उत्तराखण्ड में हिमाचल की तर्ज पर भूमि कानून बनाने की मांग वर्षों से की जाती रही है। दोनों राज्यों की भौगोलिक परिस्थितियां लगभग समान है लेकिन दोनों राज्यों में भूमि कानूनों में बड़ा अंतर है। हिमाचल में कृषि भूमि खरीदने की स्वीकृति तभी मिल सकती है जब खरीदार किसान ही हो और हिमाचल में लम्बे अरसे से रह रहा हो। लेकिन उत्तराखण्ड इसके उलट स्थितियां हैं। यहां बाहरी लोगों को जमीन देने के लिए भू-कानून में संशोधन किए गए। तत्कालीन त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने इस मामले में सबको पीछे छोड़ दिया। उन्होंने एक नहीं, बल्कि चार बार भू अधिनियम सम्बोधित किए। त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार द्वारा 2018 में लागू भू-कानून में ऐसा ‘खेल’ किया गया जिससे रसूखदार लोगों के लिए जमीनों को बड़ी संख्या में खरीदने के सारे रास्ते खोल दिए गए। इसके तहत साढ़े बारह एकड़ जमीन की सीलिंग सीमा खत्म कर औद्योगिक प्रायोजन के नाम पर हजारों बीघा जमीन आवंटित कर दी गई। कृषि भूमि की इस कारपोरेट लूट में बड़े-बड़े नामचीन लोग शामिल है। ‘दि संडे पोस्ट’ ने जब इस पूरे प्रकरण की खोजबीन की तो चैंकाने वाला खुलासा हुआ। त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार के समय भू-अधिनियम में संशोधन कर जमीनों की लूट के सारे रिकाॅर्ड तोड़ दिए गए। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि महज दो जनपदों की ही 8000 बीघा जमीन बेच दी गई। इससे भी चैंकाने वाली बात यह है कि यह जमीन अधिकतर बाहरियों को दी गई। दिल्ली से लेकर पश्चिमी बंगाल तक के लोगों को दी गई इस जमीन पर उधोग कितने लगे यह तो जांच का विषय है, लेकिन यह अवश्य हुआ कि देवभूमि में जनसांख्यिकी परिवर्तन का खतरा पैदा हो गया। फिलहाल प्रदेश में नया भू-कानून लाकर सूबे के लोगों की उम्मीदों को पंख लगा रहे मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के लिए भी एक यक्ष प्रश्न यह है कि वह त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार में हुई कृषि भूमि की बंदरबाट की निष्पक्ष जांच कर पाएंगे या ‘पार्टी प्रेम’ की परम्परा निभाएंगे?
‘‘आज हिमालै तुमन कै धत्यू छौ,
जागो-जागो हो प्यारा लाल,
नी करण दीयो हमारी निलामी,
नी करण दियो हमारो हलाल…
ढुंग बेचो-माट बेचो, बेची खै बज्याणी,
लीस खोपी-खोपी मेरी उधेड़ी दी खाल
न्योली-चांचरी-झवाव्ड़ा-छपेली बेचा प्यारा,
अर बेची अराडू पाणी ठंडो-ठंडी बयार’’
इस गीत का जो हिंदी में भावार्थ है वह यह है कि आज हिमालय जगा रहा है तुमको, जागो-जागो मेरे लाल, मत होने दो मेरी नीलामी, मत होने दो मुझे हलाल। पत्थर बेचा-मिट्टी बेची, बेचे जंगल हरे बांज के और लीसा गडान के घावों से उतार दी मेरी खाल। संगीत-गीत सब बेच दिए, मेरे इन सुमधुर कंठों का सुर बेच दिया। बेच दिया, ठंडा पानी-ठंडी बयार।
उक्त पंक्तियां पहाड़ के जल, जंगल और जमीन की हकीकत को बयां करती है। इसके रचयिता उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक चेतना के अग्रणी रहे जनकवि गिरिश तिवारी यानी ‘गिरदा’ है। वहीं गिरदा जिनके क्रांतिकारी गीतों ने चिपको आंदोलन, वन आंदोलन, नशा विरोधी आंदोलन, अलग राज्य के उत्तराखण्ड आंदोलन और नदी बचाओ आंदोलन को अपने गीतों के जरिए बुलंद आवाज दी। आज हमारे बीच गिरदा तो नहीं रहे लेकिन उनका ये गीत उत्तराखण्ड की उस दुर्दशा को दर्शाता है जिसके लिए नीति नियंता जिम्मेदार है। जिस जल, जंगल और जमीन की बिसात पर प्रदेश की नींव रखी गई वह अब कमजोर पड़ती दिखाई दे रही है।
सूबे के 25वे वर्ष में प्रवेश करने के साथ ही बाहरियों द्वारा बहुलता में खरीद-फरोख्त की गई जमीन गहन चिंता का मुद्दा बन चुका है। कहा तो यह तक जा रहा है कि इस समस्या से निजात पाने के लिए ही धामी सरकार को भू-कानून लाना पड़ा। लेकिन सवाल यह है कि जब प्रदेश में पूर्व में ही भू-कानून लागू था तो नया भू-कानून लाने की जरूरत क्यों पड़ी?

