राजीव गांधी ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को सत्ता से बेदखल करने की जिद् चलते चंद्रशेखर सरकार को केंद्र में स्थापित तो कर डाला था लेकिन इस सरकार को उसका कार्यकाल पूरा नहीं करने देने की तैयारियां भी साथ-साथ शुरू कर दी थी। वीपी सिंह द्वारा त्याग पत्र दिए जाने के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमण ने एक राष्ट्रीय सरकार बनाने के प्रयास किए थे। राष्ट्रीय सरकार से तात्पर्य सभी राजनीतिक दलों की सहमति और भागीदारी की सरकार होना था। आर. वेंकटरमण चाहते थे कि लोकसभा के चुनाव टाले जा सकें और गम्भीर आर्थिक संकट का सामना कर रहे देश में राजनीतिक स्थिरता स्थापित हो सके। उनका यह प्रयास लेकिन सफल नहीं हो पाया। कांग्रेस ने चंद्रशेखर के नेतृत्व वाले जनता दल (समाजवादी) को बाहरी समर्थन देने की घोषणा की थी। राष्ट्रपति को आशंका थी कि 1979 में जिस प्रकार मोरारजी देसाई सरकार को अपदस्थ करने के लिए कांग्रेस ने चौधरी चरण सिंह को समर्थन दिया था और फिर मात्र तीन सप्ताह के भीतर अपना समर्थन वापस ले लिया था, इस बार भी कुछ ऐसा ही होने जा रहा है। उन्होंने राजीव गांधी से जानना चाहा कि कांग्रेस कितने समय तक चंद्रशेखर सरकार को समर्थन देगी- ‘1979 की घटनाएं मेरे मन मस्तिष्क में कौंध गई। इंदिरा गांधी द्वारा चरण सिंह को समर्थन देना और फिर मात्र तीन सप्ताह भीतर उसे वापस ले लेना हमारे संसदीय इतिहास की बदसूरत मिसालों में एक है। हालांकि उन दिनों मैं कांग्रेस पार्टी का सदस्य था। मैंने इस बदसूरत मिसाल चलते जानने का प्रयास किया कि इस बार यह समर्थन कैसा होगा और कितने समय के लिए होगा। राजीव गांधी ने मुझसे कहा कि न तो यह समर्थन अस्थाई है और न ही इसके साथ कोई शर्त लगाई गई है। कांग्रेस ने चंद्रशेखर को समर्थन राष्ट्रीय संकट से उबरने के लिए दिया है…मैंने राजीव गांधी से पूछा कि क्या यह समर्थन न्यूनतम एक वर्ष तक बना रहेगा? उनका जवाब था ‘‘एक वर्ष क्यों? यह इस संसद के पूरे समय तक जारी रह सकता है।’’
राजीव लेकिन राष्ट्रपति को दिए अपने वचन को शीघ्र ही भूल गए। चंद्रशेखर सरकार पर कांग्रेस का दबाव नाना प्रकार के मुद्दों को लेकर तेजी से बढ़ने लगा था। प्रधानमंत्री पर कांग्रेस और अन्नाद्रमुक ने तमिलनाडु की सरकार को बर्खास्त किए जाने के लिए भारी दबाव बनाना शुरू कर दिया था। तब तमिलनाडु में एम. करुणानीधि के नेतृत्व में द्रमुक मुनेत्र कषगम (डीएमके) की सरकार सत्ता पर काबिज थी। कांग्रेस और अन्नाद्रमुक श्रीलंकाई आतंकी संगठन ‘लिट्टे’ की राज्य में बढ़ती गतिविधियों और करुणानीधि सरकार द्वारा ‘लिट्टे’ को दिए जा रहे समर्थन को आधार बना राज्य सरकार को बर्खास्त करने की मांग कर रहे थे। चंद्रशेखर अधिक समय तक इस दबाव को नहीं झेल पाए। उन्होंने जनवरी 1991 में राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा डाला जिसका भारी विरोध विपक्षी दलों द्वारा किया गया था। चंद्रशेखर द्वारा तमिलनाडु सरकार भंग कर अपनी सरकार को स्थिर करने का प्रयास लेकिन ज्यादा समय तक कारगर नहीं रहा। फरवरी, 1991 को खाड़ी युद्ध के दौरान अमेरिकी विमानों को भारत में ईंधन भरने की इजाजत देने का निर्णय उनके और कांग्रेस के मध्य तनाव गहराने का बड़ा कारण बन उभरा। आर. वेंकटारमण के अनुसार कांग्रेस ने इस दौरान खुद की सरकार बनाने की सम्भावनाओं