उंगुलियां यूं न सब पर उठाया करो,
खर्च करने से पहले कमाया करो
उत्तराखंड सरकार की दरियादिली एवं बाजार के कर्ज पर ऐश-ओ-आराम करने के चलते शायद यह बात उस पर सही बैठती हो। वजह यह की यहां सरकार का खर्चा रुपया तो कमाई अठन्नी से भी कम है। इसके बावजूद त्रिवेंद्र सरकार जिस तरह से दर्जनों दायित्वधारियों पर सरकारी खजाना खाली कर रही है, उससे तो यही लगता है कि न तो सरकार को बाजार से उठाए कर्ज की चिंता है और न ही मंदी एवं महंगाई की। दूसरी तरफ प्रदेश का आम आदमी मंदी और महंगाई की मार से बुरी तरह परेशान है। इस पर आम आदमी की प्रतिक्रियाओं पर गौर करें तो लगता है इनके जीवन की गाड़ी बड़ी तकलीफों के बीच गुजर रही है।
पैंतीस वर्षीय युवा व्यवसायी राहुल पाण्डे बढ़ती महंगाई और जीएसटी की मार से परेशान हैं। वह कहते हैं पहले नोटबंदी, फिर जीएसटी और अब बढ़ती महंगाई। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं जिसे सस्ते की श्रेणी में रखा जा सके। रसोई की जरूरतों से लेकर जमीन के दामों में हो रही वृद्धि से एक ओर व्यापार प्रभावित हुआ है, तो दूसरी तरफ घर की तमाम जिम्मेदारियां मुहंबाये खड़ी हैं। जीवन को बेहतर बनाने के जो सपने पाल रखे थे, वह ऐसे चकनाचूर हो रहे हैं कि अब सपने देखने में भी डर लग रहा है। ऐसे दौर में समझ में नहीं आता कि क्या करें, कहां जाएं? यह सिर्फ एक राहुल भर की कहानी नहीं है। शहर से लेकर गांव तक लोगों से बातचीत करने पर हर कोई निराशा भरी प्रतिक्रिया देने को मजबूर है। ऐसे में उस सरकार से भला आम आदमी क्या उम्मीद कर सकता है जो खुद तो कर्ज में डूबी है, लेकिन दायित्वधारियों पर जमकर खजाना लुटा रही है।
अगर देखें तो प्रदेश में सरकार और आम आदमी की स्थिति एक जैसी है। एक को प्रदेश की गाड़ी खींचने के लिए पैसा चाहिए तो दूसरे को रोजमर्रा के जीवन को पटरी पर बनाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। दोनों जैसे-तैसे अपना काम चला रहे हैं। बढ़ती मुद्रा स्फीति का असर न केवल आम आदमी के घरेलू बजट पर पड़ रहा है, बल्कि सरकार के विकास के आधारभूत ढांचों की लागत भी बढ़ रही है। मजदूर तबके एवं खाली पड़े हाथों के जीवन को यह मुद्रास्फीति बुरी तरह प्रभावित कर रही है। सरकारें महंगाई पर लगाम लगाने में कामयाब नहीं हो पा रही हैं। बढ़ती महंगाई के चलते आम आदमी के खर्च करने के स्वभाव और सोच में तेजी से बदलाव आ रहा है। अब वह सोच-समझ कर खर्च रहा है। जिसका असर बाजार में सुस्ती के रूप में दिख रहा है। आम आदमी के लिए कमाई एवं बढ़ते खर्चों के बीच संतुलन बना पाना काफी कठिन हो रहा है। सरकार भी बाजार से जैसे-तैसे कर्ज लेकर अपना काम चला रही है। कर्ज में डूबी सरकार घोषणाएं तो खूब कर रही है, लेकिन उसके पास कमाने के लिए कुछ भी नहीं है। एक ओर कमरतोड़ महंगाई तो दूसरी तरफ जीवन को बेहतर बनाने की इच्छाओं की रस्साकस्सी के बीच प्रदेश के आम आदमी की जिंदगी बुरी तरह मथ रही है। जिंदगी को बेहतर एवं सुविधासंपन्न बनाने की आस रखने वाली जनता अब तक की सबसे बढ़ी हुई मुद्रास्फीति का सामना कर रही है। एक तरफ नौकरी नहीं मिल रही है, दूसरी तरफ संविदा पर काम करने वाले कर्मचारियों को समय पर वेतन नहीं मिल रहा है। संविदा की नौकरी कब चली जाएगी, कहा नहीं जा सकता। औद्योगिक आस्थानों में तमाम कंपनियों द्वारा काम समेटने से बेराजगारी की दर भी लगातार बढ़ रही है।
