आम चुनाव 2024 का जनादेश मेरे लिए खासा चौंकाने वाला है। हालांकि राष्ट्रीय राजधानी से कोसों दूर उत्तराखण्ड के पहाड़ों में बैठा मैं इस चुनाव के दौरान पूरी तरह निष्क्रिय रहा। मुख्यधारा के समाचार चैनलों को देखना तो कई बरस पहले ही छोड़ चुका था, सोशल मीडिया से भी मैंने अपनी मानसिक शांति को बनाए रखने के लिए दूरी बना ली है इसलिए न तो सत्ता समक्ष पूरी निर्लजता से समर्पित चैनलों के चारण-भाटों को मैं सुन रहा था और न ही सत्ता विरोधियों के एकपक्षीय आलाप को। 2019 के आम चुनाव नतीजों ने और उसके उपरांत 2022 के उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के चुनाव नतीजों ने मुझे खासा हतप्रभ करने का काम किया था। इन नतीजों के चलते मेरी धारणा पुख्ता हो चली थी कि धर्मांधता ने आम भारतीयों की चेतना पर पूरी तरह कब्जा जमा लिया है जिस चलते आमजन के जीवन को सीधे प्रभावित करने वाले मुद्दे गौण हो चले हैं। मुझे पूरा यकीं था कि आमजन की समझ पर धार्मिक कट्टरता की सत्ता स्थापित होने चलते 2024 में भाजपा जबर्दस्त बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में वापसी करेगी ही करेगी। मेरा यह भी मानना था कि इस दफे अपने दम पर सरकार बनाने के बाद प्रधानमंत्री मोदी न केवल अपने हिंदुत्ववादी एजेंडे को लागू करने की नीयत चलते संविधान में भारी तोड़-फोड़ करेंगे, वरन् संसदीय लोकतंत्र को भी अमेरिका की तर्ज पर राष्ट्रपति शासन प्रणाली में बदलने का प्रयास करेंगे। मुझे यह भी निश्चित तौर पर लगता था कि प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्रपति शासन प्रणाली का अमेरिकी मॉडल पूरी तरह से भारत में स्थापित करने का काम नहीं करेंगे, बल्कि ज्यादातर शक्तियों को राष्ट्रपति के अधीन रखने की प्रणाली लागू करेंगे। स्मरण रहे अमेरिकी संविधान विश्व के सबसे कठोर संविधानों में से एक है और वास्तविक शक्ति चुने गए प्रतिनिधियों की सभा अमेरिकी कांग्रेस में निहित है। मुझे यह भी आशंका थी कि इस दफे संविधान में आमूलचूल परिवर्तन किया जाएगा जो अंततः भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के बजाय हिंदू राष्ट्र घोषित करने का काम करेगा। भाजपा के कई नेता इस चुनाव के दौरान ऐसा दावा भी कर रहे थे। 2024 का जनादेश लेकिन इन सब आशंकाओं पर पानी फेर रहा है।
‘अबकी बार चार सौ पार’ का नारा दे चुनावी रण में उतरी भाजपा मात्र 240 सीटों पर जीत दर्ज करा सकी और उसे 2019 की बनिस्पत 63 सीटें कम मिलीं। 272 के जादुई आंकड़ों तक पहुंचने और केंद्र में तीसरी बार सरकार बनाने के लिए उसे अपने सहयोगी दलों पर निर्भर होना पड़ा है। एनडीए गठबंधन के दो घटक दल तेलगु देशम और जनता दल (यूनाइटेड) किंग मेकर की भूमिका में हैं। प्रधानमंत्री का, भाजपा का और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का संकट इन्हीं दो से शुरू होता है। यह संकट इन तीनों का अलग- अलग कारणों चलते है। इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संकट पर अपनी समझ आपके समक्ष रख रहा हूं। भाजपा और संघ के संकट पर बात बाद में।