को तलाशना शुरू कर दिया था। राजीव गांधी ने राष्ट्रपति संग मुलाकातों के दौरान चंद्रशेखर सरकार के प्रति अपनी नाराजगी खुलकर जाहिर करनी शुरू कर दी थी। वेंकटरमण चाहते थे कि कांग्रेस चंद्रशेखर सरकार को वार्षिक बजट संसद में पारित कराने तक अस्थिर न करे लेकिन कांग्रेस ने तब तक तय कर लिया था कि वह चंद्रशेखर को बजट पेश करने का मौका नहीं देगी। ऐसा ही हुआ भी और हरियाणा पुलिस के दो सिपाहियों पर राजीव गांधी की जासूसी करने का आरोप लगा कांग्रेस ने संसद सत्र को चलने नहीं दिया। नतीजा रहा प्रधानमंत्री का इस्तीफा और अंततः कोई अन्य विकल्प न होने चलते राष्ट्रपति द्वारा नौंवी लोकसभा को भंग करते हुए नए चुनाव कराए जाने का निर्णय लेना।
केंद्रीय चुनाव आयोग ने तीन चरणों में लोकसभा एवं सात राज्य विधानसभा चुनाव कराए जाने का फैसला लिया था। दसवीं लोकसभा के साथ-साथ उत्तर प्रदेश, केरल, पश्चिम बंगाल, असम, पुद्दुचेरी, तमिलनाडु और हरियाणा विधानसभा के लिए चुनाव कराए गए थे। इन चुनावों के दौरान केंद्रीय चुनाव आयोग की कमान टी.एन. शेषन के हाथों में थी। शेषन अपनी कठोर कार्यशैली चलते राजनीतिक दलों के लिए बड़ा सिरदर्द बन चुके थे। उन्होंने राजनीतिक दलों द्वारा धन और बाहुबल के जरिए चुनाव नतीजों को प्रभावित करने के सभी हथकंडों पर अंकुश लगाने और काफी हद तक निष्पक्ष चुनाव कराए जाने का प्रयास सफलतापूर्वक किया था। उनको कठोर प्रशासक होने चलते ‘अलशेशियन शेषन’ कह पुकारा जाने लगा था। 1990 में चंद्रशेखर सरकार ने शेषन को मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किया था। शेषन ने अपने छह बरस के कार्यकाल दौरान ‘आदर्श चुनाव आचार संहिता’ को लागू करने का भगीरथ प्रयास किया और यह प्रमाणित कर दिखाया था कि यदि दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो संवैधानिक संस्थाएं लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने की ताकत रखती हैं- ‘भारतीय चुनाव व्यवस्था की खामियों को दूर करने के लिए तथा चुनाव आयोग को मजबूती देने के लिए आयोग के नेतृत्व का मजबूत होना बेहद जरूरी है। टी.एन. शेषन का नेतृत्व ऐसा ही था। 1990 के शुरुआती दौर से इस दशक के मध्यकाल तक टी.एन. शेषन ने मुख्य चुनाव आयुक्त की भूमिका को एक लोकतांत्रिक यौद्धा के मिशनरी उत्साह से भर दिया। उन्हें डर था कि आम भारतीय का लोकतांत्रिक प्रक्रिया और विशेष रूप से चुनाव आयोग पर भरोसा समाप्त होने लगा है। 1960 के दशक की शुरुआत से ही आयोग राजनीतिक दलों, उम्मीदवारों और मौजूदा सरकारों को ‘आदर्श चुनाव आचार संहिता’ का पालन करने का प्रयास करता आ रहा था लेकिन उसे आशंकि सफलता ही मिल पाई थी। अपने व्यक्तित्व के बल पर शेषन ने इस आचार संहिता को कठोरता से लागू करने का कदम उठाया। उन्होंने आयोग की नैतिक आवाज और समाचार मीडिया के जरिए उन राजनेताओं और राजनीतिक दलों को सार्वजनिक रुप से शर्मिंदा करने का काम किया जो चुनाव आचार संहिता का पालन नहीं करते थे।’
