Uttarakhand

रिवर्स माइग्रेशन का बर्सू मॉडल

एक कहावत तो आपने सुनी ही होगी ‘पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी, पहाड़ के काम नहीं आती’ यह बात आज के समय में भी उत्तराखण्ड में बिल्कुल सटीक बैठती है। पहाड़ों से निरंतर हो रहे पलायन करने वालों में सर्वाधिक युवा वर्ग है। रोजगार के नाम पर पहाड़ों पर कुछ भी नहीं है। जिस कारण युवा रोजी-रोटी की तलाश में दूसरे शहरों में पलायन करने को मजबूर हो रहे हैं। ऐसे में बर्सू गांव के विजय सेमवाल ने अपनी मेहनत के बल पर मिसाल काम की है। उन्होंने न केवल पलायन को आईना दिखाया है, बल्कि पहाड़ों पर हरियाली लाकर खेत-खलिहान को पुनर्जीवित कर दिखाया है। आज विजय सेमवाल की कड़ी मेहनत से बर्सू गांव रिवर्स माइग्रेशन का मॉडल बन चुका है

विजय सेमवाल की मेहनत लाई रंग

राज्य बनने के 24 साल बाद भी पहाड़़ से बदस्तूर पलायन को नहीं रोका जा सका। पिछले ढाई दशकों के दौरान मूलभूत सुविधाओं के अभाव में पहाड़ों से पलायन तेजी से बढ़ा है। खासतौर पर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए पहाड़ों से पलायन हुआ। जिस वजह से कई गांव ‘घोस्ट विलेज’ के रूप में चर्चित हो गए। वहीं इस दौरान उत्तराखण्ड के कई युवाओं ने वीरान पहाड़़ों की बंजर भूमि में अपनी मेहनत से उम्मीदों की फसल भी लहलाई है। ऐसे ही एक युवा हैं रूद्रप्रयाग जनपद के बर्सू गांव के विजय सेमवाल जिन्होंने रिवर्स माइग्रेशन के जरिए पहाड़़ों में
स्वरोजगार की नई इबादत लिखी है।

जनपद चमोली से अलग हो बने जनपद रूद्रप्रयाग में पलायन ने दशकों पूर्व ही खूबसूरत बर्सू गांव को अपने आगोश में ले लिया था जिसके चलते गांव पूरी तरह से खंडर में तब्दील हो गया था। कभी 60 से अधिक परिवारों की खुशियों का गवाह रहे इस गांव में चारों ओर पसरा सन्नाटा काटने को दौड़ता है। आज गांव के अधिकांश मकानें जीर्ण-शीर्ण स्थिति में हैं। कई मकानों में झाड़ियों की जमघट है तो कई मकानें अपनों के इंतजार की बाट जोह रही है कि कोई आएगा…? इस गांव के अधिकतर लोग रूद्रप्रयाग शहर के निकट पुनाड गांव में बस चुके हैं। अब लेकिन इस गांव में पसरे सन्नाटे को दूर करने का बीड़ा उठाया है गांव के ही युवा विजय सेमवाल ने जिन्होंने 10 साल पहले 2014 में वापस अपनी माटी का रुख किया और गांव की बंजर भूमि में अपनी मेहनत से पहाड़ों को हरा-भरा किया। विजय ने यहां पर सब्जी उत्पादन, फल उत्पादन, फूल उत्पादन, पशुपालन, मुर्गी पालन के जरिए स्वरोजगार की मशाल जलाई है।

 

माटी से आर्थिकी हुई मजबूत…
विजय सेमवाल बर्सू गांव में सब्जी उत्पादन कर चर्चाओं में हैं। वे लहसून, प्याज, मटर, मूली, खीरा, लौकी, भिंडी, राई, पालक, करेला, तोरई, बैंगन शिमला मिर्च सहित अन्य सब्जियों से अच्छी-

लहसून की फसल हुई तैयार

खासी आमदनी और मुनाफा भी कमाते हैं। इसके अलावा वे हर साल 100 पेड़ लगाते हैं। उन्होंने गांव में आम, अमरूद, कटहल, नींबू, केला, अनार, लीची, इमली के सैकड़ों पेड़ लगाए हैं। सब्जी उत्पादन के अलावा वे पहाड़ी दालों तोर, गहत इत्यादि का उत्पादन भी करते हैं। उन्होंने 14 गायों को भी पाला है और उनकी देखरेख भी करते हैं। जबकि मुर्गी पालन को भी उन्होंने रोजगार का जरिया बनाया है। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि बर्सू गांव रिवर्स माइग्रेशन की चलती फिरती पाठशाला है जहां आप स्वरोजगार के विभिन्न मॉडल धरातल पर क्रियान्वित होते देख सकते हैं।

