Editorial

यदि आज कांशीराम होते तो-2

मेरी बात

कांशीराम अपनी शिष्या मायावती पर हद से ज्यादा भरोसा करते थे। 14 अप्रैल 1984 को जब बसपा की विधिवत घोषणा कांशीराम ने दिल्ली के बोट क्लब में आयोजित रैली में की थी तब तक मायावती उनकी कोर टीम का हिस्सा बन चुकी थीं। उनकी जीवनी ‘कांशीराम, बहुजनों के नायक’ के लेखक प्रोफेसर ब्रदी नारायण ने इस पुस्तक में मायावती पर कांशीराम के अटूट विश्वास की बाबत लिखा है – ‘कांशीराम मायावती पर बहुत अधिक भरोसा करते थे। बहुत शुरू से ही उन्होंने भविष्य में बहुजन समाज पार्टी की नेता और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के तौर पर अपने बाद के नेतृत्व के रूप में मायावती को शिक्षित-प्रशिक्षित किया… उन्होंने अपने एक करीबी से साफ कहा था- ‘मायावती ने बहुजन समाज पार्टी के संदेश को उत्तर प्रदेश के लोगों के बीच फैलाने के लिए जिस तरह साइकिल यात्रा करके महान काम किया था, उसे मैं भूल  नहीं सकता… इस नौजवान लड़की ने बुलंदशहर से बिजनौर तक साइकिल चलाई और हमारी तरफ बराबर बनी रही। अगर इसने हमारे साथ कठिन मेहनत नहीं की होती तो मैं बसपा को आगे बढ़ाने में सक्षम नहीं हो पाता। बहुजन समाज बनाने की जिम्मेदारी मायावती की है, अब बहुजन समाज पार्टी बन गई है।’

