गांधी से गांधी तक
शेष भाग...
ऑपरेशन ब्लू स्टार
कांग्रेस अपनी रणनीति में कामयाब ही हो रही थी कि भिंडरवाला ने रुख बदल लिया और पंजाब से जुड़ी कुछ मांगों को लेकर अकाली दल के साथ केंद्र सरकार के विरोध पर उतर आया।
यहीं से भिंडरवाला और उसके सहयोगियों को आतंकवादी कहा जाने लगा। हालांकि इससे पहले भी निरंकारियों के विरोध के दौरान भिंडरवाला अपने साथ बंदूक और बंदूकधारियों की पूरी फौज रखता था। पंजाब की कुछ मांगों को लेकर खड़े होने पर भिंडरवाला वहां हीरो बनता जा रहा था। जोकि कांग्रेसियों के
राजनीतिक समीकरण में फिट नहीं बैठ रहा था। इसलिए अब भिंडरवाला के समर्थकों की गिरफ्तारियां शुरू हो गईं। यह देख कर जरनैल ने खुद को अकाली कैम्पेन से जोड़ लिया और १५ दिसंबर १९८३ को अकाल तख्त में शरण ली तथा स्वर्ण मंदिर में रहने लगा। स्वर्ण मंदिर मशीन गन और राइफलों से भर गया। देश- विदेश के मीडिया ने इस पर बहुत कुछ लिखा। इसके बाद ३ जून १९८४ को प्रधानमंत्री के आदेश के बाद ऑपरेशन ब्लूस्टार शुरू हुआ। भारतीय सेना स्वर्ण मंदिर में द्घुस गई और तीन दिन चले संघर्ष के बाद जरनैल सिंह भिंडरवाला मारा गया।
स्वर्ण मंदिर में सेना के प्रवेश ने इस संप्रदाय के लोगों की भावनाओं को बहुत ठेस पहुंचाई। साथ ही जरनैल सिंह के समर्थक भी ऑपरेशन ब्लू स्टार से खासे गुस्से में थे। इससे होने वाले खतरे को भांप कर इंदिरा को यह सलाह दी गई कि वह अपनी निजी सुरक्षा में से सिखों को अलग कर दें। लेकिन इंदिरा ने मना कर दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि उनके ही सिख बॉडीगार्ड ने उनकी हत्या कर दी।
सिख विरोधी दंगे
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे देश में साम्प्रदायिक माहौल गरम हो गया। यहां सिख विरोधी लहर बहने लगी। स्थिति इतनी खराब हो गई कि जगह-जगह लूट, घर जलाने जैसी घटनाएं होने लगीं। वर्ष १९८४ में हुए ये दंगे कांग्रेस के ही नहीं देश के इतिहास में भी काले पन्नों में दर्ज हुए। एक अहिंसक और धर्मनिरपेक्ष देश में ऐसी घटना का होना बहुत ही शर्मिंदगी की बात थी।
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश की बागडोर संभालने वाले उनके बेटे राजीव अपने जज्बात को रोक नहीं सके और दंगों पर बयान दिया कि 'जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है।' बयान से दंगों को लेकर उनका रुख और विचार दोनों साफ थे। एक बेटे के मुंह से ये लाइन तो शोभा देती लेकिन एक धर्मनिरपेक्ष और अहिंसा को आदर्श मानने वाले देश के प्रधानमंत्री के मुंह से नहीं। इस बयान से साफ हुआ कि देश और कांग्रेस के दामन पर लग रहे कलंक की उन्हें कितनी चिंता है। उनका इशारा मां इंदिरा की हत्या के बाद हो रहे दंगों को वाजिब बता रहा था। इस बयान की सभी ने आलोचना की और राजीव को बाद में सफाई भी देनी पड़ी। सरकार में रहते हुए भी कांग्रेस ने देश में लॉ एंड ऑर्डर बनाए रखने की पूरी कोशिश नहीं की। खासकर दिल्ली में सिखों के साथ सबसे ज्यादा शर्मनाक व्यवहार किया गया। पूरे उत्तर भारत में इन दंगों में सरकारी आंकड़ों के अनुसार २७०० लोग मारे गए और २० हजार से ज्यादा अपना घर छोड़ दूसरी जगह चले गए। असलियत में ये आंकड़े कहीं ज्यादा थे।
