नवाबों के शहर और यूपी की राजधानी लखनऊ के मतदाताओं का मूड और मौजूदा चुनावी समीकरण को लेकर भले ही राजनीतिक दलों के बीच मंथन चल रहा हो लेकिन भाजपा के गढ़ के रूप में पहचान बना चुका यह शहर इस बार भी भाजपा के ही पक्ष में जाता नजर आ रहा है। ऐसा इसलिए नहीं कि भाजपा की सरकार ने इस शहर को एक माॅडल के रूप में सज्ज कर दिया हो, जिसके ऋणी शहरवासी हों। हकीकत तो यह है कि यह शहर ‘डिवाइड एंड रूल’ पाॅलिसी का शिकार बन चुका है। केन्द्र सरकार का पिछला पांच वर्ष और यूपी की योगी सरकार के दो वर्ष। भाजपा सरकारों के कार्यकाल में विशेष उपलब्धियों पर नजर दौड़ायी जाए तो इन सरकारों ने इस शहर को विकास के नाम पर भले ही कुछ न दिया हो लेकिन गंगा-जमुनी सभ्यता को जरूर तार-तार करने में सफलता हासिल की है। अब यहां पर विकास, रोजगार और महंगाई चुनावी मुद्दा नहीं बनता है बल्कि मन्दिर-मस्जिद मुद्दा अहम रखता है। खासतौर से चुनाव के दौरान ये मुद्दा और अहम हो जाता है। चुनाव के दौरान कुछ स्थानों की स्थिति यहां तक खराब हो जाती है कि एक ही मोहल्ले और एक ही गांव में दो धर्म के लोग एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते। यह स्थिति नब्बे के दशक से लगातार बनी हुई है। अब तो जब-जब चुनाव आते हैं ‘डिवाइड एंड रूल’ की पाॅलिसी अपना रंग दिखाने लगती है। वर्ष 2017 का विधानसभा चुनाव बानगी मात्र है कि किस तरह से एक वर्ग विशेष के प्रबल विरोध के बावजूद भाजपा ने अपने प्रतिद्वंदियों को चारों खाने चित किया। कयास लगाए जा रहे हैं कि ऐसा इस बार के लोकसभा चुनाव में भी होगा।
उपरोक्त आधार पर देखा जाए तो सपा-बसपा गठबन्धन प्रत्याशी पूनम सिन्हा की स्थिति भाजपा प्रत्याशी राजनाथ सिंह के मुकाबले कमजोर है लेकिन मुकाबले से बाहर नहीं कही जा सकती। इस बार सपा-बसपा गठबन्धन के प्रमुख नेता अखिलेश यादव और मायावती तो पूनम सिन्हा के पक्ष में प्रचार के लिए जान झोंक ही देंगे दूसरी ओर फिल्म अभिनेत्री और पूनम सिन्हा की बेटी सोनाक्षी सिन्हा भी अपनी मां के लिए चुनाव प्रचार में कूदने का मन बना चुकी हैं। रही बात पूनम के पति और अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा की तो उनका कार्यक्रम लगभग तय है। कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह है कि यदि पूनम सिन्हा का फिल्मी परिवार चुनाव प्रचार में कूदा तो राजनाथ को अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए किसी प्रकार की कोताही नहीं बरतनी होगी। नजर हटी और दुर्घटना घटी जैसी स्थिति है।
खास बात यह है कि भाजपा के पास इस बार चुनाव प्रचार के दौरान दावे करने जैसा कुछ भी नहीं है। राजधानी लखनऊ की अधिकतर आबादी पढ़ी-लिखी है और वह यह बात अच्छी तरह से जानती है कि यदि धार्मिक आधार पर सुरक्षा की बात न हो तो भाजपा को कोई न पूछे। चाहें लखनऊ में मेट्रो का चलाया जाना हो या फिर रिवर फ्रंट के रूप में राजधानी को एक खूबसूरत तोहफा देना हो। चाहंे महिलाओं की सुरक्षा के लिए 1090 का संचालन हो या फिर समाजवादी स्वास्थ्य सेवाओं के तहत आधुनिक एम्बुलेंस का संचालन। डायल 100 