नैनीताल लोकसभा सीट से इस कदर चौंकाने वाले परिणाम आते हैं कि अतीत में स्वर्गीय नारायण दत्त तिवारी जैसे नेता भी जनता के मन- मिजाज को नहीं समझ सके। इस बार भी यहां से दो राष्ट्रीय पार्टियों के दिग्गजों अजय भट्ट और हरीश रावत में घमासान चल रहा है। रणनीतिक मोर्चे पर भारी दिखने के लिए नाराज कार्यकर्ताओं को हर तरह से मनाया जा रहा है। दूसरी पार्टियों में सेंध लगाई जा रही है। भाजपा राष्ट्रवाद और केंद्र की विकास योजनाओं को मुद्दा बना रही है, तो कांग्रेस राज्य की भाजपा सरकार के दो वर्षीय कार्यकाल पर निशाना साधे  हुए है
नैनीताल लोकसभा क्षेत्र ने अतीत में केसी पंत, नारायण दत्त तिवारी और भगत सिंह कोश्यारी जैसे कुछ ऐसे दिग्गजा नेता दिए हैं जिन्होंने देश और प्रदेश का नेतृत्व किया। तिवारी और पंत केंद्र में महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री रहे। तिवारी उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री भी रहे। इसी तरह कोश्यारी उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रहे। इस बार कांग्रेस और भाजपा दोनों पार्टियों ने यहां से अपने दो ऐसे नेताओं पर भरोसा कर चुनावी समर में उतारा है जो अपनी-अपनी पार्टियों के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं। हरीश रावत केंद्र में मंत्री और प्रदेश में मुख्यमंत्री रहे। इसी तरह अजय भट्ट भी प्रदेश में कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं। दिग्गजों के चुनाव में उतरने से नैनीताल लोकसभा सीट बेहद ‘हॉट’ हो चुकी है। कांग्रेस, भाजपा दोनों पार्टियां इस सीट पर कब्जा जमाने के लिए जिस तरह रात-दिन एक कर रहे हैं, उससे पूरे देश की निगाहें यहां टिकी हुई हैं।
इस सीट को लेकर इसलिए भी देश भर के लोगों की दिलचस्पी ज्यादा रहती है कि यहां की जनता के मन-मिजाज का सहज अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि कब चौंकाने वाले परिणाम दे डाले। 1991 में भाजपा के नए खिलाड़ी बलराज पासी ने तत्कालीन समय में कांग्रेस से प्रधानमंत्री पद के दावेदार समझे जा रहे नारायण दत्त तिवारी को मात दे दी थी। यह हार पंडित तिवारी को जीवन भर सालती रही।
‘दि संडे पोस्ट’ ने नैनीताल-ऊधमसिंह नगर लोकसभा क्षेत्र के जमीनी हालात जायजा लेने  के उद्देश्य से आम लोगों से बात की तो लगा कि अजय भट्ट और हरीश रावत आमने-सामने अवश्य हैं, लेकिन असली मुकाबला हरीश रावत और नरेंद्र मोदी के बीच हो रहा है। खेती-बाड़ी करने वाले जसपुर निवासी राजीव चौधरी मानते हैं कि अजय भट्ट के बनिस्पत हरीश रावत जनता से ज्यादा जुड़े हुए हैं। लेकिन दूसरी तरफ काशीपुर के पोस्ट ग्रेज्युट छात्र राजेश कुमार कहते हैं कि अजय भट्ट का जीतना इस समय जरूरी है। हमें भट्ट जी से ज्यादा मतलब मोदी जी से है। हम मोदी जी को फिर से प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं। मोदी ने देश की सुरक्षा के लिए कोई समझौता नहीं किया है। अगर हमने उन्हें इस बार प्रधानमंत्री नहीं बनाया तो देश कट्टरपंथियों के हवाले हो जाएगा। मोदी के अलावा कोई ऐसा नहीं दिख रहा है जो देश का स्वाभिमान बरकरार रख सके। आम जनता के ये उद्गार चुनाव की वर्तमान पर प्रकाश डालने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