कांग्रेस को इन दंगों के लिए दोषी माना जाता है। कई कांग्रेसी नेताओं पर आरोप लगे कि उन्होंने भीड़ को उकसाया और उन्हें दंगों के लिए प्रेरित किया। सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर उन्हीं में एक थे जिन्हें कुछ वर्ष पहले ही अदालत ने दोषी ठहराया। चार दिन तक आक्रोशित लोगों को रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। यही कारण थे जिन्होंने इन दंगों को इतना भयानक रूप दे दिया कि आज तक उनके द्घाव नहीं भर पाए हैं।
बोफोर्स कांड
आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में बोफोर्स से ही देश में घोटालों की बात सामने आई। इस घोटाले ने राजीव गांधी की विकास पुरुष की छवि को धूमिल कर दिया। बोफोर्स घोटाले के भूत ने १९८९ के लोकसभा चुनावों में राजीव को बुरी हार तो दी ही साथ में कांग्रेस को भी समय-समय पर शर्मिंदा किया। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए आम चुनावों में पूरे देश की सिम्पैथी राजीव गांधी को ऐतिहासिक जनाधार के रूप में मिली। ५४२ सीटों की लोकसभा में कांग्रेस को ४११ सीटें मिली थी। कांग्रेस को ऐसी जीत न तो कभी पहले मिली थी और न उसके बाद अब तक मिल पाई है। लेकिन इस ऐतिहासिक जनाधार और विश्वास के बीच बोफोर्स घोटाला आ गया जिसका परिणाम यह हुआ की १९८९ के आम चुनावों में जनता ने राजीव को सत्ता से बेदखल कर दिया। ये बोफोर्स का ही असर था कि देश में दूसरी गैर कांग्रेसी सरकार वीपी सिंह के नेतृत्व में बनी।
वर्ष १९८९ में बोफोर्स का मामला सामने आया। इस समय देश के रक्षामंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह थे। इंडियन एक्सप्रेस की पत्रकार चित्रा सुब्रमण्यम और दि हिन्दू के एन राम की खोजी पत्रकारिता से यह घोटाला देश के सामने आया। ऐसा माना जा रहा था कि बोफोर्स तोप सौदे के कॉन्ट्रेक्ट बोफोर्स एबी कंपनी को देने के लिए राजीव ने रिश्वत ली और बिना जांचे-परखे ये कॉन्ट्रेक्ट उस कंपनी को दे दिए। इस मामले सबसे अहम नाम क्वात्रोची का था। जिसने पूरे मामले में बिचौलिये की भूमिका निभाई थी। ऐसा माना जाता था कि इटली के इस व्यापारी क्वात्रोची से राजीव के घनिष्ठ संबंध थे।
देश के इस पहले बड़े घोटाले के सामने आने के बाद लोगों में राजीव के खिलाफ रोष भर गया। जिसका असर आम चुनावों में भी दिखाई पड़ा। बोफोर्स मामले की जांच सीबीआई को सौंपी गइर्। सीबीआई और स्विस बैंक के बीच सालों चली लंबी लड़ाई के बाद १९९७ में स्विस बैंक ने इस मामले से संबंधित ५०० के दस्तावेज सीबीआई को सौंपे। लेकिन दुर्भाग्यवश इस समय तक राजीव गांधी की हत्या हो चुकी थी। इसके बाद सीबीआई ने क्वात्रोची, विन चढ्ढा, एस के भटनागर (राजीव गांधी के डिफेंस सेक्रेटरी और कुछ अन्य लोगों को गिरफ्तार कर लिया। इसी बीच विन चढ्ढा की भी मृत्यु हो गई। हालांकि फरवरी २००४ में दिल्ली हाईकोर्ट ने राजीव गांधी व अन्य पर रिश्वत लेने के आरोपों को खारिज कर दिया। लेकिन धोखाधड़ी और सरकार को नुकसान पहुंचाने के आरोप में इन पर अभी भी मुकदमा चल रहा है।
सांसद रिश्वत कांड
पीवी नरसिम्हा राव पहले कांग्रेसी नेता थे जिन्होंने गांधी परिवार का न होने के बाद भी पूरे ५ साल तक प्रधानमंत्री पद को संभाला। प्रधानमंत्री काल में देश में इकोनॉमिक रिफॉर्म का श्रेय भी इन्हीं को दिया जाता है। लेकिन अपनी कुशाग्र बुद्धि और कूटनीति के लिए राजनीतिक गलियारों में पहचाने जाने वाले राव ने अल्पमत में सरकार को चलाने के लिए जो नीति अपनाई उसने कांग्रेस के दामन पर एक और दाग लगा दिया। राजनीति में सरकार बचाने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त का आइडिया राव के एक्सिलेंट माइंड की ही देन थी जिसे १९९३ के बाद वर्ष २००८ में भी बिल्कुल राव के फार्मेट में इस्तेमाल किया गया।
