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बात निकली है तो दूर तलक जाएगी

 

इंडिया गठबंधन में तनाव

विपक्षी ‘इंडिया’ गठबंधन भीतर कुछ अलग ही खिचड़ी पकती नजर आ रही है। इस गठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस है जो भाजपा के खिलाफ उद्योगपति गौतम अडानी संग प्रधानमंत्री मोदी के कथित प्रगाढ़ रिश्तों का मुद्दा बार-बार उछालती रहती है। अडानी इन दिनों अमेरिकी सरकार द्वारा रिश्वतखोरी में शामिल होने सम्बंधी आपराधिक आरोपों की जद में हैं और इससे खासे त्रस्त भी हैं। उन्हें लेकिन एक राहत ‘इंडिया’ गठबंधन के उन नेताओं से मिलती नजर आ रही है जिनसे उनके प्रगाढ़ सम्बंध रहे हैं। शरद पवार और लालू यादव सरीखे दिग्गजों ने विपक्षी गठबंधन की कमान उन ममता बनर्जी को सौंपने का समर्थन कर दिया है जो भले ही घोर भाजपा विरोध की राजनीति करती हैं, अडानी संग उनके भी सम्बंध मधुर हैं। ऐसे में कयास लगने लगे हैं कि राहुल गांधी पर यह निशाना कहीं गौतम अडानी की शह पर तो नहीं साधा जा रहा है?

लोकसभा चुनाव 2024 में मोदी सरकार और भाजपा को सत्ता से बेदखल करने के इरादे से बना विपक्षी ‘इंडिया’ गठबंधन का प्रदर्शन 2019 की बनिस्पत बेहतर तो रहा लेकिन वो नरेंद्र मोदी को लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने से नहीं रोक पाए। इस चुनाव में कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया तो पार्टी ने इसका श्रेय राहुल गांधी को देने में देर नहीं लगाई। ऐसा लगने लगा कि पिछले 10 साल से हाशिए पर जा चुकी पार्टी एक बार फिर सक्रिय होगी। लेकिन पिछले छह महीने के सियासी घमासान को देखें तो ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है। हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव नतीजों बाद ‘इंडिया’ गठबंधन के साथी एक-एक कर राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल उठाने लगेे हैं। चाहे उमर अब्दुल्ला, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी, शरद पवार, अरविंद केजरीवाल, उद्धव ठाकरे हों या फिर कांग्रेस के हर समय के साथी माने जाने वाले लालू यादव सभी अब गठबंधन की कमान तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी को सौंपने की बात करने लगे हैं। ऐसे में देश की राजनीतिक गलियारों में अटकलें लगाई जा रही हैं कि ‘इंडिया’ गठबंधन के सहयोगी दल कांग्रेस पर दबाव क्यों बना रहे हैं? कांग्रेस से दूरी की असल वजह क्या है? क्या इसका कहीं कोई कनेक्शन उद्योगपति अडानी और अंबानी से तो नहीं है?

असल में एक ओर जहां लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी हर चुनाव और संसद में अडानी-अंबानी का मुद्दा जोर-शोर से उठा रहे हैं वहीं ‘इंडिया’ गठबंधन के सहयोगी दल एक-एक कर राहुल का हाथ मजबूती से पकड़ने के बजाए उनका साथ छोड़ते दिख रहे हैं। इसकी शुरुआत पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करने की इच्छा जाहिर कर की। उन्होंने कहा कि अगर उन्हें अवसर मिले तो वह गठबंधन की कमान संभालने को तैयार हैं। उनके इस बयान के बाद गठबंधन के अन्य नेताओं की ओर से बयानबाजी शुरू हो गई। शरद पवार ने ममता का समर्थन करते हुए उन्हें एक सक्षम नेता बताया है।