1993 में पहली बार उत्तर प्रदेश की सत्ता में बसपा को हिस्सेदारी मिली। चूंकि कांशीराम स्वयं किसी विचारधारा विशेष से बंधे नहीं थे और उनके उद्देश्य का प्रथम चरण बहुजन को सत्ता में हिस्सेदारी दिलाना भर था इसलिए उन्होंने अवसरवादी राह पकड़ी और येन-केन-प्रकारेण सत्ता पाने और उसमें बने रहने का हर सम्भव प्रयास किया, नतीजा भले ही मायावती का उत्तर प्रदेश सरीखे विशाल राज्य का चार बार मुख्यमंत्री बनना रहा, अवसरवादी और सिद्धांतहीन राजनीति के साथ-साथ सत्ता संग विरासत में मिलने वाली हर उस बुराई ने बसपा को अपनी जकड़ में ले लिया जिसका अंत अंततः अवसान ही होता है। कांशीराम भाजपा के हिंदुत्ववादी एजेंडे का घोर विरोध करते हुए कमंडल के खिलाफ मंडलवादी राजनीति के तत्कालीन पुरोधा मुलायम सिंह यादव संग गठबंधन कर 1993 में उत्तर प्रदेश की सत्ता तक जा पहुंचे। लेकिन मंडल बनाम कमंडल भले ही मुलायम सिंह यादव के लिए सैद्धांतिक युद्ध था, कांशीराम इसे सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी भर मान चल रहे थे नतीजा 1995 में इस गठबंधन का टूटना और कांशीराम द्वारा भाजपा संग गठजोड़ कर मायावती को उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनाने बतौर सामने आया। इसके बाद लगातार कांशीराम और मायावती इसी अवसरवादिता के सहारे अपनी राजनीति को परवान चढ़ाते गए। सत्ता में दलितों की भागीदारी का अपना स्वप्न तो कांशीराम कुछ हद तक साध पाने में सफल रहे किंतु यह सफललता अपने साथ वे सब दुर्गुुण लेकर बसपा भीतर दाखिल हो गई जिन्होंने कांशीराम की पार्टी भीतर भी ‘चमचा युग’ और ब्राह्माणवादी’ प्रवृत्ति को न केवल अंकुकित किया, बल्कि कुछ ही समय में इन दो दुर्गुणों को उस ऊंचाई तक पहुंचा दिया जहां से दलितों की सत्ता में हिस्सेदारी का स्वप्न चकनाचूर होता चला गया और मायावती भी अन्य दलित नेताओं की भांति सत्ता सुख की आदि हो ‘एक दलित ब्राह्माण’ बन गईं। मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी संग बसपा का गठबंधन मई 1995 में टूटा था। अब 1 जून 1995 को तमाम वैचारिक मतभेदों को दरकिनार कर कांशीराम ने भाजपा की मदद से मायावती को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने में कामयाबी हासिल कर ली। बेमेल और केवल सत्ता सुख की प्राप्ति के लिए किया यह गठबंधन मात्र 136 दिन ही चला था। अक्टूबर 1995 में भाजपा ने समर्थन वापस ले बसपा को सत्ता से दूर कर डाला। 1996 में राज्य विधानसभा के लिए चुनाव हुए थे। बसपा ने यह चुनाव कांग्रेस संग गठबंधन कर लड़ा लेकिन सरकार भाजपा के साथ मिलकर गठित कर कांशीराम ने एक बार फिर से अवसरवादी और मूल्यहीन राजनेता होने का परिचय दिया। इस गठबंधन की शर्तानुसार पहले 6 महीने के लिए मायावती को मुख्यमंत्री बनाया गया था। 6 माह बाद भाजपा नेता कल्याण सिंह सीएम जरूर बने लेकिन उनके शपथ लेने के ठीक एक माह बाद बसपा ने समर्थन वापस ले लिया और मात्र सात माह बाद यह गठजोड़ फिर से बिखर उत्तर प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता का कारण बना। भाजपा-बसपा ने एक-दूसरे पर जमकर आरोप इस दौरान लगाए। बसपा द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद भी लेकिन भाजपा सरकार बचा पाने में सफल रही थी। वर्ष 2002 में हुए विधानसभा चुनाव में एक बार फिर से त्रिशंकु विधानसभा का गठन हुआ था। एक-दूसरे पर नाना प्रकार के आरोप लगा चुके राजनीतिक दल भाजपा और बसपा ने एक बार फिर से हाथ मिला सरकार बना ली जिसकी मुखिया बतौर मायावती ने मई 2002 में मुख्यंत्री पद की शपथ ली थी। कांशीराम का स्वास्थ्य इस दौर में लगातार खराब रहने लगा था और बसपा की कमान पूरी तरह से मायावती के हाथों में आ चुकी थी। उन्होंने दलितों के लिए क्या और कुछ किया, यह बहस और शोध का विषय है, अपने लिए और अपने परिजनों के लिए जरूर हर वह काम करने से गुरेज नहीं किया जो भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है और नैतिक पतन का कारण बनता है। 2003 का ताज कॉरीडोर घोटाला इसका पुख्ता प्रमाण है कि कैसे भायावती ने अपने तीसरे मुख्यमंत्रित्वकाल में भ्रष्टाचार को परवान चढ़ाया और तमाम नैतिक मूल्यों को त्याग कांशीराम के उस उद्देश्य को पराजित करने का कारण बनीं जिसका लक्ष्य बहुसंख्यक को समाज में उचित स्थान और न्याय दिलाना था। भाजपा-बसपा का यह गठजोड़ भी मात्र कुछ ही समय में तब बिखर गया जब इस घोटाले के सामने आने बाद भाजपा ने मायावती सरकार से अपना समर्थन वापस लेने का फैसला किया था। मायावती को इस्तीफा देना पड़ा और मुलायम सिंह यादव छोटे दलों एवं बसपा के बागी विधायकों की मदद से सरकार बना पाने में सफल रहे थे। 2007 में लेकिन अपने दम पर बसपा ने पूर्ण बहुमत प्राप्त कर सभी को चौंकाने का काम कर दिखाया। अपनी मेहनत का यह परिणाम देखने के लिए लेकिन कांशीराम मौजूद नहीं थे। 2006 में उनका लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया था। मायावती ने वह कर दिखाया जो न तो डॉ. भीमराव अम्बेडकर कर पाए थे और डॉ. राममनोहर लोहिया। यहां तक कि अवसरवादिता के शिखर पुरुष कांशीराम भी दलितों को इस हद तक एकजुट कर पाने और बहुसंख्यक विशाल वोट बैंक को एकजुट कर पाने में विफल रहे थे। उनकी शिष्या मायावती ने लेकिन इस अभूतपूर्व मौके को अपनी धन लिलिप्सा चलते गंवा डाला। 2007 से 2012 तक उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य की मुख्यमंत्री और बसपा की सर्वेसर्वा रहीं मायावती अच्छी शासक बन पाने में सर्वथा विफल रहीं। उनकी सरकार और पार्टी भ्रष्टाचार के गहरे दलदल में ऐसी जा फंसी की आज जब कांशीराम द्वारा स्थापित बहुजन समाज पार्टी पूरी तरह से हाशिए पर है, मायावती का भ्रष्टाचार उन्हें इस दलदल से बाहर निकलने नहीं दे रहा है।

