का बोध हुआ और उन्होंने गणेश के धड़ पर गज का सर लगा दिया।
इस कथा को हम बचपन से सुनते आए हैं जब तक मैं कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर नहीं गई थी मैं इस बात से पूरी तरह से अनभिज्ञ थी कि वाकई हिमालय में ऐसा कोई स्थान भी है जहां एक पर्वत इस कथा का साक्ष्य बना। और ऐसे एक नहीं दो स्थान हैं। एक ‘गुरला मानदत्ता शिखर’ जहां शिव जी ने वापस सर को जोड़ा था और दूसरा उत्तराखण्ड में स्थित डोडीताल में मौजूद बिना सिर वाले गणपति का मंदिर जिसका नाम ‘मुंडकटिया मंदिर’ है। यह पवित्र और प्राचीन मंदिर उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है। मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यह देश का एकलौता मंदिर है जहां श्री गणेश जी बिना सिर के रूप में विराजमान हैं।
स्मरण रहे पिछले अंकों में हिमालय के जितने भी मंदिरों और दिव्य स्थानों के बारे में हमने बात करी है हर जगह शिव पार्वती क्रीड़ा के प्रमाण मिलते हैं। हमारी पीढ़ी ने कथाएं कम सुनी पढ़ी हैं और दूरदर्शन पर अपने टेलीविजन के जरिए अपने आस्था के केंद्रों को अधिक समझा है।
शिव जी को सदा ही श्वेत पर्वत पर विराजमान ही देखा और साथ ही देखा उनके अनंत गणांे को। जिसमें प्रथम स्थान उनके पुत्र गणेश का है। हाथी का मस्तक लगाए छोटी-छोटी सी आंखों से निहारते गणेश भगवान के बाल रूप ने सदा ही सबका मन मोहा है और कई धारावाहिकों में हमने उनके सर को धड़ से अलग होते देखा है और फिर हाथी का मस्तक लगते भी देखा है। बाल गणेश को जब मां पार्वती शल्यक्रिया के पश्चात प्रथम बार गोद में लेती हैं सभी देवगण उनको विभिन्न प्रकार के आशीर्वाद देते हैं। शिव जी ने उदारता दी। लक्ष्मी माता ने उनके बाल रूप से मोहित होकर उन्हें अपना दत्तक पुत्र ही बना लिया। आज भी हमारी संस्कृति में लक्ष्मी मां का पूजन गणेश जी के साथ है। सरस्वती जी ने वाणी दी। सावित्री ने बुद्धि दी। त्रिदेव ने उन्हें अग्र पूजनीय होने का आशीर्वाद दिया। बुद्धि के दाता विघ्नहर्ता श्री गणेश भगवान दो रूप में पूजे जाते हैं। एक उनका अति मोहक बाल रूप और दूसरा जहां वो ऋद्धि सिद्धि के साथ पूजे जाते हैं।
जब तक मैं मुम्बई नहीं रह रही थी, मैं भी सोचती थी ईश्वर को भला कौन और क्यों विसर्जित कर सकता है? वर्ष 2014 में जब मैं मुम्बई शिफ्ट हुई मेरे आवास से जो कि गिरगांव चैपाटी के सामने ही है, से मैं विसर्जन देखती थी। अंत में जब लालबाग के राजा आते हैं तब उनके विसर्जन के समय पर सबकी आंखें नम होती हैं। धीरे-धीरे गणेश उत्सव में मैं शामिल होने लगी और उत्तराखण्ड से होने के बावजूद मेरा लगाव गणेश भगवान से मुम्बई में ही मजबूत हुआ। चाहे वो सिद्धिविनायक के कारण हो या गणेश उत्सव के कारण। कुछ साल वहां प्रवास करने के बाद जब मैं 2021 में उत्तराखण्ड वापस आई तो गणपति आते-आते मन उद्वेलित होने लगा और आनन-फानन में मैंने भी घर पर गणेश पूजन किया। उत्तराखण्डी होने के नाते शिवर्चन और पार्थिव पूजा तो बचपन से ही करते आए हैं और फिर स्मरण हुआ कि स्वच्छ मिट्टी से पूरा शिव परिवार ही तो बनाते थे और पूजन के बाद विसर्जन करते थे। स्कंद पुराण में भी पार्थिव पूजन को श्रेष्ठ बताया गया है।