उत्तराखण्ड में यूं तो बाहरी लोगों द्वारा शुरू से ही जमीनें खरीदी गई। हालांकि इसपर प्रतिबंध लगाने के लिए नारायण दत्त तिवारी सरकार से लेकर खण्डूड़ी सरकार के साथ ही त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने कानून बनाए। लेकिन बेतहाशा जमीनों की खरीद-फरोख्त हुई। तो वह त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार के कार्यकाल में। तब बाहरी प्रदेशों से आए लोगों ने प्राइवेट लैंड तो जमकर खरीदी, साथ ही उद्योग के नाम पर सरकारी जमीनों को हड़पा गया। त्रिवेंद्र सिंह रावत द्वारा वर्ष 2018 में एक ऐसा अध्यादेश लाया गया जिसमें उत्तराखण्ड में कृषि भूमि की कोरपरेट लूट हुई।
त्रिवेंद्र सरकार ने उद्योगों के लिए पहाड़ी क्षेत्रों में भूमि के लिए 12.5 एकड़ के प्रतिबंध को हटाकर जमीन की खरीद-फरोख्त के सारे रास्ते खोल दिए। यहा तक कि बिना राजस्व की अनुमति के ही भूमि का उपयोग उद्योग लगाने के लिए किए जाने की छूट दी गई। लैंड यूज बदलने के लिए अधिनियम की धारा 143 के तहत पटवारी से लेकर एसडीएम तक चक्कर काटने की औपचारिकताएं अध्यादेश प्रभावी होते ही खत्म हो गईं। राजस्व विभाग के अधिकारों में कटौती कर पर्वतीय क्षेत्रों के धारा 143 को 143 (क) में परिवर्तित कर दिया गया था।
त्रिवेंद्र सरकार ने तब यह तर्क दिया था कि तराई क्षेत्रों में औद्योगिक प्रतिष्ठान, पर्यटन गतिविधियों, चिकित्सा तथा चिकित्सा शिक्षा के विकास के लिए निर्धारित सीमा से अधिक भूमि की मांग की जा रही है। कई प्रस्ताव इसी कारण लम्बित हैं। इसके लिए उत्तराखण्ड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश और भूमि व्यवस्था अधिनियम व्यवस्था 1950) में परिवर्तन किया गया था। जिससे कृषि और औद्यानिकी की भूमि को उद्योग स्थापित करने के नाम पर जमकर बेचा गया।
इसके बाद कुमाऊं और गढ़वाल सहित सात जिलों में उद्योगों के लिए जमीन खरीद के लिए 840 अनुमतियां दी गईं। इनमें से करीब दौ सो फर्म ने इस जमीन का दुरुपयोग किया। आश्चर्य की बात यह है कि उद्योग तो लगे नहीं लेकिन उधोगों के नाम पर जमीनें खुर्द-बुर्द हो गई।
जिस दिन यह कानून विधानसभा में पारित हुआ मुझे केदारनाथ के तत्कालीन विधायक मनोज रावत का फोन आया। उन्होंने बताया कि मैंने अकेले ही इस कानून का विरोध किया। मैंने तत्काल इसके विरोध में बयान दिया और सरकार को आगाह किया कि आपका यह कानून राज्य निर्माण भावना को ही नष्ट कर रहा है। मेरी आशंका सही साबित हुई। भाजपा प्रेम में लम्बे समय तक लोग भाजपा नीत सरकार के इस अपराध को अनदेखा करते रहे और परिणाम स्वरूप हमारे बहुमूल्य सम्पदा का एक बड़ा हिस्सा बिक गया। जमीन खरीदने वाले कौन है और उनकी पृष्ठभूमि क्या है। उनका उद्देश्य क्या है, इसकी किसी को जानकारी नहीं है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी जी प्रदेश में डेमोग्राफिक चेंज की बात तो करते हैं लेकिन उनकी नाक के नीचे ही खड़ा एक उदाहरण को वह अनदेखा कर रहे हैं। अपनी गलती को सुधारने के लिए कानून लाने में श्री धामी ने देर कर दी और अभी भी राज्य के दो जिलों में खरीद-फरोख्त का दरवाजा खुला रखा है। सरकार को इस भू-घोटाला महापाप पर श्वेत पत्र लाना चाहिए।
हरीश रावत, पूर्व मुख्यमंत्री उत्तराखण्ड