गत् दिनों उनके घोषित राजनीतिक उत्तराधिकारी आकाश आनंद जो अपनी काबिलियत चलते नहीं, बल्कि मायावती के भतीजे होने के नाते उनकी राजनीतिक विरासत के संवाहक बनाए गए थे, यकायक ही अर्श से फर्श पर जा पहुंचे जब उन्होंने आक्रामक शैली अपना भाजपा पर प्रहार करने शुरू किए। आकाश आनंद ने अपनी पहली चुनावी रैली में भाजपा को ‘मूर्खों का दल’ कह डाला। गोरखपुर में आयोजित एक जनसभा में उन्होंने योगी सरकार को ‘गद्दारों की सरकार’ कहा तो उन्नाव में उन्होंने ‘कमल का फूल खिल रहा है क्योंकि इन्होंने भारत को कीचड़ बना रखा है’ कह भाजपा भीतर भारी बेचैनी पैदा कर डाली। वे इतने पर ही नहीं रुके, बल्कि भाजपा सरकार को तबाही लाने वाली ‘तालिबानी सरकार’ और ‘आतंकवादियों की सरकार’ तक कह डाला। ऐसे समय में जब भाजपा के हर मामूली राजनीतिक विरोधी के घर ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स की तुरंत हाजिरी लग जाती है, मायावती पर कृपा बने रहने पीछे एक बड़ा कारण उनका भाजपा के प्रति नरम रुख रखना रहा है। जाहिर है अपने भतीजे की आक्रामक बयानबाजी ने बहनजी को विचलित और भयभीत करने का काम किया जिसका नतीजा रहा आकाश आनंद पर मायावती का कोड़ा फटकारना और उन्हें बसपा से बाहर कर वनवास की सजा देना।

कांशीराम ने अवसरवादी राजनीति का बबूल बोया था जिसके सहारे वह दलितों को सत्ता की भागीदारी का आम पैदा करना चाहते थे लेकिन तात्कालिक सफलताओं  के बाद हुआ वही जो होना निश्चित था। अवसरवादी और मूल्यहीन राजनीति का जो पाठ उन्होंने मायावती को पढ़ाया था, उसका नतीजा सामने है। दलित समाज का बसपा से, विशेषकर मायावती से मोहभंग हो चला है। कांशीराम द्वारा स्थापित ‘बामसेफ’ तथा ‘डीएस-4’ जैसे संगठन इस आम चुनाव में दलित हितों की रक्षा करने के उद्देश्य से सक्रिय हो कांग्रेस और सपा के पक्ष में काम कर रहे हैं। कांशीराम यदि आज मौजूद होते तो भी शायद ही कुछ कर पाने में समर्थ होते उन्होंने अवसरवादिता और मूल्यविहीन राजनीति की जो राह चुनी थी उसका हश्र अंततः यही होना था। इस आमचुनाव के नतीजे चाहे जो भी हों, यह तय है कि बहुजन समाज पार्टी अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपना प्रभाव और महत्व वापस पाने नहीं जा रही है। बहुत सम्भव है कि त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में मायावती सरकार बनाने वाले गठबंधन का हिस्सा बन खुद के लिए तथा अपने परिजनों के लिए कानूनी पचड़ों से बचने का मार्ग तलाश लें, लेकिन दलित समाज को राजनीतिक ताकत बनाने का जो प्रयास कांशीराम ने किया उसको स्थायित्व देने में मायावती विफल हो चुकी हैं और ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का सपना हाल-फिलहाल तो टूट चुका है।

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