राजीव गांधी के इस सख्त कदम से सहमी जयवर्धने सरकार ने तमिल समस्या का हल तलाशने में भारत के प्रयासों को वैधानिक रूप देते हुए भारत के साथ ‘भारत-श्रीलंका शांति समझौता’ पर हस्ताक्षर कर दिए, साथ ही लिट्टे उग्रपंथियों ने आत्मसमर्पण के लिए भारतीय सेना की जाफना में तैनाती पर सहमति बनी थी। श्रीलंकाई तमिलों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए कई रियायतें दी गई थीं। इस समझौते में शांति सेना भारतीय सेना का वहां जाना बतौर शांति तो स्थापित कर पाने में पूरी तरह विफल रहा ही, कालांतर में राजीव गांधी की हत्या का कारण भी बना।
भारतीय शांति सेना को जाफना में तैनात करने का उद्देश्य लिट्टे उग्रपंथियों का आत्मसमर्पण कराना था। भारतीय दृष्टि से यह समझौता ऐतिहासिक था, जिसके जरिए श्रीलंका में भारत विरोधी गतिविधियों में पूरी तरह से रोक, विदेशी रेडियो ब्रॉडकास्टिंग कम्पनियों को श्रीलंका में अपने प्रसारण केंद्र खोलने की इजाजत न देना और श्रीलंका के त्रिकोमाली समुद्र तट पर किसी भी विदेशी सेना को सैन्य बेस बनाने की स्वीकृत न देना जैसे संवेदनशील मुद्दे शामिल थे। तब यह समझौता दक्षिण एशिया में भारत के बढ़ते प्रभाव के तौर पर देखा गया था, लेकिन श्रीलंका में इस समझौते के बाद भी शांति स्थापित नहीं हो पाई। लिट्टे उग्रवादियों ने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर इस समझौते की नींव हिलाने का काम जल्द ही शुरू कर दिया था। अब श्रीलंकाई सेना के बजाए भारतीय शांति सेना के साथ उन्होंने जंग छेड़ दी। अक्टूबर, 1987 में शांति सेना ने लिट्टे के कई उग्रवादियों को पकड़ लिया था। इन उग्रवादियों को श्रीलंका सेना के हवाले किया जाना था, लेकिन इन्होंने ‘साइनाइड कैप्सूल’ खाकर अपनी जान दे दी। भारतीय शांति सेना को यह जानकारी नहीं थी कि लिट्टे के लड़ाके अपने साथ यह जानलेवा कैप्सूल रखते हैं और पकड़े जाने पर इसको चलाकर अपनी जान दे देते हैं। इस घटना के बाद लिट्टे नेता वेलूपिल्लई प्रभाकरण ने भारतीय शांति सेना के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर डाला। भारतीय शांति सेना श्रीलंका में पौने तीन साल तक रही। इस दौरान उसके 1,165 जवान लिट्टे के हाथों मारे गए। इस सैन्य अभियान में लगभग पौने ग्यारह हजार करोड़ रुपए भारत द्वारा खर्च किए गए थे। दिसम्बर, 1989 में राजीव सरकार के पतन के बाद प्रधानमंत्री बने विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इस मिशन को समाप्त कर भारतीय शांति सेना को वापस बुला लिया था। राजीव गांधी सरकार ने श्रीलंका सरकार के साथ समझौता करने से पूर्व लिट्टे नेता प्रभाकरण के साथ विस्तृत बातचीत की थी। बकौल राजीव गांधी, समझौते की असफलता के लिए तमिल टाइगर्स जिम्मेदार रहा। 1988 में संसद में राजीव गांधी ने इस बाबत कहा- ‘हमें दिए अपने हर वायदे से वे (लिट्टे) मुकर गए। ऐसा उनके द्वारा जान-बूझकर समझौता तोड़ने के उद्देश्य से किया गया, क्योंकि या तो ये ऐसा चाहते नहीं हैं या फिर आतंकवाद की राह छोड़कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपना नहीं पा रहे हैं। उन्होंने हमें समझौते का पालन करने का वचन दिया था, अब हमारे खिलाफ ही झूठा प्रचार कर रहे हैं।’