छोटी मोटी नौकरी एवं मजदूरी करने वाला वर्ग ज्यादा परेशान है। बनिये की दुकान में काम करने वाले राकेश कुमार कहते हैं कि आज से पांच साल पहले तमाम खर्चों के बाद भी हम थोड़ा बहुत बचा लेते थे। मालिक भी समय-समय पर तनख्वाह में थोड़ी बहुत बढ़ोतरी कर देते थे, लेकिन अब तनख्वाह में सालों तक बढ़ोतरी नहीं हो पाई है और बाजार में रोजमर्रा की चीजों में उछाल आ रहा है। यह सच भी है कई संस्थानों में तो सालों तक काम करने के बाद भी लोगों को उनका मेहनताना नहीं मिल पा रहा है। लोग बेगारी में काम करने को मजबूर हैं। जीएसटी लागू होने के बाद से छोटे उद्योग-धंधे और दुकानदारी करने वालों की हालत बेहद खराब हो गई है।
एक कपड़े की शाॅप के मालिक राजेंद्र जोशी कहते हैं कि पिछले साल तक उनके यहां आधे दर्जन से अधिक युवा काम करते थे, लेकिन अब एक दो ही बचे हैं। काम करने वालों को देने के लिए पैसा नहीं है। अब खुद ही दो-तीन लोगों का काम करना पड़ रहा है। क्या करें, जीविका का एक मात्र साधन भी तो यही है। तमाम खोजबीन के बाद भी कोई विकल्प नजर नहीं आता।
रूद्रपुर स्थित एक कंपनी में काम करने वाले दीपक तिवारी कहते हैं कि आज ग्लोबलाइजेशन ने जीवन को अंदर तक प्रभावित कर दिया है। लोगों का खर्चा अब सिर्फ खाने पीने तक सीमित नहीं है। लोगों की लाइफ स्टाइल बदली है। जीवन के प्रति नजरिया बदला है। ऐसे में भौतिक वस्तुओं की खरीद के लिए भी उन्हें पैसा चाहिए। लेकिन जब हाथ में पैसा नहीं होता तो फिर कुंठा जन्म लेती है। क्षमताएं क्षीण होने लगती हैं। जिसका खामियाजा व्यक्ति खुद तो भुगतता ही है, वहीं उसका परिवार एवं समाज भी इससे प्रभावित होता है। वहीं छोटी-मोटी दुकानदारी करने वाले मनोज सिंह बड़े दार्शनिक अंदाज में कहते हैं कि सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना, लेकिन यहां तो बढ़ती मुद्रास्फीति सपनों को मारने में लगी है। प्रदेश के औद्योगिक आस्थान रूद्रपुर स्थित आॅटोमोबाइल कंपनी आशोका लीजेंड पर जब मंदी की मार पड़ने लगी तो एक-एक कर यहां कई युवा बेरोजगार होते चले गए।
इसी कंपनी में काम कर रहे युवा मोहित चंदर कहते हैं कि मेरी शादी तय हो गई थी, लेकिन जैसे ही लड़की वालों को मेरे बेरोजगार होने की खबर मिली तो उन्होंने शादी कैंसिल कर दी। तब से लगातार नौकरी के लिए भटक रहा हूं, लेकिन नौकरी है कि मिलती ही नहीं। एक तरफ मंदी से नौकरी गई वहीं दूसरी तरफ महंगाई ने पूरी तरह कमर तोड़ दी है। अब खाली हाथ परिवार की आवश्यकताओं का मुकाबला करें तो कैसे? मजदूरी कर पेट पालने वाले गणेश राम कहते हैं कि आम आदमी की तरफ सरकार तब सोचे जब असंतुष्ट सरकारी कर्मचारियों का पेट भरे। सरकार लाखों में पगार पाने वालों से तो वार्ता भी करती है, लेकिन हम मजदूरों को कोई पूछता नहीं।
