- श्वेता मासीवाल
सामाजिक कार्यकर्ता
भारतीय संस्कृति की दिव्य धारा
गंगा की ऊर्जा को समझना है तो गंगोत्री में भागीरथी स्वरूप के दर्शन करने होंगे। जब वहां पावन गंगा का स्पर्श करते हैं तो ऊर्जा का भान होता है। गंगोत्री ग्लेशियर से भागीरथी जब बहते हुए मुखवा तक पहुंचती है तब स्वरूप भले ही बर्फ से जल का हो जाता है, उसकी शीतलता को तर्पण हेतु अंजुली में लेना भी ऊर्जा का कार्य है। आध्यात्मिक दृष्टि से भी देखा जाए तो माया और दर्द का ग्लेशियर भी तभी पिघलता है जब भाव की ऊर्जा का संचार होता है। इसलिए वहां कई भावपूर्ण बुजुर्ग सहजता से स्नान कर लेते हैं तो कई युवा, जो शायद एडवेंचर हेतु वहां जाते हैं, कांप उठते हैं
उत्तराखण्ड एक आध्यात्मिक खोज की प्रेरणा मुझे अविरल बहने वाली गंगा से मिली। गंगा हमारी सभ्यता की पोषक है। गंगा नदी जिसे मां की संज्ञा से सम्बोधित किया जाता रहा है, के कई आयाम हैं जिनके अध्ययन बगैर गंगा यात्रा को समझना थोड़ा कठिन है। सबसे पहले चलते हैं प्रचलित कथाओं की तरफ। हरिद्वार में एक स्थान है कुशावर्त घाट जहां पर गंगा उल्टी बहती है। कथा ये है कि इस जगह भगवान दत्तात्रेय तपस्या कर रहे थे। उसी दौरान गंगा का अवतरण हुआ। राजा भगीरथ के पीछे-पीछे गंगा भगवान शंकर की जटाओं से निकल यहां से गुजरीं। वो अपने वेग के साथ भगवान दत्तात्रेय का कमंडल और कुशा बहा ले गईं। आगे जाकर गंगा को अपनी भूल का अहसास हुआ। गलती समझ आते ही गंगा दत्तात्रेय को उनका कुशा और कमंडल देने वापस लौटीं। इस कुशावर्त घाट पर गंगा को लौटते साफ देखा जा सकता है। यहां गंगा में कोई भी चीज चढ़ाओ, वो लौटकर वापस आ जाती है।
कुशावर्त घाट के बारे में एक और पौराणिक कथा है। कहते हैं यहां भगवान राम ने अपने माता-पिता का पिंड दान किया था। यहां पिंड दान करने से मोक्ष मिल जाता है। ये घाट मोक्ष क्रिया के लिए प्रसिद्ध है। यही कारण है कि सालभर लोग यहां अपने पितरों के तर्पण के लिए आते हैं।
अपनी मां के तर्पण के लिए मैं जब यहां गई तो एक तरल अनुभूति का अनुभव मुझे अतीत की यात्रा में ले गया। मां की यादों के सागर में गहरा गोता लगाती मैं तब पहली बार समझ पाई कि गंगा को क्यों ‘मां’ कह पुकारा जाता है। इस बात को महसूस किया कि शायद यहां मां गंगा का लौटना इस बात का भी परिचायक है कि कर्म लौट कर अवश्य आते हैं और मात्र गंगा किनारे पूजन से नहीं, कर्म भाव के सिद्धांत पर चलने से ही मोक्ष मिलेगा। ये चिंतन भी गंगा किनारे ही गहराता है। हम अपने पितृ तर्पण हेतु गंगा किनारे जाकर यदि भाव अर्पित करते हैं तो ये हमारे धर्म-कर्म के खाते में जुड़ेगा।
कर्म मोक्ष धर्म सभी तरह के रंग और भाव आपको हरिद्वार ऋषिकेश गंगा किनारे देखने मिल जाते हैं। शायद इसलिए भी कुछ कथाएं हमारे पूर्वज प्रचलन में लाए ताकि जीवनकाल में मनुष्य गंगा घाट जीवित अवस्था में जाए और उसके बहाव और गहराई का अवलोकन कर उसमें अपने जीवन की छाया देखें। जब जीवन की शुरुआत होती है तो सब कुछ श्वेत धवल पवित्र होता है और जीवन जैसे-जैसे गति पाता जाता है लौकिक सोच का प्रदूषण जीवन को स्याह बनाता चला जाता है। कहा जाता है मां गंगा त्रिपथगा है यानी इस धरा में भले ही गंगा की गंगोत्री से बंगाल की खाड़ी तक ही भौतिक यात्रा हो परंतु स्वर्ग लोक मृत्यु लोक और पाताल लोक, सभी को तारने का कार्य मोक्ष दायनी मां गंगा ही करती हैं। ब्रह्माा जी के आशीर्वाद और भगीरथ की साधना के प्रताप से मां गंगा धरती लोक पर अवतरित हुईं थी।