शरद पवार ने कहा कि ‘ममता बनर्जी में ‘इंडिया’ का नेतृत्व करने की क्षमता है।’ उन्होंने जो रुख अपनाया वह आक्रामक है। उन्होंने कई लोगों को खड़ा किया है। उन्हें ऐसा कहने का पूरा अधिकार है। वहीं इंडिया गठबंधन में साथी अखिलेश यादव भी लगातार कांग्रेस पर राजनीतिक दबाव बनाते नजर आ रहे हैं। समाजवादी पार्टी पहले ही महाराष्ट्र के महाविकास अघाड़ी गठबंधन से बाहर हो चुकी है। दिल्ली चुनाव से पहले जहां कांग्रेस और आम आदमी पार्टी एक दूसरे के आमने-सामने हैं वहीं अखिलेश यादव कांग्रेस से दूरी बनाते हुए अरविंद केजरीवाल के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। इससे पहले उत्तर प्रदेश की 9 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के दौरान भी अखिलेश यादव कांग्रेस को अपने तल्ख तेवर दिखा चुके हैं। तब उन्होंने बिना कांग्रेस से बात किए सभी सीटों पर समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार उतार दिए थे। बाद में कांग्रेस पार्टी ने यूपी उपचुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया था। सपा प्रमुख अखिलेश यादव की सांसद पत्नी डिंपल यादव ने भी कहा कि अडानी मामले से सपा का कोई लेना देना नहीं है।

कांग्रेस के ऑल वेदर फ्रेंड माने जाने वाले लालू यादव ने भी अपना स्टैंड बदल दिया है। लालू ने बयान दिया है कि ममता बनर्जी को विपक्षी गठबंधन का नेता बना देना चाहिए और कांग्रेस अगर विरोध करती है तो उस पर ध्यान देने की जरुरत नहीं है। कांग्रेस पर सहयोगी दलों के राजनीतिक दबाव का आलम यह है कि जम्मू-कश्मीर के सीएम उमर अब्दुल्ला ने यहां तक कह डाला है कि बार-बार चुनाव हारने पर कांग्रेस को ईवीएम पर सवाल उठाने की प्रथा को बंद कर देना चाहिए। उन्होंने कहा कि ‘जब संसद के 100 से ज्यादा सीटें आपने इसी ईवीएम का उपयोग कर जीती थी तब आप कुछ महीने बाद पलटकर यह नहीं कह सकते कि हमें ये ईवीएम पसंद नहीं क्योंकि इस बार चुनावी नतीजे उस तरह नहीं आए जैसा हम चाहते हैं।’ कांग्रेस जम्मू-कश्मीर सरकार का हिस्सा है लेकिन इसके बावजूद प्रदेश की सरकार में उनका कोई मंत्री नहीं है। यानी अब्दुल्ला ने कांग्रेस को प्रदेश की राजनीति में ज्यादा भाव नहीं दिया है। हालांकि उद्धव ठाकरे एकमात्र नेता हैं जिन्होंने खुल कर अडानी का विरोध किया था लेकिन ऐसा लग रहा है कि उनका विरोध महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव तक सीमित था और वह भी अडानी के धारावी प्रोजेक्ट को लेकर था। सैद्धांतिक रूप से वे अडानी- अंबानी विरोधी नहीं माने जाते हैं। कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इंडिया गठबंधन में इस वक्त हैसियत के हिसाब से देखा जाए तो सबसे ज्यादा लोकसभा सीट कांग्रेस के पास हैं।

