Uttarakhand

च्यूड़े से समृद्धि का आशीर्वचन

देवभूमि उत्तराखण्ड की एक खासियत यह रही है कि यहां मनाए जाने वाले हर पर्व या त्यौहार की अपनी एक विशिष्टता होती है। इसे मनाने का अलग अंदाज होता है। यहां का हर पर्व प्रकृति के साथ जुड़ा होता है। यहां मनाए जाने वाले वाले हर पर्व में प्रकृति से जुड़ाव अवश्य दिखता है। इसी तरह दीपपर्व के भाई दूज का त्यौहार भी यहां अनोखे अंदाज में मनाया जाता है। इस दिन धान से बने चूड़ा और ओखल की पूजा भी होती है। यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है। यह यहां की लोक संस्कृति का हिस्सा है। यह प्रकृति व मानव जीवन के संबंधों को बेहतरीन तरीके से अभिव्यक्त करता है। चूड़ा बनाने के लिए दीपावली से तीन या पांच रोज पूर्व इसे भिगाया जाता है। पूजा के दिन कढ़ाई में इसे कुछ देर आग में भूना जाता है।

गर्म होने के बाद उसे मूसलों से ओखली में कूटा जाता है। पहले इसे घर के देवताओं को चढ़ाया जाता है। उसके बाद लोग अपने ईष्ट देव, कुल देवता को इसे चढ़ाते हैं। त्यौहार को बहनें भाई को इन्हीं च्यूड़ों से आशीर्वचन देती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में भाई दूज के दिन बहनें च्यूड़ा पूजने के लिए आज भी अपने मायके आती हैं। इस दिन घर की बुजुर्ग महिलाएं भी च्यूडों को घी, तेल व दूब में मिलाकार अपने बच्चों के पैरों, घुटनों, कंधों को छुआते हुए उनका पूजन करती हैं। इस दौरान जी रये, जाग रयै का आशीर्वचन देती हैं। च्यूड़ों के साथ लोग वर्षभर अच्छी फसल की कामना करते हैं।

नए धान से च्यूड़े बनाने की परंपरा व इसे अपने ईष्ट देवताओं को चढ़ाने के दौरान जो अच्छी फसल की कामना की जाती है वह प्रकृति व खेतों के प्रति इनकी कृतज्ञता को भी दर्शाती है। यह कहीं न कहीं प्रकृति को धन्यवाद देने की प्रथा है कि अगर हम प्रकृति से कुछ ले रहे हैं तो हमें उसका ऋणी भी होना चाहिए। वहीं यह पीढ़ी दर पीढ़ी मानव समृद्धि की उम्मीदों का भी प्रतीक है। इस दिन कुल पुरोहित यजमानों के घर जाकर च्यूड़े उनके सिर में रख आशीर्वाद भी देते हैं। आज भी बाहरी प्रदेशों में रहने वाले लोगों के लिए उनके परिजन च्यूड़ा भेजते हैं। यह भाई, बहनों के रिश्ते की पवित्रता का भी प्रतीक है। इसमें भाई, बहनों का एक दूसरे के प्रति समर्पण भी दिखता है।

लोक मान्यता के अनुसार इस दिन यम अपनी बहन यमुना के घर गए थे, इसलिए इसे यम द्वितीया भी कहते हैं। आधुनिकता के इस दौर में भी पर्वतीय अंचलांे में यह समृद्ध परंपरा आज भी जिंदा है। हालांकि कई लोग आधुनिकता के चलते खिल से परिजनों का पूजन करने लगे हैं लेकिन कम से कम गांव के लोगों ने इस पंरपरा को अभी भी जिंदा रखा हुआ है। इसी तरह हरेला, फूलदेई, बसंत पंचमी, भिटौली, बट- सावित्री, गंगा दशहरा, डीकर पूजा, घी संक्रांति, खतरूआ, घुघुतिया आदि पर्व प्रकृति से इतने जुड़े हुए हैं, जो प्रकृति व मानव संबंधों की व्याख्या करने भर को काफी हैं।

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