को आधुनिकता की दौड़ में शामिल करना भी सपा सरकार की देन रही है तो रिकाॅर्ड समय में राजमार्गों का निर्माण भी सपा के खाते में ही जाता है। पिछले दो वर्ष के योगी सरकार के कार्यकाल में यदि उपलब्धि की बात हो तो सरकार की झोली में ऐसा कुछ भी नहीं है जो चुनाव प्रचार के दौरान अपनी पीठ थपथपा सके। इसके बावजूद राजनाथ की स्थिति इसलिए मजबूत कही जा सकती है क्योंकि भाजपा ने ‘डिवाइड एंड रूल’ पाॅलिसी का बखूबी इस्तेमाल कर लिया है। मतदाता अब धार्मिक सुरक्षा को ज्यादा तवज्जो दे रहा है। हालांकि कुछ इलाके ऐसे भी हैं जहां भाजपा की वादा खिलाफी रंग में भंग डाल रही है लेकिन इसका प्रभाव सिर्फ राजनाथ की जीत का अंतर ही कम कर सकता है, उन्हें हराने की स्थिति में नहीं है। यह बात भाजपाई भी अच्छी तरह से जानते हैं कि यदि चूक हुई तो परिणाम भाजपा के पक्ष में नहीं रहने पायेंगे लिहाजा इस बार भाजपाई पूरी ताकत से और योजनाबद्ध तरीके से राजनाथ की जीत सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। वैसे भी राजनाथ सिंह की जीत-हार का सीधा ताल्लुक पूरी भाजपा की मान-मर्यादा से जुड़ा हुआ है। पीएम नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के बाद यदि भाजपा में कोई कद्दावर नेता है तो वह राजनाथ सिंह ही हैं। यदि किसी चूकवश उनकी हार हुई तो निश्चित तौर पर भाजपा का मान मर्दन तय है।
कांग्रेस ने लखनऊ संसदीय सीट से कल्किपीठाधीश्वर आचार्य प्रमोद कृष्णन को मैदान में उतारा है। वैसे तो आचार्य प्रमोद कृष्णन धार्मिक प्रवृत्ति के हैं और उन्हें भी कट्टर हिन्दू माना जाता है लेकिन अपना हित साधने की ललक में वे मुसलमानों के भी हितैषी बन जाते हैं। यह बात स्थानीय जनता अच्छी तरह से जानती है लिहाजा आचार्य जी को सिर्फ उतने ही वोट मिलेंगे जितनी मेहनत कांग्रेस नेता कर पायेंगे या फिर प्रियंका गांधी का कथित जादू कर पायेगा।
यूपी की वीआईपी सीट मानी जाने वाली इस सीट पर आचार्य प्रमोद कृष्णन को मैदान में उतारे जाने के पीछे कई कारण हैं। कांग्रेस आचार्य को सिर्फ लोकसभा चुनाव तक ही सीमित रखना नहीं चाहती। यह चुनाव तो आचार्य के लिए हेलो टेस्टिंग सरीखा है जबकि उनका असली उपयोग यूपी के अगले विधानसभा चुनाव के लिए किया जाना है। योगी आदित्यनाथ की तर्ज पर ही कांग्रेस आचार्य को यूपी में स्थापित करना चाहती है। कहा यह भी जा रहा है कि कांग्रेस के आचार्य यूपी में भाजपा के छद्म हिन्दुत्व की पोल खोलकर मतदाताओं का रुझान परिवर्तित करने में कामयाबी हासिल करेंगे। कांग्रेस भी यही मानती है कि भाजपा प्रत्याशी राजनाथ सिंह के समक्ष आचार्य की स्थिति काफी मजबूत होगी। खैर कांग्रेस का यह भ्रम तो चुनाव परिणाम के बाद ही टूट जायेगा लेकिन उससे पूर्व यदि आचार्य अपनी योजना में कुछ हद तक भी कामयाब हो जाते हैं तो राजनाथ जीत का अंतर काफी कम हो सकता है। ज्ञात हो ये वही आचार्य हैं जो मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस के पक्ष में प्रचार कर चुके हैं।
