भाजपा और कांग्रेस प्रत्याशी एक-दूसरे को पछाड़ने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए हैं। राजघराने की माला राजलक्ष्मी शाह सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों तक आम लोगों के बीच पहुंच रही हैं। इसी तरह सियासी घराने के प्रीतम सिंह भी चकराता से बाहर निकले हैं। पर्वतीय क्षेत्र में चुनौतियों का अहसास करते हुए अब दोनों को देहरादून के मैदान से आशाएं हैं
टिहरी लोकसभा सीट पर दो बड़े राजनीतिक घरानों के बीच लड़ा जा रहा चुनावी संग्राम बड़ा दिलचस्प लग रहा है। जहां टिहरी राजपरिवार की साख दांव पर लगी है, तो वहीं प्रीतम सिंह के सामने अपने परिवार की राजनीतिक जमीन बचाने की बड़ी चुनौती है। भाजपा-कांग्रेस दोनों ही पार्टियों के प्रत्याशी अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं।
भाजपा की वर्तमान संासद ओैर उम्मीदवार महारानी माला राजलक्ष्मी शाह के पंाच वर्ष के कार्यकाल में कोई खास प्रभाव देखने को नहीं मिला है। भाजपा कार्यकर्ताओं और क्षेत्र से दूरी बनाए रखने के आरोप महारानी माला राजलक्ष्मी पर लगते रहे हैं। इसका बड़ा असर भाजपा के टिकट बंटवारे के दौरान भी देखने को मिला। पार्टी के कई मंडल अध्यक्ष की राय थी कि महारानी माला राजलक्ष्मी के प्रति जनता में भारी रोष है। इससे भाजपा टिहरी सीट पर प्रत्याशी को बदलने के संकेत तक दे चुकी थी। लेकिन पांचांे सीटों पर एक मात्र महिला प्रत्याशी को उतारना पार्टी ने जरूरी समझा। जिसके चलते महारानी को ही टिकट दिया गया।
टिहरी राजपरिवार के प्रति मतदाताओं का विश्वास होने के चलते वर्तमान में राजपरिवार चुनाव में जीत के प्रति आश्वस्त तो दिख रहा है, लेकिन मौजूदा समय में महारानी माला राजलक्ष्मी को भी मोदी मैजिक का ही आसरा दिखाई दे रहा है। हालांकि पूर्व संासद और टिहरी महाराजा मानवेंद्र शाह के बाद टिहरी राजपरिवार के जनाधार में कमी देखने को मिली है। 2012 के लोकसभा उपचुनाव में महारानी माला राजलक्ष्मी महज 25 हजार मतों से ही जीत पाई, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में जबरदस्त मोदी लहर के चलते तकरीबन दो लाख मतों से जीत हासिल करके उन्होंने सबको चैंका दिया था। वर्तमान में टिहरी, उत्तरकाशी और जौनसार क्षेत्र में महारानी माला राजलक्ष्मी के प्रति मतदाताओं में रोष बना हुआ है।
टिहरी राजपरिवार के साथ एक बड़ा चुनावी मिथक भी देखा गया है। माना जाता है कि जब-जब बदरीनाथ के कपाट खुले रहे हैं तो तब-तब हुए चुनावों में टिहरी राजपारिवार विजयी रहा है। यानी कपाट खुलने पर जीत सुनिश्चित मानी जाती है और कपाट बंद होने पर अनिश्चिय की स्थिति रहती है। पूर्व में टिहरी के महाराजा और महारानी माला राजलक्ष्मी के पति मनुजेंद्र शाह के लोकसभा उपचुनाव में भी बदरीनाथ के कपाट बंद थे जिसके चलते उनकी हार हुई। वर्तमान में भी बदरीनाथ के कपाट बंद होने के चलते माना जा रहा है कि महारानी माला राजलक्ष्मी को चुनाव में इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।

इसके अलावा जाने-माने कथावाचक और गौ-गंगा आदोलन के प्रणेता संत गोपाल मणि भी टिहरी सीट से निर्दलीय चुनाव में खड़े हैं। ऐसे में महारानी के लिए दो तरफा चुनौती बनी हुई है। गोपाल मणि के समर्थक और और भक्तों की एक बड़ी तादात टिहरी, उत्तरकाशी और देहरादून में है जिसके चलते महारानी को चुनाव में कड़ी टक्कर मिल सकती है। माना जा रहा है कि भाजपा के हिंदू मतों की गोपाल मणि के चलते बंटने की संभावना है। हालांकि कुछ राजनीतिक जानकारों का यह भी मानना है कि गोपालमणि कांग्रेस को ज्यादा नुकसान पहुंचा रहे हैं। भाजपा के जो नाराज कार्यकर्ता प्रीतम के खेमे में होते, वे गोपालमणि के साथ हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस के नाराज कार्यकर्ता महारानी माला राजलक्ष्मी के पाले में सक्रिय हैं।