जम्मू एवं कश्मीर तथा पंजाब में कानून व्यवस्था के बेहद खराब होने चलते चुनाव नहीं कराए गए थे। 20 मई, 1991 को आम चुनाव का पहला चरण पूरा हुआ था। अगले चरण के चुनावों से ठीक पहले पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की एक चुनाव प्रचार के दौरान तमिलनाडु के श्रीपेरम्बटूर में लिट्टे मानव बम ने आत्मघाती हमला कर हत्या कर दी। इस हत्याकांड से पूरा देश और विश्व स्तब्ध रह गया। चुनाव आयोग को 23 मई को होने वाले दूसरे चरण के चुनाव को स्थगित करना पड़ा था। चुनाव आयोग ने पूर्व प्रधानमंत्री की नृशंस हत्या के बाद दूसरे और तीसरे चरण के चुनाव 12 और 15 जून को कराने का फैसला लिया। इस बीच तत्कालीन राष्ट्रपति आर.आर. वेंकटरमण ने एक बार फिर से राष्ट्रीय सरकार के गठन करने का प्रयास शुरू किया था लेकिन राजनीतिक दलों ने उनके इस प्रयास को अपना समर्थन नहीं दिया। वेंकटरमण के अनुसार- ‘…मुझे राजनीतिक दलों की राष्ट्रीय सरकार बाबत राय को लेकर रिपोर्ट मिलने लगी थी। हरेक को लग रहा था कि इन चुनावों में उसकी भारी जीत होगी और संसद में उसे पूर्ण बहुत मिल जाएगा। भारतीय जनता पार्टी को भरोसा था कि रामजन्म भूमि आंदोलन से पैदा हुए जन उबाल चलते तो वह संसद में पूर्ण बहुमत पा जाएगी, अथवा एक बड़े दल के रूप में उभरेगी। जनता दल को लग रहा था कि मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने का लाभ उसे मिलेगा तो कांग्रेस सहानभूति के सहारे जीत को लेकर आश्वस्त थी। उसे विश्वास था कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या बाद पैदा सहानूभूति समान ही माहौल है जिसका लाभ और अन्य दलों के कमजोर प्रदर्शन चलते उसकी सत्ता में वापसी होनी तय है। इस तरह से कोई भी स्थिति की वास्तविकता को समझने या उसका निष्पक्ष मूल्यांकन के लिए तैयार नहीं था।’
कांग्रेस को निश्चित तौर पर राजीव गांधी की मृत्यु से पैदा हुई सहानुभूति लहर का लाभ मिला और वह दसवीं लोकसभा में 232 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी बन उभरी थी। भाजपा का प्रदर्शन भी 1989 के मुकाबले अच्छा रहा। उसे कुल 120 सीटों पर विजय मिली। जनता दल का प्रदर्शन बेहद खराब रहा। उसे मात्र 59 सीटों पर जीत हासिल हुईं चंद्रशेखर के नेतृत्व वाली जनता पार्टी का प्रदर्शन सबसे ज्यादा निराशाजनक रहा था। उसे केवल पांच सीटों पर जीत मिली। आम चुनावों के साथ-साथ सात राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे भाजपा के लिए भारी जीत लेकर आए। 425 सीटों में से भाजपा ने 221 में जीत दर्ज करा राज्य विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा पार कर पहली बार उत्तर प्रदेश की सत्ता पर अपना कब्जा स्थापित करने का काम कर दिखाया। हरियाणा में कांग्रेस, केरल में भी कांग्रेस, तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक-कांग्रेस गठबंधन, पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, असम में कांग्रेस और पुद्दुचेरी में भी कांग्रेस को जीत मिली थी।
राजीव गांधी की हत्या बाद कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने 22 मई, 1991 को एक प्रस्ताव पारित कर सोनिया गांधी से कांग्रेस का नेतृत्व सम्भालने का आग्रह किया था। सोनिया लेकिन किसी भी सूरत में राजनीति का हिस्सा बनने को तैयार नहीं थीं। उन्होंने पार्टी के नेताओं को स्पष्ट कर दिया कि वे कांग्रेस अध्यक्ष का पद सम्भालने के लिए तैयार नहीं हैं। सोनिया के जीवनीकार जेवियर मोरो के अनुसार उन्होंने सलाह मांगे जाने पर इतना भर कहा था कि पार्टी पी.वी. नरसिम्हा राव को अध्यक्ष बनाने पर विचार कर सकती है।’ सोनिया गांधी के इनकार बाद वयोवृद्ध नेता पी.