Editorial

धार्मिक उन्माद के मकड़जाल में न्यायपालिका

मेरी बात

माहात्मा गांधी की बात करना, उनके विचारों पर चर्चा करना नए भारत में, विश्वगुरु बनने का दिवास्वप्न देख रहे भारत में अब ओल्ड फैशन, निरर्थक, यहां तक कि प्रतिगामी माना जाने लगा है। इस दृष्टि से मैं खुद को प्रतिगामी करार दिए जाने के लिए तैयार हूं क्योंकि मुझे गांधी के विचार और उनका जीवन खासा प्रेरणादायक लगता है। भारतीय न्यायपालिका की वर्तमान स्थिति पर कुछ लिखने बैठा तो मुझे गांधी याद आ गए। महात्मा का मानना था कि न्यायपालिका का उद्देश्य केवल कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करना नहीं होना चाहिए, बल्कि न्याय, नैतिकता और सत्य पर आधारित होना चाहिए। हालांकि गांधी ने न्यायपालिका पर सीधे कभी अपने विचार नहीं लिखे हैं लेकिन उनके द्वारा सम्पादित समाचार पत्रों- ‘हरिजन’ और ‘नवजीवन’ तथा उनकी पुस्तक हिंद स्वराज’ में न्याय प्रणाली पर उनका दृष्टिकोण अवश्य मिलता है। गांधी का मानना था, स्मरण रहे वे स्वयं वकील थे, कि कानून और न्यायिक प्रणाली अधिकतर शक्तिशाली लोगों के पक्ष में काम करती है और कमजोर के साथ न्याय करने में विफल रहती है।

विगत कुछ समय से लगातार ऐसी खबरें पढ़ने को मिल रही हैं जो निश्चित तौर पर भारतीय न्यायपालिका में आई गिरावट को सामने लाती हैं और हरेक उस नागरिक को आंदोलित करने का काम कर रहे हैं जिन्हें अहसास है कि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए निष्पक्ष न्यायपालिका का होना किस कदर जरूरी है। आजादी उपरांत कई ऐेसे मौके आए जब निरंकुश सत्ता ने आम नागरिक को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों को छीनने का प्रयास किया। ऐेसे में हमेशा न्यायपालिका ने आगे बढ़कर लोकतांत्रिक व्यवस्था को बचाने का काम किया है। 1973 का ‘केशवानंद भारतीय केस’ को याद कीजिए, यदि नहीं जानते तो इसके बारे में पढ़िएगा जरूर। यह ऐसा मुकदमा था जिसमें उच्चतम् न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि संविधान की मूल भावना को संशोधित नहीं किया जा सकता है। 1980 में ‘मिनरवा मिल्स्’ मुकदमें में अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए उच्चतम न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 की रक्षा करते हुए कहा था कि किसी भी कानून के जरिए केंद्र सरकार अथवा राज्य सरकारें मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकती हैं। 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने ‘विशाखा दिशा निर्देश’ जारी करते हुए कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ महिलाओं की रक्षा करने सम्बंधी आदेश जारी किए थे जिनके आधार पर ही 2013 में संसद ने ‘कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न अधिनियम’ पारित किया था। 2018 के ‘नवतेज सिंह जोहर’ केस में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय समलैंगिक समुदाय के लिए भारी राहत लेकर आया। कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था। ऐसे एक नहीं अनेकों फैसले हैं जिन्होंने लोकतंत्र को बनाए रखने, जिलाए रखने का काम किया है तो कई बार ऐसे फैसले भी न्यायालयों ने दिए हैं जिनसे न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों को आघात पहुंचा है, बल्कि न्यायपालिका की गरिमा को भी ठेस पहुंची है।

