Editorial

जयप्रकाश जो मरने से नहीं डरता

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-83
सात सितम्बर, 1972 को इंदिरा गांधी ने भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (पूर्व में ट्रॉबे परमाणु अनुसंधान केंद्र) को परमाणु बम तैयार करने और उसका परीक्षण करने के लिए अधिकृत आदेश दिए थे। पहले भारतीय परमाणु बम का नाम अहिंसा के उपासक गौतमबुद्ध के नाम पर ‘स्माइलिंग बुद्धा’ रखा गया। उन्होंने प्रोजेक्ट की भनक अपने मंत्रिमंडल, यहां तक कि रक्षा और विदेश मंत्री तक को नहीं लगने दी थी। 18 मई, 1974 के सुबह 8ः05 बजे इस बम का सफलतापूर्वक परीक्षण कर इंदिरा ने अपने खिलाफ तेजी से बढ़ रहे जनाक्रोश को थामने में भले ही सफलता पाई लेकिन यह ज्यादा दिन तक टिक नहीं सकी तो इसके पीछे सबसे महत्वपूर्ण कारण जय प्रकाश नारायण थे जिन्होंने ‘इन्दु’ के प्रति अपने प्रेम को त्याग अब सीधे- सीधे प्रधानमंत्री इंदिरा संग दो हाथ करने का मन बना लिया था। बीस वर्ष की आयु में जेपी 1922 में उच्च शिक्षा प्राप्त करने संयुक्त राष्ट्र अमेरिका चले गए थे। इस दौरान उनकी पत्नी प्रभावती महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम में रही थी। समाज शास्त्र में मास्टर्स की डिग्री प्राप्त करने के बाद जय प्रकाश भारत वापस लौट 1929 में कांग्रेस में शामिल हो स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई का हिस्सा बन गए। असहयोग आंदोलन के दौरान 1930 में नासिक जेल में बंद जेपी का परिचय इसी जेल में कैद राममनोहर लोहिया, पीलू मसानी, अशोक मेहता और अच्यूत पटवर्धन सरीखे समाजवादी विचारधारा के नेताओं संग हुआ जो आगे चलकर समाजवादियों के संगठन कांग्रेस समाजवादी पार्टी के गठन का कारण बना। आचार्य नरेंद्र देव इस संगठन के अध्यक्ष और जेपी 1934 में इस संगठन के महासचिव चुने गए थे। महात्मा गांधी संग जेपी के रिश्ते कभी नरम तो कभी गरम रहा करते थे। वे गांधी की अहिंसा की नीति का सम्मान तो करते थे लेकिन प्रभावती समान अंधभक्त नहीं थे। मार्क्सवादी विचारधारा से ओत-प्रोत जेपी ने 1936 में ‘व्हाई सोशलिज्म’ (समाजवाद क्यों) नामक एक पुस्तक लिखी थी जिसके बारे में कहा जाता है कि इस पुस्तक से प्रभावित होकर ही वामपंथीं नेता ईएमएस नम्बूदरीपाद कांग्रेस समाजवादी पार्टी में 1934 में शामिल हुए थे। ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन के दौरान गिरफ्तार किए गए जय प्रकाश नारायण जब 1946 में जेल से रिहा किए गए थे तब पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में उनके सम्मान में आयोजित एक विशाल जनसभा के समक्ष रामधारी सिंह दिनकर द्वारा लिखी और पढ़ी गई एक कविता से पता चलता है कि जेपी किस मिट्टी के बने थे और आमजन के मध्य उनका कद कितना विराट था। दिनकर ने पाठ कियाःकहते हैं उसको जयप्रकाश जो नहीं मरने से डरता है
ज्वाला को बुझते देख, कुंड में स्वयं कूद जो पड़ता है
है जयप्रकाश वह जो न कभी सीमित रह सकता घेरे में
अपनी मशाल जो जला बांटता फिरता ज्योति अंधेरे में
हां जयप्रकाश है नाम समय की करवट का, अंगड़ाई का
भूचाल, बवंडर के दावों से, भरी हुई तरुणाई का
है जयप्रकाश वह नाम जिसे इतिहास समादार देता है
बढ़कर जिनके पद चिÐों को उर पर अंकित कर लेता है।’