अब इस बहस पर आते हैं जो डिजिटल मीडिया की देन है कि गणेश उत्सव तो महाराष्ट्र का उत्सव है और उत्तराखण्ड में होना नहीं चाहिए। इस सोच में बुद्धि प्रदाता गणेश नहीं मिलते।
उत्तराखण्ड तो गणेश जी की जन्मस्थली है। और समुंदर में विष्णु माता लक्ष्मी के साथ प्रवास करते हैं। जल तत्व में पूजन के बाद पार्थिव विग्रह का विसर्जन कैसे तर्क और भाव संगत नहीं है ये मैं ढूंढ ही नहीं पा रही हूं।
रही बात उनके वरदहस्त की वो तो सदैव श्रद्धालुओं पर रहता है परंतु उत्सव के दौरान इतने दिवस समर्पित होकर भक्त गणेश जी की आराधना करते हैं। उन्हें बच्चे की तरह भोजन, शयन और इष्ट बंधुओं को घर पर आमंत्रित करना। उत्सव यूं तो बहुत प्राचीन है लेकिन सामुदायिक मंडलों तक पहुंचाया था बाल गंगाधर तिलक जी ने। उनका उद्देश्य बहुत पवित्र था। स्वतंत्रता संग्राम में उस काल में इतने लोगों को एक स्थान पर एकत्रित करना गणेश जी के ही आशीर्वाद से सम्भव हुआ था। विराट मंडल लालबाग के राजा हर साल अपने नूतन श्रृंगार स्वरूप के लिए जाने जाते हैं। आजादी के साल तो लालबाग के राजा महात्मा गांधी की झलक लिए थे।
ये भी संयोग है कि साल 2017 में, मैं गणेश चतुर्थी के दिन ही कैलाश मानसरोवर में दर्शन कर रही थीं। जो कोई भी मानस झील गया है इस बात को महसूसता है कि हिमालय की झील की मंद लहरें समुद्र सा ही एहसास देती है। स्नान के पश्चात जब कैलाश परिक्रमा की बात। शिव की भक्ति में रहने वाले भक्त गणेश जी की भक्ति से कैसे विमुक्त रहेंगे? मानसरोवर झील में स्नान के पश्चात जब बारी कैलाश की परिक्रमा की आई तब हम सब थोड़े असमंजस्य में थे। पिताजी पैरालिसिस जैसी कंडीशन से उबर कर वहां पहुंच तो गए थे लेकिन इसके आगे का सफर उनके साथ करना सेफ नहीं था। अतः गणेश जी से प्रेरणा लेकर माता-पिता और गुरुदेव की परिक्रमा वहीं कर प्रण लिया था कि एक बार फिर उम्र रहते परिक्रमा दर्शन करने अवश्य आऊंगी और अब ऐसा शीघ्र ही करने की इच्छा मन में जोर मारने लगी है।
स्मरण रहे हिमालय की पुत्री पार्वती और सदाशिव के पुत्र आदि गणेश हिमालय में जन्म लेते हैं और उत्सव के पश्चात समुद्र की लहरों से होते हुए मां लक्ष्मी के पास चले जाते हैं। आंख में भाव के आंसू आ ही जाते हैं जब रास्ते के लिए रूमाल में विनायक के लिए लड्डू बांधती हूं। उसी समुद्र का जल ऊष्मा से बारिश में बदलता है। वही बारिश बर्फ का रूप लेकर हिमालय में गिरती है और पुनः गंगा का रूप ले लेती है। वही गंगा पुनः सागर में मिल जाती है। इस विस्तृत रहस्यमयी सुंदर यात्रा के मध्य हम अपनी सूक्ष्म सोच को रखकर देखें कि गणेश उत्सव उत्तर भारत में क्यों नहीं मनाया जाना चाहिए?