इसके बावजूद मौजूदा परिस्थिति को देखते हुए लगता है कि प्रदेशों में लगातार कांग्रेस की हार इसकी बड़ी वजह है। वहीं कुछ का मानना है कि इंडिया गठबंधन के सहयोगी दलों की यह बयानबाजी कांग्रेस पर राजनीतिक दबाव बनाने के अलावा कुछ नहीं है। क्योंकि एक के बाद एक अंतरराष्ट्रीय मीडिया समूह, पत्रकारों का संगठन और विदेशी सरकारें या उनकी एजेंसियां अडानी समूह को कठघरे में खड़ा कर रही हैं। अडानी-अंबानी दुनिया में क्रोनी कैपिटलिज्म के प्रतीक बने हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनके संबंधों को उछालने से बड़ा राजनीतिक नैरेटिव बनता है। इसलिए कांग्रेस और राहुल गांधी यह मुद्दा उठा रहे हैं। लेकिन बाकी विपक्षी पार्टियां या तो इससे अलग हो रही हैं या दिखावे के लिए कांग्रेस के विरोध प्रदर्शन में शामिल हो रही हैं उनके अडानी-अंबानी के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बताए जाते हैं। इसका उदाहरण पिछले दिनों तब भी देखने को मिला जब अंबानी के यहां शादी में बाराती बन कर जितने नेता शामिल हुए थे उनमें राहुल या नेहरू गांधी परिवार के अलावा बाकी सारे विपक्षी नेता शामिल ही थे। ममता भी थीं, लालू प्रसाद का पूरा परिवार भी था और अखिलेश यादव भी सपरिवार पहुंचे थे। एक सत्य यह भी कि शरद पवार का तो अडानी विरोध कभी रहा ही नहीं है। शरद पवार और अजित पवार स्वीकार कर चुके हैं कि 2019 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद सरकार गठन में गतिरोध पैदा हुआ था तो ये सभी लोग अडानी के साथ सरकार बनाने के लिए बैठे थे। हाल में हुए महाराष्ट्र चुनाव के दौरान अजित पवार ने कहा था कि अडानी के घर पर गौतम अडानी की मौजूदगी में भाजपा और एनसीपी के नेताओं की बैठक हुई थी। बाद में शरद पवार ने सफाई देते हुए इतना भर कहा था कि बैठक गौतम अडानी की पहल पर हुई थी और दिल्ली में उनके घर पर हुई थी लेकिन उसमें अडानी खुद मौजूद नहीं थे। बाद में अडानी को मुम्बई में शरद पवार के घर जाते सबने देखा। लालू प्रसाद या उनके बेटे तेजस्वी यादव या सांसद बेटी मीसा भारती भी कभी अडानी या अंबानी के खिलाफ बयान नहीं देते हैं।

हालांकि लालू का ताजा बयान कुछ ही महीनों के भीतर होने वाले बिहार चुनाव के मध्यनजर अभी से प्रेशर पॉलिटिक्स के तौर पर दिया गया लगता है। इसके पीछे उनकी सुचिंतित चाल है। लालू यादव जानते हैं कि कांग्रेस बिहार विधानसभा चुनाव में न सिर्फ सीटों के लिए अड़ेगी, बल्कि उन चेहरों को भी सामने लाएगी जो लालू यादव को पसंद नहीं हैं। कांग्रेस की इस रणनीति को कुंद करने के लिए ही लालू ने पैंतरेबाजी शुरू कर दी है। लालू नहीं चाहते हैं कि कांग्रेस पप्पू यादव और कन्हैया कुमार के चेहरे पर बिहार विधानसभा का चुनाव लड़े। उनकी यह भी कोशिश है कि कांग्रेस पहले की तरह आरजेडी की पिछलग्गू बनी रहे और सीटों के बंटवारे में उनकी मर्जी चल सके। इस बार आरजेडी कांग्रेस को पिछली बार की तरह 70 सीटें देने के मूड में नहीं है। कांग्रेस को भी सीटों में कटौती का भय सता रहा है इसलिए दोनों ओर से तनातनी दिख रही है। कांग्रेस लोकसभा के हालिया चुनाव के आधार पर टिकट बंटवारा चाहती है यानी दोनों ओर से प्रेशर पॉलिटिक्स हो रही है।

बहरहाल, उद्धव ठाकरे की शिव सेना हो, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस हो, शरद पवार की एनसीपी हो, अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी हो या लालू प्रसाद की राजद हो किसी को सैद्धांतिक रूप से अडानी-अंबानी से परेशानी नहीं है। इनमें से कुछ तो खुल कर अडानी मुद्दे से अपने को अलग कर चुके हैं और कुछ दिखावे के लिए राहुल व कांग्रेस के साथ जुड़े हुए हैं और सही मौके की तलाश में हैं। गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव 2024 में कांग्रेस को मिली संजीवनी के बाद पार्टी चाहती है कि राहुल गांधी को इंडिया गठबंधन का प्रमुख बनाया जाए। लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र में कांग्रेस को मिली करारी हार और संसद में नेता विपक्ष राहुल गांधी द्वारा लगातार उठाए जा रहे उद्योगपति अडानी- अंबानी मुद्दों पर राहुल को ‘इंडिया’ गठबंधन के साथी पार्टियों का साथ मिलने के बजाय ममता बनर्जी को गठबंधन की जिम्मेदारी देने का समर्थन किया है। जिसके बाद से विपक्षी गठबंधन में बिखराव की आशंका बढ़ गई है।

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