वर्ष १९९३ में राव की सरकार को संसद में नो कॉनफिडेंस मोशन का सामना करना पड़ा। विपक्ष को ऐसा लग रहा था कि राव सरकार के पास बहुमत साबित करने के लिए जरूरी संख्या में सांसदों का समर्थन प्राप्त नहीं है। राव को भी कुछ ऐसा ही लग रहा था। इसलिए सरकार को बचाने के लिए राव व उनके एक अन्य साथी बूटा सिंह ने सांसदों को खरीदने की कोशिश की। इन दोनों पर ऐसा आरोप लगाया जाता है कि सरकार की तरफ से संसद में वोट डाल कर उसे बचाने के लिए सांसदों को लाखों रुपए दिए गए। इन सांसदों में झारखंड मुक्ति मोर्चा के सभी और जनता दल के कुछ सांसद शामिल थे। संसद में इन दोनों पार्टियों के नेताओं ने अपेक्षित रूप से अपना वोट कांग्रेस को देकर इस सरकार को गिरने से बचाया था।
यहां लेन-देन के लिए किसी बिचौलिए का इस्तेमाल किया गया जिसने सांसदों तक पैसे पहुंचाए। यह मामला सामने तब आया जब शैलेंद्र महतो नाम के एक सांसद ने इस बात का खुलासा किया। महतो उन सांसदों में से एक थे जिन्हें कांग्रेस के पक्ष में मतदान करने के लिए पैसे दिए गए।
प्रधानमंत्री पद की गरिमा को ध्यान में रखते हुए सीबीआई ने इस केस की कार्यवाही नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री पद से हट जाने के बाद शुरू की। कई सालों की कानूनी खींचतान के बाद सीबीआई को स्पेशल कोर्ट में राव और बूटा सिंह के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति मिल गई। राव ने उच्च अदालत में अपील की और उन्हें बेल पर छोड़ दिया गया। लेकिन वर्ष २००२ में दोनों आरोपियों को निर्दोष करार दिया गया। आरोपों से मुक्त करने का कारण दोनों के खिलाफ किसी पुख्ता सबूत का न होना था। महतो के बयान को कोर्ट ने इसलिए महत्वपूर्ण नहीं माना क्योंकि एक विपक्षी पार्टी के नेता जिसने खुद द्घूस ली हो उसके बयान पर आंख बंद करके विश्वास करना कोर्ट के लिए मुश्किल था।
कोर्ट ने भले ही सबूतों के अभाव में बूटा सिंह और नरसिम्हा राव को निर्दोष कहा हो लेकिन जो हुआ उससे सभी वाकिफ थे। इसने लोकतंत्र के मंदिर में एक असभ्य शुरुआत को तो जन्म दिया ही साथ-साथ कांग्रेस के दामन पर एक और दाग भी लगा दिया।
कैश फॉर वोट
२२ जुलाई २००८, संसद में भारतीय जनता पार्टी के तीन सांसदों ने स्पीकर के सामने नोटों की गड्डियां लहराकर लोकतंत्र के मंदिर की गरिमा को तार-तार कर दिया। पी वी नरसिम्हा राव ने सरकार में बने रहने के लिए जिस तरीके की शुरुआत की थी उसे एक बार फिर यूपीए सरकार में दोहराया गया। संसद में एक बार फिर कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को अल्पमत का खतरा हुआ और एक बार फिर इसे बचाने के लिए संसद में बैठे पूंजीपतियों ने अपनी तिजोरी खोल दी। कांग्रेस को समर्थन दे रही समाजवादी पार्टी के तत्कालीन सचिव अमर सिंह ने इस बार वोट के लिए नोट बांटने का काम किया।
मामले का खुलासा तब हुआ जब संसद में स्पीकर के सामने भारतीय जनता पार्टी के तीन सदस्यों ने नोटों के बंडल लहराए और आरोप लगाया कि उन्हें खरीदने की कोशिश की गई। बाद में पता चला कि वोटों के लिए सांसदों को खरीदने की जो घटना हुई, उसे स्टिंग ऑपरेशन के जरिए कैमरे में कैद किया गया है।