हिमालय तो गणाध्यक्ष की जन्मस्थली है और प्रकृति ही ईश्वर है। हां सनद ये रहना चाहिए कि मां पार्वती ने हल्दी और मिट्टी के उबटन से गणेश को अस्तित्व दिया था और हमें भी प्राकृतिक मिट्टी से ही गणेश भगवान का विग्रह बनाना चाहिए। सम्भव हो तो समुद्र या बहता स्वच्छ जल ना मिले तो बड़े गमले में निजस्थान पर ही विसर्जन करना चाहिए। ये उत्सव, भाव का उत्सव है। बुद्धि के दाता हमें सद्बुद्धि का आशीर्वाद भी तभी देंगे जब हम अपनी सोच को विस्तृत करने का प्रयास करेंगे। यही गणेश जी की साधना है। महाभारत की रचना वेद व्यास ने की लेकिन अपने एक दंत से बिना रुके उसे लिखा गणेश जी ने। आजकल वास्तु के जानकार अक्सर हमें ये बताते हैं कि गणेश जी कि किस प्रकार की मूर्ति किस प्रकार के भवन में रखी जानी चाहिए या उनकी संख्या कितनी होनी चाहिए।
हमारे उत्तराखण्ड में मुंडकटिया मंदिर में उनके विग्रह के स्वरूप सबसे भिन्न है। बगैर सर की ये अपने आप में एक अद्भुत बात है। और एक और चमत्कारिक बात ये है कि डोडी ताल में झील की गहराई का अनुमान आज तक कोई नहीं लगा पाया है। कुछ स्थान ऐसे हैं जहां विज्ञान भी घुटने टेक देता है। ना कैलाश को आज तक कोई लांघ पाया है न डोडीताल की गहराई नाप पाया है।
थोड़ा क्षोभ होता है कि हम इस बहस में तो बढ़-चढ़र हिस्सा लेते हैं कि गणेश उत्सव मनाया जाए या नहीं लेकिन इस अद्भुत सिद्ध स्थान के विषय में ही ज्ञान नहीं रखते। या शायद गणेश अपने जन्म के साथ ही इतने विराट हो गए कि जन्म की कथा छोटी हों गई और उनकी आगे की यात्रा विराट होती चली गई।
जितनी विस्तृत शिव परिवार की महिमा है उतना ही विस्तृत है उनके स्वरूप की महिमा।
अब सोच कर देखिए
मां पार्वती करती है बाघंबर की सवारी
शिव भगवान नंदी की सवारी
कार्तिकेय मूर्ति की सवारी
और हमारे गणपति मूषक की सवारी।
अगर आप प्रकृति को देखें तो ये सभी एक दूसरे के घोर विरोधी माने जाते हैं परंतु शिव परिवार में अपने-अपने इष्ट के साथ मौज में रहते हुए मेल-मिलाप का कितना सुंदर संदेश देते हैं। काश हम सभी देशवासी भी विभिन्नताओं का उत्सव मनाने लगे।
वैसे भी वायु पुराण में कहा गया है
मुण्डे मुण्डे¹ मतिर्भिन्ना
मुण्डे मुण्डे’ मतिर्भिन्ना कुण्डे कुण्डे नवं पयः।
जातौ जातौ नवाचाराः नवा वाणी मुखे मुखे
पिण्डे पिण्डे मतिः भिन्ना’
यानी भिन्न-भिन्न मस्तिष्क में भिन्न-भिन्न मति (विचार) होती है, भिन्न-भिन्न सरोवर में भिन्न-भिन्न प्रकार का पानी होता है, भिन्न-भिन्न जाति के लोगों के भिन्न-भिन्न जीवनशैलियां (परम्परा, रीति-रिवाज) होती हैं और भिन्न-भिन्न मुखों से भिन्न-भिन्न वाणी निकलती है।
इस विषय पर विचार अवश्य करिएगा कि वही अलख दुबारा जलाने की आवश्यकता है जो बाल गंगाधर तिलक जी ने जलाई थी। अनेकता में एकता ही हमारे देश की पहचान है।
गणेश भगवान हम सबको सद्बुद्धि दें तथा सभी के कष्ट हरें।
साम्ब सदाशिव!
(लेखिका रेडियों प्रजे़न्टर, एड फिल्म मेकर तथा वत्सल सुदीप फाउंडेशन की सचिव हैं)