अब पार्टियों के चुनाव संचालन और रणनीति की बात करें तो एक तरफ कांग्रेस के हरीश रावत अपने चुनाव की बागडोर खुद संभाले हुए हैं तो दूसरी तरफ भाजपा अजय भट्ट के चुनाव अभियान की कमान पार्टी संगठन के हाथों में है। हालांकि 20 मार्च से पहले भाजपा में चुनाव को लेकर उदासीनता थी। पार्टी के नई नेता मन से पार्टी प्रत्याशी का साथ देने को तैयार नहीं दिखाई दे रहे थे। यहां तक कि उन्होंने 25 मार्च को अजय भट्ट के चुनाव नामांकन में तक जाना जरूरी नहीं समझा। पूर्व सांसद बलराज पासी और कैबिनेट मंत्री अरविंद पांडे इसका उदाहरण हैं। लेकिन जैसे ही 28 मार्च को मोदी ने बलराज पासी की पीठ क्या थपथपाई वह पूरी जान लगाकर मैदान में उतर गए। इसी तरह प्रदेश के शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे भी सक्रिय हो उठे। बताते हैं कि सुस्त पड़े नेताओं की सक्रियता की एक ठोस वजह भी है, पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने उत्तराखण्ड के सभी पार्टी विधायकों को यह फरमान भेजा है कि वह या तो अपने-अपने विधानसभा क्षेत्र से पार्टी प्रत्याशी को जिताकर भेजें या फिर 2022 में अपना बोरिया बिस्तर बांधने के लिए तैयार रहें।
भाजपा के सूत्रों की मानें तो अमित शाह के इस फरमान ने चाबुक की तरह काम किया। अब सभी विधायकों को पार्टी प्रत्याशी को ज्यादा से ज्यादा वोट दिलाने की चिंता सता रही है। अभी नैनीताल लोकसभा क्षेत्र की 14 विधानसभा सीटों में से 11 पर भाजपा विधायक सत्तासीन हैं जबकि एक भीमताल की सीट से राम सिंह कैडा निर्दलीय जीते थे। जिन्होंने बाद में अपना समर्थन भाजपा को दे दिया। हालांकि राजनीतिक गलियारों में इस बात की चर्चा है कि राम सिंह कैडा कांग्रेस प्रत्याशी हरीश रावत के शिष्य रहे हैं और फिलहाल उनका झुकाव रावत की तरफ ज्यादा है। जसपुर और हल्द्वानी विधानसभा सीट कांग्रेस के खाते में है। जिसमें जसपुर के विधायक आदेश चौहान तो हरीश रावत के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं। लेकिन हल्द्वानी की विधायक और नेता प्रतिपक्ष डॉ ़ इंदिरा हृदयेश के मन में रावत के प्रति अभी भी खटास बताई जा रही है। इसकी वजह गत वर्ष उनके पुत्र सुमित हृदयेश का हल्द्वानी नगर निगम से मेयर का चुनाव हारना है। इंदिरा हृदयेश ने हार का ठीकरा हरीश रावत के सर फोड़ा और कहा था कि उनके बेटे को हरीश रावत ने हराया। लेकिन इस दौरान सुनने में आ रहा है कि सुमित हृदयेश इस चुनाव में हरीश रावत और अपनी मां डॉ ़ इंदिरा हृदयेश के बीच पनपी खाई को पाट देने की शपथ ले चुके हैं। जिसके चलते सुमित पूरे मन से हरीश रावत को जिताने के लिए जुट गए हैं। जानकारों के मुताबिक  सुमित बखूबी जानते हैं कि उनकी मां का राजनीतिक सूरज अस्त की ओर है, भविष्य की राजनीति उन्हें कांग्रेस में ही करनी है और सबको साथ लेकर चलना है। कांग्रेस के पूर्व सांसद रहे महेंद्र पाल की चुनाव में सक्रियता कम दिखाई दे रही है। इसका कारण कांग्रेस के दूसरे गुट प्रीतम सिंह से उनकी करीबी बताई जाती है। प्रीतम सिंह गुट ने महेंद्र पाल को दो माह पूर्व ही पार्टी का अघोषित प्रत्याशी तय कर दिया था। पूर्व सांसद केसी सिंह बाबा भी निष्क्रिय दिखाई दे रहे हैं।