‘दि संडे पोस्ट’ के पास इसके दस्तावेज मौजूद है। जिसमें प्रदेश के सिर्फ दो जिलों में ही 162 लोगों और संस्थाओं को जमीन आवंटित की गई। जिसमें हरिद्वार में 80 लोगों को तो पौढ़ी गढ़वाल में 82 लोगों और संस्थाएं जमीन खरीदने में शामिल रही।
‘दि संडे पोस्ट’ के पास मौजूद दस्तावेजों में स्पष्ट दर्ज है कि उत्तराखण्ड में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार के लचीले कानून की बदौलत उत्तर प्रदेश, पंजाब, दिल्ली, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात और पश्चिम बंगाल के लोगों में जमीन खरीदने की होड़ मच गई। त्रिवेंद्र सरकार ने भी इसका दिल खोलकर स्वागत किया। इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि प्रदेश के सिर्फ दो जनपदों (हरिद्वार और पौड़ी गढ़वाल) में ही 647 हेक्टेयर जमीन जो लगभग 8000 बीघा होती है तो आवंटित कर दिया। 2018 के कानून में अगर सबसे ज्यादा फायदा मिला तो वह योग गुरु स्वामी रामदेव रहे। स्वामी रामदेव की पतंजलि को छह स्थान पर जमीन दी गई। सबसे पहले 35.6340 हेक्टेयर जमीन हरिद्वार में दी गई। उसके बाद 38.1107 हेक्टेयर फिर 29.680 हेक्टेयर जमीन, इसके बाद 21. 8982 हेक्टेयर जमीन, 0.2868 हेक्टेयर जमीन तथा 1.0961 हेक्टेयर जमीन दी गई। इस तरह अकेले रामदेव और उनकी पतंजलि को 126.1438 हेक्टेयर लगभग 1514 बीघा जमीन दे दी गई।
दूसरे नम्बर पर मैसर्स प्लीजेंट विहार प्राइवेट लिमिटेड रहीं। इसके डायरेक्टर शूरवीर सिंह बिष्ट को 42. 629 हेक्टेयर लगभग 512 बीघा जमीन दी गई। श्री दुर्गा गिरधारी मेमोरियल चैरिटेबल ट्रस्ट को 35. 9836 हेक्टेयर जमीन लगभग 431 बीघा जमीन, काशी विश्वनाथ स्टील प्राइवेट लि. को 20.4135 हेक्टेयर लगभग 245 बीघा जमीन, वेनको रिसर्च एवं बिल्डिंग फाॅर्म प्राइवेट लिमिटेड को 20.4135 हेक्टेयर लगभग 171 बीघा जमीन, दि हंस फाउंडेशन को 7.449 हेक्टेयर लगभग 90 बीघा जमीन दी गई।
त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार द्वारा जो जमीन आवंटित की गई है उसमें सबसे ज्यादा रिसोर्ट आदि के लिए है। ‘दि संडे पोस्ट’ के पास मौजूद दस्तावेजों का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट उजागर हुआ है। इसके अनुसार रिसोर्ट निर्माण के नाम पर 48.6563 हेक्टेयर जमीन आवंटित की गई है जो लगभग 585 बीघा है। आश्चर्यचकित करने वाली बात यह है कि रिसोर्ट निर्माण कम्पनियों ने जमीन खरीदने के लिए मैदान के बजाय पहाड़ को प्राथमिकता दी है। अधिकतर जमीन हरिद्वार की अपेक्षा पौड़ी गढ़वाल के पर्वतीय क्षेत्र में दी गई है। इसके साथ ही होटलों के लिए भी जमीन दी गई है। जो 16.6549 हेक्टेयर लगभग है जो लगभग 200 बीघा होती हैं। हालांकि यह रिसोर्ट आदि के मुकाबले बहुत कम है। पहले जहां लोग होटल खोलने को उतावले रहते थे लेकिन अब रिसोर्ट कल्चर ने होटल को पीछे छोड़ दिया है। देखा जाए तो होटल और रिजाॅर्ट एक ही तरह का व्यवसाय है।
रिसोर्ट एवं होटल के साथ ही बागवानी, जड़ी बूटी उत्पादन तथा कृषि के लिए जमीन दी गई है। चैंकाने वाली बात यह है कि पहाड़ों पर पहले ही खेती बाड़ी के नाम पर अधिकतर जमीनें बंजर हो चुकी है। ऐसे में कृषि कार्य के लिए दी गई जमीन पर हरियाली लहलहाईं होगी? सवाल यह भी है कि जमीन को जिस उद्देश्य के लिए दिया गया क्या वह पूरा हो रहा है या कागजों में कुछ और जमीन पर कुछ अलग कार्य हो रहा है?