कांग्रेस प्रत्याशी प्रीतम सिंह के लिए यह चुनाव एक बड़ी चुनौती के तौर पर देखा जा रहा है। पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ने वाले प्रीतम सिंह को कांग्रेस के भीतर अपने विरोधियों की भारी नाराजगी चुनाव मेें झेलनी पड़ रही है। हालांकि प्रीतम सिंह अपनी व्यक्तिगत राणनीति के चलते अपना जनाधार बचाने के लिए हर तरह की रणनीति पर काम कर रहे हैं जिसमें 2017 के विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस से बागी हुए नेताओं की घर वापसी भी है जिसमें माना जा रहा है कि प्रीतम सिंह कुछ हद तक सफल भी होते दिख रहे हैं।
कांग्रेस देहरादून जिले की विधानसभा सीटांे पर ही सबसे ज्यादा फोकस कर रही है। माना जाता है कि सहसपुर विकास नगर और चकराता तथा पुरोला सीट पर कांग्रेस अपनी जीत के प्रति निश्चित है। सहसपुर में बागी कांग्रेसी नेता आर्येंद्र शर्मा को साधने के लिए प्रीतम सिंह ने पूरा जोर लगाया हुआ है। सूत्रांे की मानंे तो आर्येंद्र शर्मा के साथ प्रीतम सिंह की घनिष्ठता का फायदा मिल सकता है। हालांकि आर्येंद्र शर्मा अभी कांग्रेस में वापस नहीं हुए हंै लेकिन माना जा रहा है कि वे प्रीतम सिंह के पक्ष में पूरी तरह से खड़े हंै और इसका बड़ा फायदा प्रीतम सिंह को मिल सकता है।
वैसे राजनीतिक समीकरणों को देखें तो टिहरी संसदीय सीट की 14 विधानसभा सीटों में कांग्रेस महज दो सीटों पर ही जीत हासिल कर पाई है। चकराता और पुरोला सीट पर कांग्रेस के कब्जे में है और धनौल्टी सीट पर निर्दलीय प्रीतम सिंह पंवार विधायक हंै, जबकि 11 सीटें भाजपा के पास हंै। राजनीतिक तौर पर देखा जाए तो कांग्रेस भाजपा से पीछे ही है। देहरादून जिले की विकासनगर, सहसपुर, मसूरी, रायपुर और राजपुर रोड़ तथा देहरादून कैंट विधानसभा सीटों पर भाजपा का कब्जा है। देहरादून नगर भाजपा ओैर कांग्रेस के लिए वोटों की बड़ी तादात के चलते आसान और सुगम माना जाता है। इसके चलते दोनों की नेताओं का पूरा फोकस देहरादून जिला बना हुआ है। जहां महारानी माला राजलक्ष्मी को पर्वतीय क्षेत्रों मंे मतदाताओं की नाराजगी के चलते नुकसान की भरपाई देहरादून से पूरी होने की आशा है तो वहीं प्रीतम सिंह के लिए भी देहरादून से बड़ी उम्मीद है। हालांकि नगर निगम देहरादून के चुनाव मंे कांग्रेस को करारी हार मिली है। जिसके चलते माना जा रहा है कि प्रीतम सिंह के लिए देहरादून के मतदाता भी बड़ी चुनौती बने हुए हंै। जिसके चलते प्रीतम सिंह चकरात,ा पुरोला, विकास नगर, सहसपुुर, धनौल्टी और मसूरी क्षेत्र में अपना जनसंपर्क बनाने में तेजी से जुटे हुए हैं।
दिलचस्प बात यह हैे कि दोनांे राजनीतिक घरानों को मदाताओं की चैखट पर अपने राजनीतिक भविष्य को बचाने के लिए हर तरह की जुगत भिड़ानी पड़ रही है। महारानी माला राजलक्ष्मी जो शायद ही कभी जनता के बीच चुनाव के बाद गई हों आज कड़ी धूप में जनसंपर्क में जुटी हैं। वे टिहरी संसदीय क्षेत्र के उन दुर्गम स्थलों का दौरा कर रही है जहां वे शायद ही कभी गई हों। प्रीतम सिंह जिनकी अब तक की राजनीति जौनसार और चकराता जनजातीय क्षेत्र में सही सिमट रही है, वे भी पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ने के चलते दुर्गम से दुर्गम क्षेत्रों में मतदाताओं को लुभाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हंै।
प्रीतम सिंह कांग्रेस सरकार के दौरान मंत्री पद पर रहे हंै और महारानी माला राजलक्ष्मी टिहरी राजपरिवार के चलते खानदानी राजनीति के अनुभव से परिपूर्ण है। साथ ही दो बार सांसद होने का लाभ उनको मिला है। इससे दोनों ही नेताओं को क्षेत्र की जनता के लिए विकास के कामों पर भी जबाब देना पड़ रहा है। जहां प्रीतम सिंह कांग्रेस सरकार में बड़े मंत्री रहने के बावजूद क्षेत्र में काम न करवा पाने के आरापों से जूझ रहे हैं तो वहीं महारानी माला राजलक्ष्मी सांसद बनने के बावजूद विकास के कार्यों से उदासीनता का आरोप मतदाताओं से सुनना पड़ रहा है।