भाजपा प्रत्याशी अजय भट्ट का सबसे ज्यादा प्लस प्वाइंट यह है कि कांग्रेस के मुकाबले उनका चुनावी मैनेजमेंट मजबूत है। प्रचार के मामले में भी वह हरीश रावत से आगे दिखाई दे रहे हैं। सड़कों पर कांग्रेस की अपेक्षा भाजपा के प्रचार वाहन अधिक दौड़ रहे हैं। हालांकि पंजाबी समाज में अजय भट्ट का अभी उतना पुरजोर समर्थन दिखाई नहीं दे रहा है, जिसकी उम्मीदें थीं। बाजपुर निवासी सरदार दलजीत सिंह बताते हैं कि भाजपा द्वारा समाज की अपेक्षा की गई। उनके समाज के विधायक हरभजन सिंह चीमा को मंत्रिमंडल में स्थान नहीं दिया गया। जबकि वह चार बार के विधायक हैं। सरदार दलजीत सिंह की बातों में दम भी दिखाई देता है। विधायक हरभजन सिंह चीमा पार्टी प्रत्याशी अजय भट्ट के चुनाव प्रचार में कहीं नहीं दिख रहे हैं। हालांकि भाजपा इस मामले में यह कहकर चीमा को क्लीन चिट दे रही है कि उनकी तबियत ठीक नहीं है। कैबिनेट मंत्री यशपाल आर्य और उनके विधायक पुत्र संजीव आर्य चुनाव में पूरी तरह सक्रिय हैं। यशपाल आर्य टिकट के दावेदार भी थे, लेकिन पार्टी ने किसी भी विधायक को संसद का टिकट नहीं देने का फैसला लिया था। भगत सिंह कोश्यारी का टिकट कटा तो प्रत्याशियों में पहला नाम उनके शिष्य खटीमा विधायक पुष्कर धामी का था। लेकिन विधायक होने के चलते उन्हें भी टिकट नहीं मिला।
नैनीताल ऊधमसिंह नगर सीट के जातिगत सीमकरणों को देखें तो यह सीट ठाकुर बाहुल्य है। यहां ठाकुर 27 प्रतिशत, ब्राह्मण 17 प्रतिशत, अल्पसंख्यक 16 प्रतिशत, तो 14 प्रतिशत दलित मतदाता हैं। इस सीट पर सबसे ज्यादा पहाड़ी मतदाता हैं। 19 लाख मतदाताओं में करीब 42 प्रतिशत मतदाता पहाड़ी हैं। कालाढूंगी।, हल्द्वानी, लालकुआं और खटीमा विधानसभा सीट में ज्यादातर पहाड़ी मतदाता हैं। पंजाबी, बंगाली और थारू समाज के लोग भी यहां रहते हैं। सीट पर 64 प्रतिशत ग्रामीण मतदाता हैं जबकि 36 प्रतिशत शहरी मतदाता हैं।
 तमाम जमीनी हालात और समीकरणों को देखते हुए साफ है कि इस बार यहां भाजपा और कांग्रेस के दो दिग्गजों में कड़ी टक्कर है। अजय भट्ट और हरीश रावत दोनों के लिए यह चुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुका है। 2017 का विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद भाजपा ने उन पर अपना विश्वास कायम रखा कि उनके प्रदेश अध्यक्ष रहते पार्टी को ऐतिहासिक जीत मिली। उनके प्रदेश अध्यक्ष के कार्यकाल में भी एक साल का एक्सटेंशन दिया। अगर ऐसे में वे  चुनाव हारते हैं तो पद के साथ ही प्रतिष्ठा भी दांव पर रहेगी। ऐसी ही स्थिति हरीश रावत की है। 