कुल मिलाकर देखा जाए तो लखनऊ संसदीय सीट पर इस बार का मुकाबला भले ही भाजपा और सपा-बसपा गठबन्धन प्रत्याशियों के बीच हो लेकिन कांग्रेस प्रत्याशी की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। कांग्रेस प्रत्याशी भले ही इस दौड़ में काफी पीछे नजर आ रहा हो लेकिन इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि कांग्रेस का यह प्रत्याशी दो महारथियों के बीच जंग के फासले को कम अवश्य कर देगा।
लखनऊ की एक और संसदीय सीट है मोहनलालगंज। इस सीट पर प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला अधिकतर ग्रामीण जनता पर टिका हुआ है। भाजपा की तरफ से एक बार फिर से कौशल किशोर को टिकट दिया गया है जबकि कांग्रेस ने इस इलाके से एक मजबूत प्रत्याशी आरके चैधरी को मैदान में उतारा है। ये वही आरके चैधरी हैं जो कभी बसपा प्रमुख मायावती के बेहद करीबी लोगों में गिने जाते थे। बीच में इन्होंने भाजपा से भी नजदीकियां बढ़ाने की कोशिश की। विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इन्हें टिकट देकर लड़वाना चाहा लेकिन श्री चैधरी ने भाजपा के आफर को ठुकरा दिया था, परिणामस्वरूप विधानसभा चुनाव में मोहलनालगंज की सीट ही ऐसी थी जो भाजपा की आंधी में भी छिटकी रही। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि श्री चैधरी का मोहनलालगंज में प्रभाव है। 50 से 60 हजार वोटरों की संख्या पर इनका आधिपत्य है। यदि कांग्रेस की कथित लहर और प्रियंका का जादू काम कर गया तो निश्चित तौर पर इनके दावे को भी इंकार नहीं किया जा सकता।
सपा-बसपा गठबन्धन ने सीएल वर्मा को मैदान में उतारा है। ये वही सीएल वर्मा हैं जो कभी नसीमुद्दीन सिद्दीकी के पीएस हुआ करते थे। इलाके में इनका व्यक्तिगत कितना प्रभाव है? इस बात से सभी परिचित हैं लेकिन यह इलाका कभी बसपा का गढ़ रहा है। सपा का भी वोट भारी संख्या में किसी की भी किस्मत बदल देने में सक्षम है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि यदि कांग्रेस ने आरके चैधरी को मैदान में न उतारा होता तो निश्चित तौर पर चुनाव से पहले ही भाजपा प्रत्याशी कौशल किशोर की हार तय हो जाती लेकिन ऐन वक्त पर कांग्रेस ने स्थानीय नेता श्री चैधरी को मैदान में उतारकर गठबन्धन प्रत्याशी की स्थिति कमजोर कर दी है, फिर भी टक्कर कांटे की है। ऐसा इसलिए कि भाजपा प्रत्याशी कौशल किशोर का विरोध करने वाले उनकी ही पार्टी में मौजूद हैं, अन्दर ही अन्दर उनकी स्थिति को कमजोर करने में लगे हैं। चर्चा में एक नाम आया है वीरेन्द्र तिवारी का। श्री तिवारी लैक्फेड के चेयरमैन पद पर हैं। इनकी कौशल किशोर से कभी नहीं पटी। हालांकि पार्टी से बंधे होने के कारण कौशल के पक्ष में प्रचार करना इनकी मजबूरी है लेकिन अन्दर ही अन्दर ये कौशल को हराने के लिए किसी प्रकार की कसर नहीं छोड़ रहे।
कुल मिलाकर देखा जाए तो नवाबों के शहर लखनऊ में भाजपा की स्थिति मजबूत नजर आ रही है। यदि नुकसान हुआ भी तो वह मोहनलालगंज सीट का हो सकता है और वह भी तब जब प्रत्याशी और पार्टी के चुनाव प्रचारक विरोधी दल के प्रत्याशी की क्षमता को कमतर आंकने की हिमाकत करें।

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