45 साल बाद गांव की माटी में हुई धान की रोपाई छलछला गई आंखें…

सुनहरे भविष्य के लिए बर्सू गांव से हुआ पलायन गांव को वीरानगी और सन्नाटा उपहार में दे गया। खेत खलिहान बंजर हो गए तो मकानें खंडर में तब्दील हुए। लेकिन 45 साल बाद 2021 में विजय सेमवाल के भगीरथ प्रयासों से खेत में रोपाई हुई तो रोपाई में हाथ बटाने वाले हर एक व्यक्ति की आंखें छलछला गई हो भी क्यों न? आखिरकार एक नहीं, दो नहीं, पूरे 45 साल बाद गांव में धान की रोपाई का अवसर जो था।

पहाड़़ के प्रति नजरिया बदलना होगा, पहाड़़ में रोजगार की असीमित संभावनाएं हैं: विजय सेमवाल

खेती-किसानी के साथ-साथ पशुपालन

पलायन के खिलाफ विजय सेमवाल के ‘बर्सू’ रिवर्स माइग्रेशन मॉडल और कठिनाइयों पर विजय सेमवाल से ‘दि संडे पोस्ट’ की लंबी बातचीत हुई। बकौल विजय सेमवाल, ‘लोगों को पहाड़ के प्रति अपनी सोच और नजरिए में बदलाव लाना पडे़गा। हमारे पहाड़़ की आबोहवा और मिट्टी में यदि मेहनत की जाए तो यहां की बंजर भूमि में भी सोना उगाया जा सकता है। पहाड़़ में रोजगार की असीमित संभावनाएं हैं, बस जरूरत है खुद पर विश्वास और भरोसा करने की। शुरुआत में जब मैं बर्सू गांव आया तो यहां सब कुछ शून्य से शुरू करना था। कठिनाई तो बहुत आई पर कभी भी हार नहीं मानी। कई लोगों ने शुरू में हतोत्साहित भी किया लेकिन सफलता मिलने पर आज वही सैल्यूट भी करते हैं। आज मेरे गांव तक लोग खुद सब्जी खरीदने पहुंच जाते हैं, मुझे कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है। लोग एडवांस भी बुकिंग कर देते हैं। मैंने 4 लोगों को रोजगार भी दिया है जबकि आस-पास के गांव वालों को भी सब्जियों को देता हूं। अभी तो ये शुरुआत भर है अभी बहुत कुछ करना बाकी है। अब गांव के लोगों ने 10-12 घरों की मरम्मत भी कर दी है जिससे उम्मीद की किरण नजर आ रही है कि भविष्य में सडक मार्ग से जुड़ने के बाद गांव की खोई रौनक लौट आएगी।’

विभागों से भी मिलता है अपेक्षित सहयोग…
विजय सेमवाल कहते हैं कि ‘सभी सरकारी विभागों से मुझे हर संभव सहायता मिली। उद्यान, पशुपालन, कृषि सहित सभी विभागों द्वारा मेरी मदद की गई। जिले से लेकर देहरादून तक हर जगह से लोग और अधिकारी यहां पहुंचे। कई लोगों को मैंने स्वरोजगार का प्रशिक्षण भी दिया। मैं चाहता हूं कि पहाड़़ का हर युवा स्वावलंबी बने और नौकरी के लिए बाहर भटकने की जगह खुद ही लोगों को रोजगार दे। गांव में पानी की समस्या थी। विभाग के सहयोग से गांव में नहर से पानी पहुंच चुका है। 15 नाली भूमि पर धान की रोपाई की जाती है। इसके अलावा सब्जियों का उत्पादन बडे़ पैमाने पर किया जा रहा है ताकि मांग के अनुरूप लोगों को सब्जियां उपलब्ध करा सकूं, साथ ही अधिक लोगों को रोजगार से जोड सकूं।’ वास्तव में देखा जाए तो पहाड़़ों से पलायन रोकने और रिवर्स माइग्रेशन के लिए विजय सेमवाल का बर्सू मॉडल पूरे उत्तराखण्ड के लिए एक नजीर बन सकता है, साथ ही उन युवाओं के लिए एक उदाहरण भी जो पहाड़़ों में अवसरों का रोना रोते हैं।

संजय चौहान

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