2018 में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने उत्तराखण्ड में भू-कानून में संशोधन कर धारा 143(क) और धारा 154(2) जोड़ीं। इन संशोधनों ने पहाड़ी क्षेत्रों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को समाप्त कर दिया और गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए कृषि भूमि के उपयोग को आसान बना दिया। सरकार का तर्क था कि यह कदम निवेश और औद्योगिक विकास को बढ़ावा देगा। हालांकि, इस फैसले का व्यापक विरोध हुआ और इसके कई नकारात्मक परिणाम सामने आए। संशोधन ने बाहरी राज्यों के लोगों के लिए उत्तराखण्ड में असीमित मात्रा में जमीन खरीदने का रास्ता खोल दिया। इससे पहाड़ी क्षेत्रों में जन सांख्यिकीय बदलाव तेज हुए, जिसने स्थानीय संस्कृति, भाषा और परंपराओं को खतरे में डाल दिया। उत्तराखण्ड की विशिष्ट हिमालयी पहचान, जिसके लिए राज्य का गठन हुआ था, पर संकट मंडराने लगा। बाहरी लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर जमीन खरीदने पर स्थानीय लोगों में यह डर पैदा हुआ कि उनकी सांस्कृतिक विरासत कमजोर हो रही है। संशोधन ने कृषि भूमि को गैर-कृषि उद्देश्यों (जैसे रिसाॅर्ट, बंगले और औद्योगिक इकाइयों) के लिए उपयोग करना आसान बना दिया। इससे हिमालयी क्षेत्र की नाजुक पारिस्थितिकी पर दबाव बढ़ा। बाहरी लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर जमीन खरीद ने स्थानीय स्तर पर जमीन की कीमतें बढ़ा दीं, जिससे स्थानीय लोग, विशेष रूप से गरीब और मध्यम वर्ग, जमीन खरीदने में असमर्थ हो गए। संशोधन ने भूमि माफियाओं को प्रोत्साहन दिया, जिन्होंने सस्ती कीमतों पर स्थानीय लोगों से जमीन खरीदकर उसे महंगे दामों पर बाहरी लोगों को बेचा। इससे स्थानीय लोगों का शोषण हुआ। संशोधन ने स्थानीय लोगों को अपनी जमीन बेचने के लिए मजबूर किया, क्योंकि बाहरी निवेशकों ने ऊंची कीमतें दीं। इससे पलायन बढ़ा और पहाड़ी क्षेत्रों में गांव खाली होने लगे।
शिवप्रसाद सेमवाल, राष्ट्रीय अध्यक्ष, राष्ट्रवादी रीजनल पार्टी
यहां यह भी बताना जरूरी है कि उत्तराखण्ड राज्य गठन के समय सूबे में 7,76,191 हेक्टेयर कृषि भूमि उपलब्ध थी। जो अप्रैल 2011 में घटकर 7,23,164 हेक्टेयर रह गई। इन वर्षों में 53,027 हेक्टेयर कृषि भूमि कम हो गई। इस तरह लगभग 4,500 हेक्टेयर प्रतिवर्ष की गति से खेती योग्य जमीन कम हुई है। अगस्त 2018 में नैनीताल हाइकोर्ट के तत्कालीन कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश राजीव शर्मा और मनोज तिवारी की बेंच ने 2,26,950 किसानों के पलायन करने पर चिंता भी जताई थी।
राज्य सरकार के आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखण्ड की कुल 53,484 वर्गकिलोमीटर जमीन में वन क्षेत्र का अनुपात 61.1 प्रतिशत है, जबकि कृषि के लिए केवल 14 फीसदी जमीन उपलब्ध है। बाकी जमीन चारागाह की और बंजर क्षेत्र, अथवा गैर-कृषि उपयोग की है। चिंताजनक बात यह है कि 2000-01 में जबकि 7.7 लाख हेक्टेयर पर खेती हो रही थी, 2021 में उसका क्षेत्र घटकर 6.4 लाख हेक्टेयर हो गया।
गौरतलब है कि वर्ष 2000 में जब उत्तराखण्ड राज्य की स्थापना हुई तो पूरे उत्तराखण्ड में कहीं भी 12.5 एकड़ कृषि भूमि खरीदने की छूट हासिल थी। यह सीमा यूपीजेडएलआर (उत्तर प्रदेश जमीदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम 1950) के तहत लागू थी। उत्तराखण्ड में भी इसे अलग राज्य बनने के बाद भी अपनाया गया। जिसके अनुसार रिहायशी के लिए कोई भी राज्य में कहीं भी जमीन खरीद सकता था और उसकी कोई सीमा तय नहीं थी। इसके बाद 2003 में नारायणदत्त तिवारी सरकार ने रिहाइश के लिए प्रति परिवार 500 वर्गमीटर जमीन की सीमा तय की थी। 