गत् एक अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में एक अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश रवि कुमाार दिवाकर ने ऐसा ही एक फैसला सुनाया है जो धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा और निष्पक्ष न्यायपालिका की बुनियाद पर चोट पहुंचाता है। न्यायाधीश दिवाकर ने मोहम्मद आसिम अहमद नामक एक 24 वर्षीय नवयुवक को भारतीय दंड संहिता की धारा 376-2एन (बार-बार बलात्कार), धारा 506 (आपराधिक धमकी) और धारा 323 (स्वेच्छा से चोट पहुंचाना) के तहत आजीवन कारावास की सजा सुनाई। मुझे और मुझ सरीखे हर  शख्स को इस फैसले से इसलिए ऐतराज है क्योंकि यह फैसला सुनाने वाले न्यायाधीश एक धर्म विशेष के प्रति दुराग्रह रखते हैं। उनका 42 पृष्ठ का फैसला इस बात की पुष्टि करता है। मई 2023 में एक बाईस वर्षीय युवती ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी कि मोहम्मद आसिम अहमद ने खुद को हिंदू बताते हुए उसके साथ शादी की। शादी के बाद उसे ज्ञात हुआ कि आरोपी मुसलमान है। इस शिकायत के आधार पर बरेली पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया था। यह मामला धार्मिक तनाव का कारण बना और इसे ‘लव जिहाद’ कह हिंदुवादी संगठनों ने खूब हवा दी। सितम्बर 2023 में लेकिन लड़की कोर्ट में अपने बयान से मुकर गई। उसने परिवार और कुछेक हिंदुवादी संगठनों के दबाव में आकर झूठी शिकायत दर्ज कराने की बात न्यायालय के समक्ष कही। एक बालिग युवती का स्वेच्छा से दिया गया यह बयान मोहम्मद आसिम को बेकसूर साबित करने के लिए काफी है लेकिन पूर्वाग्रहों से भरे न्यायाधीश रवि कुमार दिवाकर ने युवती को सिरे से नकार दिया और मोहम्मद आसिम को आजीवन कारावास की सजा सुना दी है। अपने निर्णय में उन्होंने इस पूरे मामले को न केवल लव जिहाद कह पुकारा, बल्कि इसे अवैध धर्मांतरण से भी जोड़ते हुए हिंदुवादी संगठनों के जुमले लव जिहाद की बकायदा व्याख्या कर डाली है। बकौल न्यायाधीश ‘लव जिहाद में, मुस्लिम पुरुष योजनाबद्ध तरीके से शादी के जरिए इस्लाम धर्म परिवर्तन के लिए हिंदू लड़कियों को निशाना बनाते हैं।’

न्यायाधीश इतने पर नहीं रूके, उन्होंने इस कथित लव जिहाद को भारत के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र तक बता डाला और इसे भारत की सम्प्रभुता के लिए खतरा करार दे दिया। मुसलमानों के प्रति घोर पूर्वाग्रह रखने वाले रवि कुमार दिवाकर ने अपने इस अजीबो-गरीब फैसले में शिकायत वापस लेने वाली युवती की बाबत भी अनावश्यक टिप्पणी की है। उन्होंने अपने निर्णय में कहा है- ‘इस अदालत के अनुसार, जब पीड़िता अपने माता-पिता के साथ नहीं रहती है, किराए के घर में अकेली रहती है और जब वह अदालत में पेश होती है तो वह एक एंड्रायड फोन लेकर आती है। यह एक रहस्य है कि उसे घर में अकेले रहने, खाने-पीने, कपड़े पहनने और मोबाइल पर बात करने के लिए पैसे कहां से मिलते हैं। निश्चित रूप से उपरोक्त मामले में वह वादी/पीड़िता को कुछ आर्थिक मदद दी जा रही है और यह आर्थिक मदद आरोपी के जरिए दी जा रही है। इसलिए यह मामला लव जिहाद के जरिए अवैध धर्मांतरण का मामला है।’ चूंकि मामला जबरन धर्मांतरण का था ही नहीं इसलिए पुलिस ने आरोपी पर धर्मांतरण विरोधी कानून के तहत आरोप नहीं लगाए थे।