प्रदेश में हालात यह हैं कि तमाम युवा काम चाहते हैं, काम की तलाश में भटकते भी हैं। वह आमदनी का स्रोत चाहते हैं ताकि अपने परिवार पर बोझ भी न बनें और थोड़ी बहुत मदद कर उनका सहयोग भी कर सकें, लेकिन वर्तमान में बाजार की जो हालत है इसमें सोचा भर ही जा सकता है। थोक मूल्य से लेकर खुदरा मूल्य तक दोनों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। यह अपने उच्च स्तर को पार कर चुकी है। ऐसे में हर तबका बढ़ती महंगाई को लेकर चिंतित दिखता है। वहीं प्रदेश में बजट खर्च की चाल लगातार कमजोर हो रही है जिससे रोजगार सृजित नहीं हो पा रहे हैं। सरकारी तंत्र काम करने के पारंपरिक ढर्रे से बाहर नहीं निकल पा रहा है। ना ही ऐसी कोशिशें हो रही हैं। हर वित्तीय वर्ष में 50 प्रतिशत से कम की धनराशि खर्च ही हो पा रही है। आधी से अधिक की धनराशि लैप्स हो जाती है।
केंद्र पोषित योजनाओं के तहत मिली धनराशि भी पूरी खर्च नहीं हो पाती। महकमों में बजट खर्च करने की लेटलतीफी बनी हुई है। बजट का समय पर सदुपयोग नहीं हो पा रहा है। दूसरा केंद्रीय मदद पर लगातार निर्भरता बढ़ती जा रही है। यानी प्रदेश सरकार आत्मनिर्भर बनने के बजाय केंद्र पर निर्भर होती जा रही है। वहीं प्रदेश सरकार 45 हजार करोड़ रुपए से अधिक के कर्ज में दबी है। राज्य की कुल मासिक आमदनी 1400 करोड़ रुपए है, जबकि कर्मचारियों के वेतन, भत्तों एवं मानदेय पर हर महीने 1500 करोड़ रुपए का खर्चा हो रहा है। इस तरह से हर महीने 100 करोड़ यानी सालाना 1200 करोड़ रुपया सरकार पर कर्ज चढ़ता जा रहा है। अगर सरकार की आमदनी के मुख्य स्रोत पर नजर डालें तो जीएसटी, आबकारी, रजिस्ट्रेशन, खनन, वन, ऊर्जा, परिवहन एवं केंद्र पोषित योजनाएं हैं। प्रदेश में कुल विभागों में से आधे विभाग ऐसे हैं जहां सरकार को सिर्फ खजाना खाली करना होता वहां से किसी भी प्रकार की कोई कमाई नहीं होती।
वहीं दूसरी तरफ पलायन, ढांचागत सुविधाओं का अभाव और सामाजिक-आर्थिक असमानता भी स्थितियों को बिगाड़ रही है। प्रदेश के अधिकांश पर्वतीय जिले विकास से कोसों दूर हैं। प्रदेश के नियोजन एवं अर्थ संख्या विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार मानव विकास के मामले में पहाड़ी जिले पूरी तरह पिछड़े हुए हैं। रिपोर्ट के अनुसार टिहरी जनपद को 13 वीं, चंपावत जनपद को 12 वीं, रुद्रप्रयाग को 11 वीं, उत्तरकाशी को 10 वीं, अल्मोड़ा को 9 वीं, बागेश्वर को 8 वीं, नैनीताल को 7 वीं, पिथौरागढ़ को 6 वीं, पौड़ी को 5 वीं, चमोली को 4 वीं रैंकिंग मिली है, तो देहरादून, हरिद्वार, यूएसनगर जैसे नगर क्रमशः पहले, दूसरे एवं तीसरे स्थान पर रहे हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि मानव विकास में पर्वतीय जिले कितने पिछड़े हुए हैं। अब ऐसे दौर में प्रदेश सरकार की कर्ज लो और घी पिओ की नीति भला कब चल पाएगी?