2008 में बी.सी. खण्डूड़ी सरकार ने इसे घटाकर 250 वर्गमीटर कर दिया। जबकि औद्योगिक तथा व्यावसायिक काम के लिए जमीन की खरीद-बिक्री के लिए अलग से मंजूरी हासिल करनी पड़ती थी। इसके बाद आया त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार का 2018 का वह संशोधन जिसे जमीनों की लूट की छूट करार दिया गया। अधिकतर लोगों का कहना है कि भाजपा ने उत्तराखण्ड में जमीनों की लूट और नीलामी का सबसे बड़ा दुस्साहस 2018 में उस समय किया था जब त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार थी।
त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार 20 दिसम्बर 2018 को गजट नोटिफिकेशन लेकर आई। जिसमें यूपीजेडएलआर (उत्तर प्रदेश जमीदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम 1950) की धारा 154 में संसोधन किया।
धारा 154 में संशोधन करते हुए 154 (1) के अंतर्गत औद्योगिक प्रयोजन के लिए खरीदी जा सकती 12.5 एकड़ जमीन की पाबंदियां समाप्त कर दी। 21 दिसंबर 2018 को इसे उत्तराखण्ड के राज्यपाल की अनुमति मिल गई। इसके बाद प्रदेश में गजट नोटिफिकेशन लागू हो गया।
बताया जाता है कि वर्ष 2018 में संशोधन करने के पीछे त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार पर केंद्र का दवाब था। मोदी सरकार से फरमान आया कि राज्य में भारी निवेश आएगा। मीडिया में भी से बड़े स्तर पर प्रचारित किया गया। आननफानन में विधान सभा का सत्र बुलाया गया और विवादास्पद विधेयक लागू कर भूमि की खरीद- फरोख्त पर निर्धारित की गई हदबंदी को खत्म कर दिया गया।
6 दिसम्बर 2018 उत्तराखण्ड के इतिहास में काले दिन के रूप में जाना जाएगा। इस दिन उत्तराखण्ड विधानसभा में, उत्तराखण्ड (उत्तर प्रदेश) जंमीदारी विनाश और भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950 की दो धाराओं में ऐसे बदलाव किए गए कि उत्तराखण्ड में भूमि का मालिक किसान, अब अपनी ही भूमि पर नौकर हो गया। सरकार ने इन बदलाओं के द्वारा अपने करीबी धन्ना सेठों और बाबाओं को उत्तराखण्ड के नए जमींदार बनने का खुला मौका दिया है। 143 और 154 में परिवर्तन के अलावा सरकार ने निर्ममता पूर्वक उत्तराखण्ड के भू-कानून में लगभग एक दर्जन बाद परिवर्तन कर लूट की छूट दी। बाद में 2022 भाजपा सरकार ने 143 क को समाप्त कर थोड़ी-बहुत रोक को भी हटा लिया। सरकार ने ये सारे काम अपने चहेते लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए किए थे। इतिहास में जब भी इन परिवर्तनों तो यही कहा जाएगा कि ये काल जमीनों की लूट का युग था। हाल के संशोधनों से जमीन की लूट करवाने के तरीकों को बदल दिया है। जमीन के बड़े लुटेरों को भय पैदा करने वाली कोई धारा इस भू-कानून में नहीं है।
मनोज रावत, पूर्व विधायक केदारनाथ
बताया यह भी गया कि ये सारा खेल केंद्र के कुछ खास लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए किया गया। उद्योगपतियों और मोदी सरकार के इर्द-गिर्द घेरा डाले बड़े उद्योगपतियों के निर्देशन पर 2018 का पूरा भूमि कानून का मसौदा तैयार हुआ और उसे राज्य हितों को तिलांजलि देते हुए लागू कर दिया गया। इससे सबसे अधिक फायदा योग गुरु रामदेव को हुआ। लोगों का तो यहां तक कहना है कि पतंजलि को बड़े स्तर पर प्रदेश में जमीनों की जरूरत थी जिसे पूरा करने के लिए ही त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार में यह संशोधन किया गया।