2017 के विधानसभा चुनाव में मात्र 11 सीट पर कांग्रेस विजयी रही। जबकि मुख्यमंत्री रहते हुए हरीश भी दो सीटों से विधानसभा चुनाव हारे। इसके बावजूद पार्टी हाईकमान ने रावत को राष्ट्रीय महासचिव बनाया। दो विधानसभा चुनाव हार चुके रावत अगर यह लोकसभा चुनाव भी हार गए तो फिर पार्टी के दूसरे गुटों को उनकी खिंचाई करने का एक और मौका मिल जाएगा। बहरहाल अजय भट्ट और हरीश रावत दोनों के लिए ही यह चुनाव जीवन मरण का प्रश्न बन चुका है। इसके चलते दोनों ने चुनावों में पूरी जान लगा रखी है। राजनीति के मैदान के दोनों ही मंजे हुए खिलाड़ी हैं। लेकिन भितरघात की आशंका दोनों के लिए बनी हुई हैं। दोनों ही पार्टियों में कुछ ऐसे नेता हैं जो बाहर से तो अपनी पार्टी और प्रत्याशी के साथ दिख रहे हैं, लेकिन अंदर खाने वह दूसरे दल के उम्मीदवार से अपनी गोटियां फिट कर रहे हैं। उत्तराखण्ड की राजनीति अविश्वास की खाई कई बार बन चुकी है। कब कौन किधर को पलट जाए कहना मुश्किल है। हर किसी की महत्वाकांक्षाएं हावी हैं। सबके अपने हित प्रथम हैं और पार्टी बाद में है। फिलहाल यहां जातिवाद की राजनीति का कार्ड भी खेला जाने लगा है। अगर यह चला तो इसमें हरीश रावत मजबूत हो सकते हैं।
इस सीट पर बसपा के वोट बैंक पर दोनों दिग्गज प्रत्याशियों की नजर है। बसपा यहां से नवनीत अग्रवाल को मैदान में उतारा है। चुनाव में वह कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं। किच्छा निवासी यामीन कुरेशी कहते हैं कि पिछली बार के चुनाव में अल्पसंख्यक समाज के व्यक्ति को बसपा ने टिकट दिया था। जिसके चलते उनका अधिकतर वोट मायावती की पार्टी को गया, लेकिन इस बार यह वोट हरीश रावत की तरफ शिफ्ट कर रहा है। बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर किच्छा और सितारगंज विधानसभा सीट से चुनाव लड़े नवतेज पाल और राजेश प्रताप सिंह को कांग्रेस के राष्ट्रीय सहसचिव संजय चौधरी ने पार्टी में शामिल कराकर बड़ा दांव चला है। 2017 के विधानसभा चुनाव में नवतेज पाल को 12000 और राजेश प्रताप सिंह को 8500 मत प्राप्त हुए थे।
अब जबकि चुनाव प्रचार चरम पर है, तो स्थानीय और राष्ट्रीय मुद्दे जोर-शोर से उठ रहे हैं। कई क्षेत्रों में भाजपा विधायकों की उदासीनता पार्टी के लिए दिक्कतें खड़ी कर रही हैं। नानकमत्ता के कुंदन सिंह कहते हैं कि दो सालों में जनता जनप्रतिनिधियां को समझ चुकी है। क्षेत्र में विकास कार्यों की कोई रफ्तार नहीं हैं। किसानों की समस्याएं जस की तस हैं। उन्हें खाद और पानी तक मिलना मुश्किल हो रहा है। भीमताल की कविता बिष्ट की मानें तो भाजपा ने इस बार बड़ी चतुराई से काम लिया है। वह मतदाताओं का ध्यान भटकाने के लिए राष्ट्रीय मुद्दा उठा रही है। जबकि हमारी मूलभूत सुविधाओं में कटौती की तरफ किसी का ध्यान नहीं है। मोदी को एअर स्ट्राइक का अवतार बनाकर मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित किया जा रहा है। बहरहाल अभी तक हरीश रावत के सामने मोदी मैजिक भारी पड़ता नजर आ  रहा है। इसकी काट के लिए वह प्रदेश सरकार के दो साल  के कार्यकाल को निशाना बना रहे हैं।

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