जेपी हालांकि कांग्रेस के सदस्य बने हुए थे लेकिन उनके मतभेद नेहरू और पटेल संग गहराने लगे थे। उनका दृढ़ मत था कि आजादी बगैर विभाजन मिलना चाहिए और उसे पाने के लिए अंग्रेज हुकूमत के साथ वार्ता के बजाए असहयोग का रास्ता अपनाना चाहिए। वे ब्रिटिश सरपरस्ती अंतर्गत बनी संविधान सभा के घोर विरोधी थे। 2 सितम्बर, 1946 को ‘काम चलाऊ सरकार’ के गठन बाद नेहरू के आग्रह पर जेपी कांग्रेस वर्किंग कमेटी का सदस्य बनने के लिए तैयार तो हो गए लेकिन उन्होंने कांग्रेस की नीतियों के प्रति अपना संशय जाहिर करते हुए बयान दे डाला कि ‘यदि मुझे ऐसा लगा कि कांग्रेस कार्य समिति की सदस्यता मेरे द्वारा क्रांतिकारी संघर्ष का मार्ग तैयार करने की राह में आड़े आ रही है तो मैं समिति से त्याग पत्र देने में तनिक भी नहीं हिचकिचाऊंगा।’ जेपी और सरदार पटेल के मध्य इस दौरान मतभेद लगातार गहरे होते चले गए थे। नेहरू इन दो दिग्गजों के मध्य सुलह कराने का लगातार प्रयास करते रहे लेकिन अंततः मार्च 1948 में समाजवादी धड़े ने कांग्रेस संग अपना नाता पूरी तरह से तोड़ नई राजनीतिक पार्टी बनाने का ऐलान कर डाला। नेहरू ने इस अलगाव से ठीक पहले 15 मार्च, 1948 को एक भावनात्मक पत्र जेपी को लिखा था-

आप जल्द ही बैठक कर महत्वपूर्ण निर्णय लेने जा रहे हैं। आप जो भी निर्णय लेंगे, निश्चित ही उसका व्यापक असर देश पर पड़ेगा . . .मैं लेकिन, यदि मुझे इजाजत हो तो कहना चाहूंगा कि आप जो भी निर्णय लें वह मित्रवत भावना के साथ हो और एक-दूसरे संग हर सम्भव सीमा तक सहयोग करने की मंशा लिए हो। देश की आंतरिक स्थिति बेहद कठिन है और बाहरी स्थिति भी जोखिम से भरी हुई है . . .इसलिए हमें अपनी पूरी शक्ति के साथ मिलकर इन दोनों खतरों से निपटना और बाहर आना होगा।
नेहरू के पत्र का उत्तर जेपी ने भी भावनात्मकता से लबरेज हो दिया-

. . .मुझे इस बात का भलीभांति अंदाजा है कि जब हम कांग्रेस छोड़ेंगे तो अपने पीछे कई मित्र और कॉमरेड छोड़कर आएंगे जिनके साथ हमारी निजी प्रगाढ़ता और वैचारिक समानता कभी दूर नहीं हो सकती है।