इसके मद्देनजर ही आननफानन में देहरादून में इन्वेस्टर समिट हुआ। मीडिया ने इसे बढ़ा-चढ़ाकर प्रसारित किया और कहा कि उत्तराखण्ड के विकास में अब चार चांद लगाने वाले हैं। बड़े उद्योग धंधे के जरिए आम लोगों व नौजवानों को घर बैठे रोजगार मिलेगा। तब त्रिवेंद्र सिंह सरकार ने दावा किया था कि उत्तराखण्ड में सवा लाख करोड़ रुपए के निवेश के प्रस्ताव मिल चुके हैं। इन दावों में कितनी सत्यता है यह सब जानते हैं।
2018 के कानून में भूमि खरीदने की सीमा को समाप्त कर देना एक बड़ी गलती थी, परंतु उस दौरान 2018 के भू-कानून में एक प्रावधान रखा गया था कि कोई भी व्यक्ति जिस उद्देश्य के लिए जमीन खरीदेगा तीन वर्ष में उस जमीन का उपयोग उस उद्देश्य के लिए करना होगा। ऐसा न होने पर इस प्रकार की जमीनों को सरकारी सम्पत्ति में निहित किया जाएगा। परंतु धामी सरकार ने भू-माफियाओं से सांठ-गांठ कर वर्तमान के भू-कानून में इस बिंदु को समाप्त कर दिया जिससे भू-माफियाओं को राहत मिली, परंतु उत्तराखण्ड सरकार को मिलने वाले राजस्व को बहुत बड़ा चुना लगा है। धामी सरकार ने इस प्रावधान को हटाकर प्रदेश के साथ कितना बड़ा छल किया है भविष्य में उत्तराखण्ड की जनता उसे अपनी खुली आंखों से देखेगी।
बाॅबी पंवार, अध्यक्ष, उत्तराखण्ड स्वाभिमान मोर्चा
लोगों का कहना है कि उत्तराखण्ड में खाली होते गांव, कम होते रोजगार और पलायन के बाद लगातार बाहरियों का आगमन और पर्वतीय क्षेत्रों में निर्माण कार्यों में बहुलता होने से यहां डेमोग्राफिक बदलाव का खतरा पैदा हो गया है। आरोप है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार में हुए संशोधन के कारण यहां बड़ी संख्या में जमीनें खरीदी और बेची जाने लगी थी। जमीन के जानकारों की माने तो उत्तराखण्ड में कृषि भूमि का रकबा अब केवल 9 से 10 प्रतिशत के आस-पास ही रह गया है। आज प्रदेश की जनता पूछ रही है कि जमीन की खुली बिक्री के लिए कानून बना कर त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने किसका हित साधा? कही यह जमीन के चंद सौदागरों के धंधे को जारी रखने के लिए तो नहीं किया गया?
ये ‘खेला’ किसके लिए
वेंद्र सिंह रावत सरकार ने यूपीजेडएलआर (उत्तर प्रदेश जमीदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम 1950) की मूल धाराओं में वर्ष 2018 में कई संशोधन कर डालें। ‘दि संडे पोस्ट’ के पास मौजूद यह दस्तावेज इसकी पुष्टि करते हैं कि इनके जरिए रसूखदार लोगों को फायदा पहुंचाने की नीयत से ऐसा किया गया।
धारा 154 (1) और बंदिशें खत्म
21 दिसम्बर 2018 से पहले उत्तराखण्ड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश और भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) के अंतर्गत उत्तराखण्ड में भी किसी को 12.5 एकड़ से अधिक जमीन खरीदने की छूट नहीं थी। लेकिन त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने इस अधिनियम की धारा 154 में संशोधन किया और 1 जोड़कर इसे उपधारा 154 (1) बनाया।
धारा 154 के उपधारा 154 (1) होते ही 12.5 एकड़ जमीन की प्रतिबद्धता की शर्त खत्म कर दी गई। इस शर्त के खत्म होते ही उन लोगों के लिए द्वार खुल गए जो उत्तराखण्ड में उद्योग धंधों के नाम पर बड़ी तादाद में जमीन लेने की कोशिशों में जुटे थे।
धारा 143 की उपधारा (क) एक के साथ एक फ्री का तोहफा
इसके बाद त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने धारा 143 में संशोधन कराया। धारा 143 के अंतर्गत पूर्व में यह होता रहा है कि कृषि की जमीन को औद्योगिक प्रयोजन में परिवर्तित करने के लिए प्रशासनिक स्तर पर स्वीकृति ली जाती थी। उसके लिए पटवारी से लेकर जिलाधिकारी तक एक प्रक्रिया होती थी। लेकिन त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने उन लोगों के लिए धारा 143 का तोहफा दे दिया जो धारा 154 से आच्छादित थे। इसके लिए रावत सरकार ने अध्यादेश लाते हुए धारा 143 में उपधारा (क) जोड़ दी। इसके चलते उद्योगपतियों को लैंड यूज चेंज करने की मेहनत से दो-चार नहीं होना पड़ा। उन्हें प्रशासनिक अधिकारियों के चक्कर नहीं काटने पड़े और बैठे बिताए ही उनकी जमीन कृषि से औद्योगिक में परिवर्तित हो गई।