वी. नरसिम्हा राव को पार्टी अध्यक्ष बनाया गया था। नरसिम्हा राव राजनीति से लगभग संन्यास ले चुके थे और दिल्ली से बोरिया-बिस्तर बांध अपने गृह नगर हैदराबाद जाने की तैयारी कर चुके थे। राजीव गांधी की हत्या बाद लेकिन बदलते राजनीतिक परिदृश्य ने नरसिम्हा राव की किस्मत बदलने का काम किया और चुनाव नतीजों बाद उन्हें कांग्रेस संसदीय दल का नेता भी चुन लिया गया। इस तरह से सेवानिवृत्ति की कगार पर जा पहुंचे राव 21 जून, 1991 के दिन भारत के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आसीन हो गए।
नरसिम्हा राव का जन्म एक जमींदार परिवार में 28 जून 1921 को हैदराबाद रियासत के करीमगंज जिले के गांव वंगारा में हुआ था। खगोल विज्ञान में स्नातक की डिग्री लेने पश्चात राव ने नागपुर से कानून की पढ़ाई करने का निर्णय लिया। वे खगोल शास्त्री बनना चाहते थे लेकिन फिर उनका विचार बदल गया और उन्होंने वकालत को अपना पेशा बनाने का फैसला लिया। बकौल राव- ‘I never wanted to be a politician. I wanted to go to the UK to settle as an academic. In Oxford or Cambridge’6 (6. Vinay Sitapati, Half Lion, How P.V. Narasimha Rao Transformed India P.19) (मैं कभी भी राजनीतिज्ञ नहीं बनना चाहता था। मेरी इच्छा ब्रिटेन जाकर ऑक्सफोर्ड अथवा कैम्ब्रिज में अध्यापन करने की थी।) कानून की पढ़ाई पूरी होने के बाद राव ने बतौर वकील हैदराबाद में काम करना शुरू किया था। 1947 में आजादी मिलने के पश्चात जब हैदराबाद के तत्कालीन निजाम ने भारत में शामिल होने से इनकार कर दिया, तब नरसिम्हा राव ने कांग्रेस कार्यकर्ता बतौर निजाम के खिलाफ चले संघर्ष में हिस्सा लिया जिसका नतीजा रहा हैदराबाद के भारत संग विलय बाद राव को करीमगंज जिला कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया जाना और 1952 में कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ना। इस तरह से खगोल शास्त्री बनने की इच्छा रखने वाले और वकालत को अपनी आजीविका का साधन बनाने वाले पी.वी. नरसिम्हा राव की राजनीतिक यात्रा शुरू हुई। राव अपना पहला चुनाव हार गए लेकिन अब राजनीति का उनको चस्का लग चुका था। 1956 में हैदराबाद को विभाजित कर महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश का गठन हुआ था। 1957 में आंध्र प्रदेश की विधानसभा के लिए हुए चुनाव में नरसिम्हा राव बतौर कांग्रेस प्रत्याशी अपना पहला चुनाव जीतने में सफल रहे। 1962 में उन्हें राज्य मंत्रिमंडल में कानून एवं सूचना मंत्री बनाया गया। 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ब्रह्ममानंद रेड्डी को हटा पी.वी. नरसिम्हा राव को राज्य का मुख्यमंत्री बना डाला। राव ने इसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1977 में आपातकाल के बाद हुए आम चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें हनमकोंडा संसदीय सीट से अपना प्रत्याशी बनाया था। राव अपना दूसरा लोकसभा चुनाव जीतने में सफल रहे और राष्ट्रीय राजनीति में उनका पर्दापण हो गया। 1980 में कांग्रेस की सत्ता में वापसी बाद इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल में विदेश मंत्री बनने का मौका मिला। जुलाई 1984 में उन्हें देश का गृह मंत्री बनाया गया। दिसम्बर 1984 में राजीव गांधी सरकार में वे रक्षा मंत्री बने। 1988 में उन्हें एक बार फिर से विदेश मंत्रालय का जिम्मा सौंपा गया था।