आजादी उपरांत जेपी कुछ वर्षों तक संसदीय राजनीति में सक्रिय अवश्य रहे लेकिन उनका धीरे-धीरे इस व्यवस्था से मोहभंग होना शुरू हो चला था। 1953 में उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से इस्तीफा दे डाला और अपनी ऊर्जा सामाजिक सुधारों से जुड़ी गतिविधियों में लगा दी। महात्मा गांधी के शिष्य विनायक नरहरी भावे उर्फ विनोबा भावे द्वारा शुरू किए गए ‘भूदान आंदोलन’ ने जेपी को खासा आकर्षित करने का काम किया। उन्होंने विनोबा भावे के इस प्रयास को ‘लोकनीति’ का नाम देते हुए इसे सबके उदय (सर्वोदय) का उत्कृष्ट उदाहरण करार दिया था। इस आंदोलन की शुरुआत आंध्र प्रदेश के उस इलाके तेलंगाना से हुई थी जहां वामपंथी सशस्त्र संघर्ष के जरिए जमींदारों और भू-स्वामियों से जमीन छीन भूमिहीनों में बांटने में जुटे हुए थे। ऐसे इलाके में विनोबा भावे ने एक बड़े भूपति रामचंद्र रेड्डी को भूदान के लिए तैयार कर उनके गांव पौचमपल्ली के अस्सी भूमिहीन हरिजनों को सौ एकड़ जमीन दान में दिला ‘भूदान आंदोलन’ की नींव रखी थी। जेपी पूरी ताकत के साथ विनोबा भावे के आंदोलन को सफल बनाने में जुट गए थे। ‘भूदान’ की सफलता ने एक नए आंदोलन ‘ग्राम दान’ को जन्म दे डाला था। उड़ीसा राज्य में विनोबा भावे के प्रयासों चलते बड़े जमींदारों ने अपनी भूमि ग्रामसभा के नाम कर डाली। ‘भूदान-ग्रामदान आंदोलन’ अपने शुरुआती चरण में खासा सफल रहा था। अप्रैल 1954 तक लगभग 25 लाख एकड़ जमीन भूदान के जरिए भूमिहीनों के नाम कटवा पाने में विनोबा भावे सफल रहे थे। मार्क्सवादी विचारों वाले जेपी अब गांधी के बताए अहिंसक मार्ग के जरिए सर्वहारा को सम्पन्न बनाए जाने की राह तलाशने लगे। उन्होंने विनोबा भावे को सलाह दी कि जो जमींदार स्वेच्छा से भूदान के लिए तैयार नहीं हैं उनका सामाजिक बहिष्कार कर दबाव में लिया जाना चाहिए। भावे ने लेकिन जेपी के इस सुझाव को अव्यावहारिक कह खारिज कर दिया था। आहत जयप्रकाश धीरे-धीरे भूदान आंदोलन से दूर होने लगे। गांवों को आत्मनिर्भर और राजनीतिक रूप से सशक्त बना नए भारत का निर्माण अब उनका लक्ष्य बन चुका था। 1965 में उन्हें उनके सामाजिक सरोकारों के लिए ख्याति प्राप्त अंतरराष्ट्रीय रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल का शुरुआती दौर दोनों नेताओं के मध्य परस्पर सम्मान और सहयोग के नाम रहा। जेपी निश्चित तौर पर अपने करीबी मित्र द्वय जवाहर और कमला की एकमात्र संतान के प्रति सद्इच्छा रखते थे तो इंदिरा भी उनके सुझावों को गम्भीरता से लेती थी। कश्मीर के जटिल मसले पर इंदिरा गांधी को एक भावपूर्ण पत्र लिखकर अपील की थी कि शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा करने और उनकी मदद से कश्मीर में शांति बहाली करने का उपाय ही इस समस्या का अंतिम समाधान है। इंदिरा ने उनके इस पत्र का जवाब देते हुए लिखा था-

. . .यदि आप आगामी दिनों में दिल्ली आने वाले हैं तो मैं इस विषय पर आपसे वार्ता करने की इच्छुक हूं और ऐसी बैठक का स्वागत करती हूं।

दोनों नेताओं के मध्य आपसी सौहार्द का रिश्ता लेकिन धीरे-धीरे दरकने लगा था जो कांग्रेस में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान मचे घमासान के दौरान खासा तीव्र हो गया। 1973 में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति का मसला दोनों के मध्य एक न पटने वाली खाई में तब्दील हुआ जिसका नतीजा बिहार आंदोलन की अगुवाई जेपी द्वारा अपने हाथों में लिए जाने के रूप में सामने आया। 18 मई, 1974 को किए गए परमाणु विस्फोट बाद भले ही इंदिरा सरकार रेल हड़ताल को समाप्त कराने और तात्कालिक तौर पर प्रधानमंत्री की छवि चमकाने में सफल रही, बिहार आंदोलन की धार जेपी के नेतृत्व में जल्द ही ऐसी आंधी में बदल गई जिसने इंदिरा गांधी की व्यक्तिगत छवि और कांग्रेस पार्टी के जनाधार को जबरदस्त आघात पहुंचाने का काम कर दिखाया था। पांच जून, 1974 को पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में एक विशाल जनसभा का आयोजन ‘बिहार छात्र संघर्ष समिति’ द्वारा किया गया। इस सभा को सम्बोधित करते हुए जेपी ने भारतवासियों से सम्पूर्ण क्रांति का आह्नान कर डाला। उन्होंने कहा कि सम्पूर्ण क्रांति में सात क्रांतियां शामिल हैं-राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक और आध्यात्मिक क्रांति। इन सातों क्रांतियों को मिलाकर सम्पूर्ण क्रांति होती हैं’। जेपी के इस आह्नान बाद गांधी मैदान में नारा गूंजा था-

‘जात-पात तोड़ दो, तिलक-दहेज छोड़ दो
समाज के प्रवाह को नई दिशा में मोड़ दो।’

जेपी ने कहा ‘सम्पूर्ण क्रांति से मेरा तात्पर्य समाज के सबसे अधिक दबे-कुचले व्यक्ति को सत्ता के शिखर पर देखना है।’ जेपी ने छात्रों से इस क्रांति को सफल बनाने के लिए एक बरस तक शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार करने की बात कही। उन्होंने कहा-‘केवल बिहार मंत्रिमंडल का त्याग पत्र या विधानसभा का विघटन काफी नहीं है, आवश्यकता एक बेहतर सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करने की है।’

क्रमशः

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