धारा 154 की उपधारा (2) से उधोग की सीमा में सहकारिता
धारा 154 की उपधारा (1) को लागू कर औद्योगिक प्रयोजन के लिए 12.5 एकड़ जमीन की लिमिट खत्म करने के बाद त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार 154 की उपधारा (2) का अध्यादेश भी लाई। इसके तहत औद्योगिक परिक्षेत्र का विस्तार कर दिया गया। पूर्व में उद्योग धंधे ही लगाने के लिए सरकार स्वीकृति देती रही। लेकिन त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने बड़ी सफाई से मेडिकल, शिक्षा, स्वास्थ्य और कोऑपरेटिव सोसाइटियों को भी उद्योग में ही जोड़ दिया। शायद यह इसलिए किया गया कि उक्त को भी 12ः30 एकड़ से अधिक जमीन दी जानी थी। सबसे चैंकाने वाली बात यह रही की औद्योगिक प्रयोजन के लिए पंजीकृत सहकारी समिति या दानोततर संस्थाएं इसी औद्योगिक परियोजन में शामिल कर ली गई। बताया गया कि ऐसा करने के पीछे त्रिवेंद्र रावत सरकार की मंशा स्वामी रामदेव और उनकी पतंजलि संस्था को जमीन देना था। यह सम्भव करने के लिए ही धारा 154 में उपधारा (2) को जोड़ दिया गया।
धारा 156 की उपधारा (1) के खण्ड (ग) में दिए 30 साल के पट्टे
मूल अधिनियम की धारा 157 (1) में ‘ग’ जोड़कर त्रिवेंद्र सरकार ने कृषि बागवानी, जड़ी-बूटी उत्पादन, बेमौसमी सब्जियों, औषधीय पादपों एवं सुगंधित पुष्पों, मसालों का उत्पादन, वृक्षारोपण, पशुपालन एवं दुग्ध उत्पादन, मुर्गी पालन तथा पशुधन प्रजनन, मधुमक्खी पालन, मत्स्य पालन, कृषि एवं फल प्रसंस्करण, चाय बागान एवं प्रसंस्करण तथा वैकल्पिक ऊर्जा परियोजनाओं के लिए किसी संस्था, समिति, न्यास, फर्म, कम्पनी एवं स्वयं सहायता समूह को पट्टे पर शर्तें निर्धारित करते हुए अधिकतम 30 वर्षों के लिए पट्टे दे दिए गए। यही नहीं बल्कि त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने पट्टा किराया निर्धारित करते हुए नगद, उपज अथवा उपज के किसी अंश को सम्मिलित कर अनोखा काम कर डाला।


जिस दिन यह कानून विधानसभा में पारित हुआ मुझे केदारनाथ के तत्कालीन विधायक मनोज रावत का फोन आया। उन्होंने बताया कि मैंने अकेले ही इस कानून का विरोध किया। मैंने तत्काल इसके विरोध में बयान दिया और सरकार को आगाह किया कि आपका यह कानून राज्य निर्माण भावना को ही नष्ट कर रहा है। मेरी आशंका सही साबित हुई। भाजपा प्रेम में लम्बे समय तक लोग भाजपा नीत सरकार के इस अपराध को अनदेखा करते रहे और परिणाम स्वरूप हमारे बहुमूल्य सम्पदा का एक बड़ा हिस्सा बिक गया। जमीन खरीदने वाले कौन है और उनकी पृष्ठभूमि क्या है। उनका उद्देश्य क्या है, इसकी किसी को जानकारी नहीं है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी जी प्रदेश में डेमोग्राफिक चेंज की बात तो करते हैं लेकिन उनकी नाक के नीचे ही खड़ा एक उदाहरण को वह अनदेखा कर रहे हैं। अपनी गलती को सुधारने के लिए कानून लाने में श्री धामी ने देर कर दी और अभी भी राज्य के दो जिलों में खरीद-फरोख्त का दरवाजा खुला रखा है। सरकार को इस भू-घोटाला महापाप पर श्वेत पत्र लाना चाहिए।