राजीव सरकार द्वारा मुस्लिम तुष्टिकरण के चलते शाहबानो पर उच्चतम न्यायालय के निर्णय को संसद में कानून लाकर पलटना और फिर हिंदू तुष्टिकरण के लिए अयोध्या स्थित राम मंदिर के ताले खोलने का एक बड़ा असर बहुसंख्यक हिंदू समाज का उग्र होकर मुसलमानों के प्रति गहरी नफरत के रूप में सामने आने का समय अब शुरू हो चला था। 1987 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी, जिसकी कमान वीर बहादुर सिंह के हाथों में थी। ‘रामायण’ धारावाहिक का जलवा हिंदूवादी ताकतों को मजबूती देने लगा था और विश्व हिंदू परिषद् तथा बजरंग दल जैसे संगठन अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण आंदोलन को धार देने में जुट चुके थे।
हिंदू मतावलम्बियों के लिए राम धरती पर भगवान का अवतार हैं। उन्हें ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहकर पुकारा जाता है। दलितों, शोषितों और वंचितों के सम्मान की लड़ाई के लिए राजपाट न्यौछावर करने वाले राम के नाम पर इस देश में निरपराधों का खून बहाए जाने और इस खून की नदी के सहारे देश की सत्ता पर काबिज होने का प्रयास राजीव गांधी के दौर में अपने चरम पर पहुंचा था। राम वह पौराणिक चरित्र हैं, जिन्होंने अपने पिता सम्राट दशरथ के वचनों की रक्षा करने के लिए 14 बरस का वनवास स्वीकारा था। राम के विशाल चरित्र को वनवास के समय उनके और उनकी माता कौशल्या और सुमित्रा के मध्य संवाद से तथा वर्तमान परिपेक्ष्य में उनकी छवि को भुनाने वालों के चाल-चरित्र और चेहरे को बेहतर समझा जा सकता है। पिता दशरथ और सौतेली मां केकैयी से वनवास जाने का आदेश सुनकर राम उसे सहर्ष स्वीकार कर मां कौशल्या को यह समाचार देने उनके महल जाते हैं। कौशल्या राम के राज्याभिषेक की तैयारियों में डूबी हैं। उन्हें हल्का-सा भी भान नहीं कि युवराज बनने के बजाए उनका पुत्र वनवासी बनने जा रहा है। राम मां कौशल्या के कक्ष में प्रवेश करते हैं। इस दृश्य को हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक नरेंद्र कोहली ने रामकथा पर आधारित अपनी सात खण्डों वाली उपन्यास- श्ंृखला के दूसरे खण्ड ‘अवसर’ में कुछ यूं चित्रित किया है- ‘प्रकट ललक के साथ कौशल्या राम की ओर उन्मुख हुईं। उनकी आकृति पर उल्लास की असाधारण दीप्ति थी, किंतु राम के मुख पर उल्लास का कोई चिन्ह नहीं था। वे अत्यंत गम्भीर, स्थिर तथा आत्मनियंत्रित लग रहे थे।’
‘‘क्या बात है राम?’’
राम स्थिर दृष्टि से शून्य में देखते रहे, ‘‘मां! पिता-प्रदत्त दो पूर्वतन वरदानों के आधार पर माता कैकेयी ने भरत को अयोध्या का राज्य और मुझे चौदह वर्षों के लिए दण्डकारण्य का वास दिया है।’’
कौशल्या ने अचकचाकर, पलकें झपक-झपककर, राम को देखा …नहीं। यह परिहास नहीं हो सकता। राम ऐसा परिहास नहीं कर सकता। वह सत्य कह रहा है …कौशल्या स्तम्भित रह गईं। उनकी सांस जहां की तहां रह गई। प्राण-शक्ति जैसे किसी ने खींच ली। वर्ण सफेद हो गया और माथे पर स्वेद-कण उभर आए। अपनी जीभ से होंठों को गीला करने में भी उनको एक युग लग गया।
‘‘राम!’’ ‘‘मैं जा रहा हूं मां! विदा दो।’’
राम ने झुककर कौशल्या के चरण छुए।
‘‘तुम वन जाने का निश्चय त्याग नहीं सकते पुत्र?’’