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की, मेरी समझ से, सामूहिक नेतृत्व पर आस्था नहीं है। उनकी प्रवृत्ति ‘एकला चलो’ के सिद्धांत पर काम करने की है। इस प्रवृत्ति ने उन्हें सफलता के उस मुकाम तक पहुंचाया है जहां पहुंचना भारतीय जनता पार्टी सरीखे सामूहिक नेतृत्व वाले संगठन भीतर लगभग असम्भव था। मोदी ने लेकिन ऐसा कर दिखाया इसलिए यह स्वभाविक है कि वह इसे ही अपनी सफलता का मुख्य कारण मानते होंगे। गुजरात का उदाहरण मेरी इस बात को, धारणा को पुष्ट करने के लिए काफी है। भाजपा पहली बार 1990 में गुजरात में सत्ताशीन हुई थी। 182 सीटों वाली विधानसभा में तब उसे मात्र 67 सीटें मिली थी और 70 सीटें जीतने वाले जनता दल संग गठबंधन कर भाजपा सत्ता में आई थी। इस सरकार का नेतृत्व जनता दल नेता चिमनभाई पटेल के पास था और भाजपा नेता केशुभाई पटेल सरकार में उपमुख्यमंत्री बनाए गए थे। 1995 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन शानदार रहा और 121 सीटें अपने दम पर जीत भाजपा ने केशुभाई पटेल के नेतृत्व में अपनी सरकार का गठन तब किया था। नरेंद्र मोदी तब भाजपा के उन युवा नेताओं में थे जिनकी राज्य की राजनीति से कहीं अधिक पकड़ भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व संग थी। भाजपा विधान दल के अधिकांश सदस्य शंकर सिंह वाघेला को मुख्यमंत्री बनाए जाने के पक्ष में थे लेकिन नरेंद्र मोदी अपने केंद्रीय नेतृत्व को यह समझा पाने में तब सफल रहे थे कि मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल को बनाया जाना चाहिए। नतीजा सात महीनों के भीतर केशुभाई के इस्तीफे बतौर सामने आया क्योंकि विधान दल में मजबूत पकड़ रखने वाले वाघेला ने केशुभाई की सरकार को ठीक से चलने नहीं दिया था। भाजपा नेतृत्व ने अंततः केशुभाई को तो हटा दिया लेकिन वाघेला को मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया। सुरेश मेहता नाम के एक जनाधारविहीन नेता तब मुख्यमंत्री बने थे। वाघेला ने कुछ दिन पश्चात ही पार्टी छोड़ दी थी जिसका नतीजा सुरेश मेहता सरकार का गिरना रहा। तब वाघेला ने कांग्रेस संग मिलकर गठबंधन सरकार बनाई थी जिसमें वे स्वयं मुख्यमंत्री बने थे। यह सरकार अपने गठन के दिन से ही अस्थिर रही और अंततः राज्य में 1998 में मध्यावधि चुनाव कराने पड़े थे। इस चुनाव में केशुभाई पटेल के नेतृत्व में भाजपा 117 सीटें जीत एक बार फिर से सरकार बनाने में सफल रही। केशुभाई फिर से मुख्यमंत्री बने जरूर लेकिन उनके सम्बंध कभी करीबी मित्र रहे नरेंद्र मोदी संग बिगड़ते चले गए। वाघेला के कहने पर पहले ही भाजपा आलाकमान ने मोदी को गुजरात की राजनीति से हटा पार्टी का संगठनात्मक महासचिव बना दिल्ली बुला लिया था। 2001 में गणतंत्र दिवस के दिन गुजरात के भुज इलाके में भयंकर भूकंप ने तबाही मचाने का काम किया जिसमें 12,000 से अधिक की मौत और खरबों रुपयों की सम्पत्ति का नुकसान राज्य को उठाना पड़ा था। केशुभाई सरकार सही तरीके से राहत कार्य नहीं कर पाई जिसके चलते भाजपा नेतृत्व ने उन्हेें हटा राज्य की कमान मोदी के हाथों 7 अक्टूबर 2001 के दिन सौंप दी। इसी दिन से मोदी का नया अवतार सामने उभरता है जो उनकी एकछत्र राज करने की मनोवृत्ति को सामने लाता है। गुजरात भाजपा के सभी दिग्गज नेताओं जिनमें मोदी के राजनीतिक गुरु का दर्जा पाए केशुभाई पटेल, 1998 में पार्टी की गुजरात जीत के चाणक्य कहलाए गए संजय जोशी, गोवर्धन जाफडिया, हरेन पांड्या आदि शनै-शनै हाशिए पर डाल दिए गए। यहां तक कि कभी मोदी के जिगरी कहलाए जाने वाले प्रवीण तोगड़िया को भी किनारे कर दिया गया था। विश्व हिंदू परिषद् के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष तोगड़िया एक समय में नरेंद्र मोदी के परम मित्र और समर्थक हुआ करते थे। केशुभाई पटेल को हटा मोदी को गुजरात की कमान सौंपे जाने के निर्णय पीछे तोगड़िया का महत्वपूर्ण योगदान बताया जाता है लेकिन जैसे ही मोदी मुख्यमंत्री बने उन्होंने तोगड़िया को किनारे लगा दिया। ऐसा कहा जाता है कि दोनों के सम्बंधों में दरार का कारण तोगड़िया द्वारा मोदी के कामों में हस्तक्षेप करना और राय देना था। मोदी किसी से राय लेकर, सलाह-मशविरा कर सरकार चलाने के आदि नहीं हैं। इसे उनका गुजरात मॉडल स्पष्ट करता था। 2014 में प्रधानमंत्री बनने पश्चात इसी मॉडल को उन्होंने केंद्र में लागू करने का काम सफलतापूर्वक किया। सभी बड़े राष्ट्रीय नेताओं को ‘मार्गदर्शन मंडल’ में डाल नरेंद्र मोदी ने भाजपा को अपना जेबी संगठन बनाने में देर नहीं लगाई। 2019 में मिले प्रचंड जनादेश बाद तो सामूहिक निर्णय लेने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया मोदी मंत्रिमंडल से पूरी तरह नदारत होती हम सभी ने देखी है। 2016 नवम्बर में जब नोटबंदी का एलान प्रधानमंत्री ने किया था तब भी बड़ी चर्चा रही थी कि यह उनका अकेले का निर्णय था और उनके द्वारा अपने मंत्रिमंडलीय सदस्यों को केवल सूचित भर किया गया था। 2024 के जनादेश बाद अब ऐसा कर पाना प्रधानमंत्री के लिए सम्भव नहीं होगा। उन्हें अब गठबंधन के दायरे में रह सभी सहयोगियों संग सलाह-मशविरा कर फैसले लेने होंगे। यही असल संकट है जिसमें मेरी समझानुसार मोदी शायद ही कामयाब हो पाएं। गठबंधन में शामिल नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू भला कैसे भूल पाएंगे कि उन्हें बीते दस वर्षों के दौरान अनेकानेक तरीकों से भाजपा शीर्ष नेता द्वारा अपमानित किया गया था? अब उनका समय है और इस मौके को दोनों ही हाथ से जाने नहीं देंगे। अभी से ही भारी दबाव की राजनीति शुरू हो चली है। चंद्रबाबू नायडू और नीतीश के तेवर बता रहे हैं कि इस बार सरकार में उनकी हिस्सेदारी न केवल दमदार होगी, बल्कि बड़े मुद्दों पर उनकी सहमति भी प्रधानमंत्री को लेनी होगी। क्या मोदी ऐसा कर पाएंगे? और यदि शुरुआती दिनों में ऐसा करते भी हैं तो क्या वह एनडीए के घटक दलों का दबाव ज्यादा समय तक झेल पाएंगे? मैं समझता हूं ऐसा करने के बजाय मोदी गठबंधन में शामिल दलों तथा विपक्षी खेमे में सेंधमारी कर 272 के जादुई आंकड़े को पाने का पूरा प्रयास करेंगे, होगा क्या यह तो भविष्य के गर्भ में है, इतना तय समझिए कि यह गठबंधन सरकार बहुत स्थिर नहीं रहने वाली है। घटक दलों के निशाने पर सबसे अधिक अमित शाह का रहना तय है। शाह मोदी के न केवल विश्वस्त हैं, बल्कि उनके ‘संकट मोचक’ भी हैं। उनका अक्खड़ अंदाज घटक दलों के नेता अब सहन करने से रहे। घटक दलों की तो छोड़िए अब भाजपा के वे नेता भी आंखें तरेरना शुरू कर देंगे जिन्हें बीते दस वर्षों के दौरान शाह ने साइड लाइन कर रखा था। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हों, मध्य प्रदेश के शिवराज सिंह चौहान हों या फिर राजस्थान की वसुंधरा राजे सिंधिया, सभी पुराने भाजपाई अब मिलकर शाह को कमजोर करने का प्रयास अवश्य करेंगे। शाह का कमजोर होना सीधे प्रधानमंत्री का कमजोर होना है। जाहिर है मोदी की कार्यशैली संग यह मेल नहीं खाएगा और अंततोगत्वा इसका प्रभाव उनकी सरकार की स्थिरता पर पड़ेगा। भाजपा और संघ के संकट में बात अगली बार…