2018 में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने उत्तराखण्ड में भू-कानून में संशोधन कर धारा 143(क) और धारा 154(2) जोड़ीं। इन संशोधनों ने पहाड़ी क्षेत्रों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को समाप्त कर दिया और गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए कृषि भूमि के उपयोग को आसान बना दिया। सरकार का तर्क था कि यह कदम निवेश और औद्योगिक विकास को बढ़ावा देगा। हालांकि, इस फैसले का व्यापक विरोध हुआ और इसके कई नकारात्मक परिणाम सामने आए। संशोधन ने बाहरी राज्यों के लोगों के लिए उत्तराखण्ड में असीमित मात्रा में जमीन खरीदने का रास्ता खोल दिया। इससे पहाड़ी क्षेत्रों में जन सांख्यिकीय बदलाव तेज हुए, जिसने स्थानीय संस्कृति, भाषा और परंपराओं को खतरे में डाल दिया। उत्तराखण्ड की विशिष्ट हिमालयी पहचान, जिसके लिए राज्य का गठन हुआ था, पर संकट मंडराने लगा। बाहरी लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर जमीन खरीदने पर स्थानीय लोगों में यह डर पैदा हुआ कि उनकी सांस्कृतिक विरासत कमजोर हो रही है। संशोधन ने कृषि भूमि को गैर-कृषि उद्देश्यों (जैसे रिसाॅर्ट, बंगले और औद्योगिक इकाइयों) के लिए उपयोग करना आसान बना दिया। इससे हिमालयी क्षेत्र की नाजुक पारिस्थितिकी पर दबाव बढ़ा। बाहरी लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर जमीन खरीद ने स्थानीय स्तर पर जमीन की कीमतें बढ़ा दीं, जिससे स्थानीय लोग, विशेष रूप से गरीब और मध्यम वर्ग, जमीन खरीदने में असमर्थ हो गए। संशोधन ने भूमि माफियाओं को प्रोत्साहन दिया, जिन्होंने सस्ती कीमतों पर स्थानीय लोगों से जमीन खरीदकर उसे महंगे दामों पर बाहरी लोगों को बेचा। इससे स्थानीय लोगों का शोषण हुआ। संशोधन ने स्थानीय लोगों को अपनी जमीन बेचने के लिए मजबूर किया, क्योंकि बाहरी निवेशकों ने ऊंची कीमतें दीं। इससे पलायन बढ़ा और पहाड़ी क्षेत्रों में गांव खाली होने लगे।
6 दिसम्बर 2018 उत्तराखण्ड के इतिहास में काले दिन के रूप में जाना जाएगा। इस दिन उत्तराखण्ड विधानसभा में, उत्तराखण्ड (उत्तर प्रदेश) जंमीदारी विनाश और भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950 की दो धाराओं में ऐसे बदलाव किए गए कि उत्तराखण्ड में भूमि का मालिक किसान, अब अपनी ही भूमि पर नौकर हो गया। सरकार ने इन बदलाओं के द्वारा अपने करीबी धन्ना सेठों और बाबाओं को उत्तराखण्ड के नए जमींदार बनने का खुला मौका दिया है। 143 और 154 में परिवर्तन के अलावा सरकार ने निर्ममता पूर्वक उत्तराखण्ड के भू-कानून में लगभग एक दर्जन बाद परिवर्तन कर लूट की छूट दी। बाद में 2022 भाजपा सरकार ने 143 क को समाप्त कर थोड़ी-बहुत रोक को भी हटा लिया। सरकार ने ये सारे काम अपने चहेते लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए किए थे। इतिहास में जब भी इन परिवर्तनों तो यही कहा जाएगा कि ये काल जमीनों की लूट का युग था। हाल के संशोधनों से जमीन की लूट करवाने के तरीकों को बदल दिया है। जमीन के बड़े लुटेरों को भय पैदा करने वाली कोई धारा इस भू-कानून में नहीं है।
2018 के कानून में भूमि खरीदने की सीमा को समाप्त कर देना एक बड़ी गलती थी, परंतु उस दौरान 2018 के भू-कानून में एक प्रावधान रखा गया था कि कोई भी व्यक्ति जिस उद्देश्य के लिए जमीन खरीदेगा तीन वर्ष में उस जमीन का उपयोग उस उद्देश्य के लिए करना होगा। ऐसा न होने पर इस प्रकार की जमीनों को सरकारी सम्पत्ति में निहित किया जाएगा। परंतु धामी सरकार ने भू-माफियाओं से सांठ-गांठ कर वर्तमान के भू-कानून में इस बिंदु को समाप्त कर दिया जिससे भू-माफियाओं को राहत मिली, परंतु उत्तराखण्ड सरकार को मिलने वाले राजस्व को बहुत बड़ा चुना लगा है। धामी सरकार ने इस प्रावधान को हटाकर प्रदेश के साथ कितना बड़ा छल किया है भविष्य में उत्तराखण्ड की जनता उसे अपनी खुली आंखों से देखेगी।