‘‘असम्भव!’’ राम का स्वर दृढ़ था।
कौशल्या ने भौंचक दृष्टि से राम को देखा। उनके चेहरे की दृढ़ता से कौशल्या के मन की आशा का आधार जैसे थर्राकर गिर पड़ा, साथ ही उनका शरीर भी झटके से भूमि पर चला आया। सुमित्रा और राम ने कौशल्या को संभाला और पलंग पर लिटा दिया।
कौशल्या ने धीरे से आंखें खोलकर राम को देखा और फिर अपनी दृष्टि सुमित्रा पर टिका दी, ‘‘इसे रोक सुमित्रे! केकैयी तो बहाना है। यह स्वयं ही वन जाने को तुला बैठा है।’’कौशल्या की शक्ति जैसे समाप्त हो गई, वह निढाल होकर चुप हो गईं। सुमित्रा चुप न रह पाईं। बोलीं, ‘‘इस प्रकार के आदेशों को स्वीकार करना क्या धर्म है राम! तुम अपना अधिकार ही नहीं छोड़ रहे, केकैयी के अत्याचार का समर्थन भी कर रहे हो। अपने बल को पहचानों पुत्र! तुम्हारे एक संकेत पर कौशल की प्रजा कामुक सम्राट को मार्ग से हटा तुम्हारा अभिषेक कर देगी और प्रजा को भी रहने दो। अकेला लक्ष्मण इन दुष्टों को दण्ड देने में पूरी तरह समर्थ है।’’
राम मुस्कराए, ‘‘मां! धर्म क्या है, कहना बड़ा कठिन है। वह कब संघर्ष में है और कब त्याग में, इसकी परख आवश्यक है। पूर्ण सत्य हमारे सम्मुख प्रत्यक्ष नहीं होता। उस अज्ञात सत्य, उन अनदेखी परिस्थितियों के प्रति हमारा दायित्व है, यह भी नहीं जानते। भाई-बांधवों की हत्याएं कर रक्त के सरोवर में तैर, एक पिशाच के समान राजसिंहासन तक पहुंचना, मेरे जीवन का लक्ष्य नहीं है। इस समय वन जाना ही मेरा कर्तव्य है। मां! मैं न सम्राट के बल से भयभीत हूं, न भरत के तथा अपने और लक्ष्मण के बल से भी अनभिज्ञ नहीं हूं, किंतु अभी बल-प्रदर्शन का समय नहीं आया। मां! मुझे जाने दो…’’
‘‘ठहरो राम!’’ सुमित्रा का स्वर त्वरित था, ‘‘जल्दी न भागो। बताओ, सम्राट ने अपने मुख से तुम्हें वन जाने को कहा है?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘फिर यह सम्राट का आदेश कैसे है?’’
‘‘आदेश की बात मैं नहीं कहता।’’ राम मुस्कराए, ‘‘अपने कर्तव्य की बात कहता हूं। उसी के पालन के लिए जा रहा हूं।’’
‘‘पिता ने नहीं कहा, तो भी?’’
‘‘डूबता हुआ आदमी न कहे, तो भी उसे बचाना कर्तव्य है।’’
ऐसे विशाल चरित्र वाले मर्यादा पुरुषोत्तम राम के देश में उनके नाम का जाप करने वालों ने 22 मई, 1987 को 42 निरपराध लोगों की नृशंस हत्या को मात्र इसलिए अंजाम दे दिया क्योंकि वे सभी मुसलमान थे। यह हत्याकाण्ड इसलिए भी पूर्व में हुए असंख्य हिंदू -मुसलमान दंगों की बनिस्वत ज्यादा भयावह है, क्योंकि हत्यारे उत्तर प्रदेश के पुलिसकर्मी थे और मारे गए सभी उनकी गैर-कानूनी हिरासत में थे। यह हिरासती हत्याकाण्ड ‘हाशिमपुरा नरसंहार’ के रूप में कुख्यात है। उत्तर प्रदेश के जिस जिले गाजियाबाद में इसे अंजाम दिया गया था, वहां के तत्कालीन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक विभूति नारायण राय की आत्मा यदि उन्हें नहीं कचोटती तो यह मामला शायद कभी प्रकाश में न आ पाता। राय ने भारतीय पुलिस सेवा से निवृत्ति के बाद इस पूरे प्रकरण पर एक पुस्तक ‘हाशिमपुरा 22 मई’ लिखी, जिसमें उन्होंने इस काण्ड की विस्तार से चर्चा करते हुए इसे भारतीय गणतंत्र का सबसे ‘शर्मनाक हादसा’ करार दिया है। राय इस पुस्तक के प्राक्कथन में लिखते हैं- ‘‘22 मई, 1987 की आधी रात गाजियाबाद शहर से सिर्फ 15-20 किलोमीटर दूर मकनपुर गांव की नहर की नीम अंधेरी पुलिया पर स्तब्ध खड़ा मैं स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े हिरासती हत्याकाण्ड का गवाह बना था। सामने मद्दम गति से दिल्ली की ओर बहता गंदला पानी था, जो किनारे उगी सरकंडे की घनी झाड़ियों से टकरा कर टूट-टूट जा रहा था और पानी तथा संरकंडों के गुंजलकों में कुछ इंसानी लाशें थीं, जिनके जख्मों से तब भी खून टपक रहा था। सब कुछ इतना अविश्वसनीय और लोमहर्षक था कि उस घटनास्थल पर मिले एकमात्र जीवित बाबूद्दीन के दिए गए विवरण प्रारम्भ में हमें किसी रहस्यलोक की प्रेतगाथा की तरह लगे अगले कुछ घण्टों तक हमने उसके बयान, घटना-स्थल से मिले सबूतों और मुरादनगर कस्बे के दूसरे घटना-स्थल गंगनहर से हासिल जानकारियों को जब टुकड़े-टुकड़े करके जोड़ा तो हमारे सामने भारतीय राज्य और अल्पसंख्यकों के आपसी रिश्तों को परिभाषित करने वाली और किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को झकझोर देने वाली एक ऐसी अपराध-कथा उद्घाटित हुई, जो किसी भी धर्मनिरपेक्ष समाज के लिए एक बड़ी चुनौती साबित हो सकती थी।’’
तब उत्तर प्रदेश की तत्कालीन वीर बहादुर सिंह सरकार ने इस पूरे प्रकरण को रफा-दफा करने का पूरा प्रयास किया था। विभूति नारायण राय का जमीर यदि उन्हें नहीं कचोटता तो शायद हाशिमपुरा का सच कभी सामने नहीं आ पाता। बकौल राय, ‘नवभारत टाइम्स’ जैसे प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक के अति प्रतिष्ठित सम्पादक राजेंद्र माथुर तक इस समाचार को प्रकाशित करने से कन्नी काट गए थे। राय लिखते हैं- …सबसे पहले तो अखबारों ने इसे बहुत कम तवज्जो दी, ज्यादातर ने इसे अंदर कोने-अतरों में छापा और सरकारी हलकों ने फौरन इस तरह की घटना से ही इनकार करने का राग अलापना शुरू कर दिया …मैं अक्सर सोचता हूं कि क्या यह सिर्फ अपनी नालायकी छिपाने का प्रयास था या इसके पीछे छिपी वह साम्प्रदायिक दुर्भावना थी, जो हममें से अधिकांश अपने भीतर छिपाए रहते हैं और मौका पाते ही जो बाहर निकल आती है …ऐसे मुश्किल समय में बहुत कम लोग थे, जो अपना विवेक बचा सके थे और यह सिर्फ पत्रकारिता के लिए ही सही नहीं था, अकादमिक जगत, न्यायपालिका, नौकरशाही, कॉरपोरेट सेक्टर-गरज यह कि कोई क्षेत्र इस अंधड़ से अछूता नहीं बचा था। तो क्या राजेंद्र माथुर भी उसी भीड़ के अंग बन गए थे? …बहरहाल यह तथ्य तो अपनी जगह बना ही रहेगा कि राजेंद्र माथुर के सम्पादन में छपने वाले और उस समय के देश के सबसे महत्वपूर्ण हिंदी दैनिक में आजादी के बाद की सबसे बड़ी हिरासती हत्या की खबर नहीं छपी और मेरे मन की यह जिज्ञासा आज भी अनुत्तरित ही है कि कहीं राजेंद्र माथुर भी तो उस समय उठने वाली साम्प्रदायिकता की उद्दाम लहरों में बह तो नहीं गए थे?