न्यायाधीश दिवाकर ने इसके लिए पुलिस की आलोचना करते हुए यह निर्देश भी दे डाले कि उनके इस फैसले को जिले के हर पुलिस स्टेशन में भेजा जाए ताकि पुलिस अधिकारियों को अवैध धर्मांतरण और लव जिहाद जैसे मामलों में सभी धाराएं लगाने की समझ पैदा हो। लव जिहाद को लेकर न्यायाधीश दिवाकर किस हद तक पूर्वाग्रहों के शिकर हैं और हिंदुवादी संगठनों की भाषा बोल रहे हैं, इसे उनके इस आदेश से समझा जा सकता है। वे कहते हैं- ‘लव जिहाद में विदेशी फंडिंग की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है…

लव जिहाद के जरिए अवैध धर्मांतरण किसी अन्य बड़े उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है। यदि भारत सरकार ने समय रहते लव जिहाद के जरिए अवैध धर्मांतरण को नहीं रोका तो भविष्य में देश को इसके गम्भीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं…

लव जिहाद के जरिए हिंदू लड़कियों को प्रेम जाल में फंसाकर अवैध धर्मांतरण का अपराध एक विरोधी गिरोह अर्थात सिंडिकेट द्वारा बड़े पैमाने पर किया जा रहा है, जिसमें गैर-मुस्लिमों, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी) समुदायों के कमजोर वर्गों, महिलाओं और बच्चों का ब्रेनवॉश करके, उनके धर्म के बारे में बुरा बोलकर, देवी-देवताओं के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करके, मनोवैज्ञानिक दबाव बनाकर और उन्हें शादी, नौकरी आदि विभिन्न प्रकार के प्रलोभनों से लुभाकर भारत में भी पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे हालात पैदा किए जा सकें…

इस संबंध में यह भी उल्लेखनीय है कि विचाराधीन मामले में वादी/पीड़िता भी ओबीसी वर्ग से आती है और लव जिहाद के जरिए उसका अवैध रूप से धर्म परिवर्तन कराने का प्रयास किया गया है…
अवैध धर्मांतरण के मुद्दे को हल्के में नहीं लिया जा सकता है। अवैध धर्मांतरण देश की एकता, अखंडता और सम्प्रभुता के लिए बड़ा खतरा है।’
न्यायाधीश रवि कुमार दिवाकार इससे पहले भी अपनी दक्षिणपंथी विचारों के चलते विवादित फैसले दे चुके हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने न्यायाधीश दिवाकार द्वारा दिए गए एक फैसले पर कठोर टिप्पणी करते हुए उक्त आदेश में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ‘आधुनिक दौर का विचारक’ कह पुकराने और राजनीतिक दलों पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाने जैसी बातों को हटा डाला था। हाईकोर्ट ने तब दिवाकर की टिप्पणियों को अनावश्यक और राजनीतिक रंग में डूबी करार देते हुए कहा था- ‘It is not expected from the judicial officer to express or depict his personal or preconceived notions or inclinations in the matter’ (न्यायिक अधिकारी से यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि वह अपने निजी विचार अथवा पूर्वाग्रहों का असर अपने फैसले में लिखे)।उच्चतम न्याायालय ने भी कई मर्तबा न्यायाधीशों को अनावश्यक टिप्पणियों से बचने की सलाह दी है। यह सलाह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि न्यायाधीशों के कहे का अथवा लिखित फैसलों का समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। ऐसे समय में जब धर्म और जाति का जहर एक बार फिर से उफान पर है। जब इन दोनों को आधार बना आमजन से जुड़े असली मुद्दों को कहीं गहरे दफन करने का काम कर पाने में राजनीतिक दल सफल हो रहे हैं, न्यायपालिका का भी धर्म और जाति के दलदल में जा धंसना, लोकतंत्र के लिए बेहद घातक और बेहद चिंतनीय हो जाता है।

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