वेगवती गंगा की ऊर्जा इतनी थी कि सदा शिव की जटाओं से होती हुई ही वो धरती पर आ सकीं वरना अगर सीधा स्वर्ग से धरा पर आती तो धरती डोल जाती। गंगा की इस ऊर्जा को समझना है तो गंगोत्री में भागीरथी स्वरूप के दर्शन करने होंगे। जब वहां पावन गंगा का स्पर्श करते हैं तो असीम ऊर्जा का भान होता है। गंगोत्री ग्लेशियर से भागीरथी जब बहते हुए मुखवा तक पहुंचती है तब स्वरूप भले ही बर्फ से जल का हो जाता है, उसकी शीतलता को तर्पण हेतु अंजुली में लेना भी ऊर्जा का कार्य है, आध्यात्मिक दृष्टि से भी देखा जाए तो माया और दर्द का ग्लेशियर भी तभी पिघलता है जब भाव की ऊर्जा का संचार होता है। इसलिए वहां कई भावपूर्ण बुजुर्ग भी सहजता से स्नान कर लेते हैं तो कई युवा, जो शायद एडवेंचर हेतु वहां जाते हैं, कांप उठते हैं।
खैर, इस सबसे प्रचलित कथा के अलावा वामन पुराण अनुसार जब भगवान विष्णु ने वामन रूप में अपना एक पैर आकाश की ओर उठाया, तब ब्रह्माा जी ने उनके चरण धोकर जल को अपने कमंडल में भर लिया। इस जल से ब्रह्माा जी के कमंडल में मां गंगा का जन्म हुआ। इसके बाद, ब्रह्माा जी ने गंगा को हिमालय सौंप दिया। इस तरह से मां पार्वती और गंगा बहनें बन गईं। एक अन्य कथा के मुताबिक वामन के पैर की चोट से आकाश में छेद हो गया और तीन धाराएं फूट पड़ीं। एक धारा पृथ्वी, एक स्वर्ग में, और एक पाताल में चली गई। इस तरह से गंगा त्रिपथगा कहलाईं। अपने आदि भौतिक प्रारूप में धरा को सुधामय जल से आप्लावित करने वाली, दैविक रूप में एक अंश से बैकुंठ में श्री हरि के साथ दूसरे अंश में कैलाश में सदा शिव के साथ विहार करने वाली तथा पृथ्वीवासियों को दुर्लभ मोक्ष प्रदान करने वाली गंगा मां की साधना सहज है लेकिन रखरखाव किस तरह से बिखर गया है उस तरफ अगर मैं जाने का दुस्साहस करूं तो मां गंगा की दिव्य यात्रा का क्रम कुछ खंडित सा होगा इसलिए यह तर्क मैं इस यात्रा के द्वितीय भाग के लिए आरक्षित रखती हूं और पुनः श्वेतसलीला मां गंगा के महत्व की तरफ आती हूं। मां गंगा को जीव नदी की संज्ञा भी दी गई है।
हिमालय का क्षेत्र संजीवनी बूटी का क्षेत्र है। यहां तरह-तरह की जीवनदायिनी वनस्पति होने के प्रमाण हैं। जब मां गंगा अपर और लोवर हिमालय और शिवालिक से होते हुए मैदानी क्षेत्र में पहुंचती है तो इन वनस्पतियों का स्पर्श करती हुई आती है जिस कारण इसकी पोषक शक्ति भी कई गुना बढ़ जाती है। ये सिर्फ एक पौराणिक मान्यता ही नहीं है अपितु विज्ञान संवत सत्य भी है और शायद इसीलिए गंगा जल कभी भी क्षय नहीं होता। शायद इन वनस्पतियों के कारण ही गंगा नदी में ऑक्सीजन का स्तर अन्य नदियों के मुकाबले 25 प्रतिशत अधिक है। गंगोत्री से भागीरथी धारा सतोपंथ से निकलने वाली अलकनंदा से देवप्रयाग में मिलती है और इस अद्भुत संगम का दृश्य दिव्य है। गंगोत्री में ही आज भी वो शिला मौजूद है जहां राजा भगीरथ ने शिव साधना कर गंगा अवतरण करवाया था।
गंगोत्री के कपाट हर वर्ष अक्षय तृतीया के दिन खुलते हैं और दिवाली के दिन शीतकाल के लिए बंद कर दिए जाते हैं। उस अवधि में बेहद मनोहारी मुखवा गांव में, जो हर्षिल घाटी के समीप है, वहां मां गंगा का विग्रह शीतकाल के लिए स्थापित किया जाता है तथा सेमवाल परिवार गंगा धाम गंगोत्री में पुरोहित पूजन करते हैं। उत्तराखण्ड वास्तव में देवभूमि है इसके प्रमाण यहां की संस्कृति और परंपराओं में स्पष्ट नजर आता है।
जब कपाट खुलते हैं और डोला विदा होता है तो इसी तरह से भावपूर्ण होता है जैसे कोई बेटी मायके से विदा हो रही हों। ये भी शायद सेवा का आशीर्वाद है कि ये स्थान कलयुग में भी सतयुग-सा ही आभा मंडल लिए हुए है। केवल उत्कृष्ट काष्ठ शिल्प से बने आवास और एक बेहद सुंदर घाटी। इस अंक में आपको इसी मनोहारी घाटी के विचारों के मध्य विचरने के लिए अपनी कलम को विराम देती हूं। अगले अंक में गंगा की धारा के साथ आगे बढ़ेंगे और उन मुद्दों पर भी चर्चा करेंगे जिन्हें पर्यावरणविद् लम्बे समय से उठा रहे हैं ताकि हम, गंगा को मां का दर्जा देने वाले आम लोग और हमारे नीति नियंता मां गंगा की खंडित हो रही है दिव्यता की बाबत कुछ सकारात्मक और सार्थक पहल कर सकें।
(लेखिका रेडियों प्रजेंटर, एड फिल्म मेकर तथा
वत्सल सुदीप फाउंडेशन की सचिव हैं)