अपने खुलासों से अमेरिका तक को हिला देने वाली वेबसाइट विकिलीक्स ने भी कैश फॉर वोट के लिए कांग्रेस को दोषी बताया। विकिलीक्स में हुए खुलासे में ये साफ था कि कांग्रेस नेता नचिकेता कपूर ने अमेरिकी डिप्लोमेट को रुपयों से भरा सूटकेस दिखाते हुए कहा कि ये पैसे संसद में कांफिडेंस मोशन जीतने के लिए सांसदों को खरीदने के लिए हैं। नचिकेता ने यह भी बताया कि राष्ट्रीय लोकदल के सांसदों को पहले ही खरीदा जा चुका है। एक जाने- माने अंग्रेजी समाचार पत्र ने विकिलीक्स के इस खुलासे को कुछ ऐसे लिखा कि वर्ष २००८ में इंडो-यूएस न्यूक्लियर डील पर विश्वास मत हांसिल करने के पांच दिन पहले एक कांग्रेसी नेता सतीश शर्मा ने यूएस एम्बेसी के कर्मचारी को नोटों से भरे दो सूटकेस दिखाए और कहा कि ये ५० से ६० करोड़ रुपए हैं जिसे पार्टी ने विश्वास मत जीतने के लिए सांसदों को खरीदने के लिए जमा किए हैं।
भले ही अंत में सारा ठीकरा अमर सिंह के सिर पर फूटा हो लेकिन कांग्रेस अगर ये समझती है कि इस घटना से वह पाक-साफ बच कर निकल गई है तो यह उसकी गलती है। कैश फॉर वोट की घटना ने सरकार में रहने के लालच और उसके लिए किसी हद तक चले जाने की प्रवृत्ति तो दिखाई ही है साथ में यह कहीं न कहीं कांग्रेस को अमेरिकी हाथों की कठपुतली बना हुआ भी दिखाता है।
कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला
दिल्ली में आयोजित १९वें कॉमनवेल्थ गेम्स कांग्रेस के लिए बुरे सपने की तरह आए और उसे झकझोर कर चले गए। दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार ने जिस गैरजिम्मेदाराना अंदाज में इन खेलों के आयोजन की तैयारी की उससे देश की साख पर भी सवाल उठा। अमूमन ऐसे आयोजनों को करवाकर सरकारें अपने खजाने भरने की कोशिश करती हैं, लेकिन दिल्ली में आयोजित कॉमनवेल्थ गेम्स ने सरकारी खजाने को ही चूना लगा दिया।
इन गेम्स के आयोजन को जिस तरह से हैंडिल किया गया उसने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित तक को कठघरे में खड़ा कर दिया। दोनों की नाक के नीचे सुरेश कलमाड़ी और गेम्स से जुड़े अन्य अधिकारी बेहिसाब नोट छापते रहे, लेकिन किसी को पता ही नहीं चला। ऐसे में देश के प्रधानमंत्री और दिल्ली की मुख्यमंत्री दोनों की बातों पर यकीन करना और दोनों के पाक-साफ होने पर विश्वास करना बेहद कठिन है।
कॉमनवेल्थ की तैयारियों का अंतिम दौर तो पूरे देश के लिए चिंता का विषय बन गया। तैयारियों की डेड लाइन को कई बार बदला गया। दोयम दर्जे के काम के कारण कई जगह दोबारा कंस्ट्रक्शन कराना पड़ा। गेम्स की आयोजन की तिथि करीब आती जा रही थी और काम था कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। ऐसे में देश की साख दांव पर थी लेकिन न तो कांग्रेस की हाईकमान सोनिया गांधी सामने आईं और न ही प्रधानमंत्री ने कुछ ऐसा किया जिससे काम को समय पर खत्म किया जा सके। सब खामोश थे और कलमाड़ी एंड कंपनी का तमाशा देख रहे थे, मानो इस कंपनी के डायरेक्टर वही हों और सब उनके इशारे से हो रहा है। घोटालों के मामले में भी इस आयोजन ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। एक मामूली से कंस्ट्रक्शन से लेकर ऐड फिल्म बनाने तक के लिए दो नंबर के तरीकों का सहारा लिया गया। कंस्ट्रक्शन में गुणवत्ता को तो टूटती छतों ने गेम शुरू होने से पहले ही बता दिया था। साथ ही कैग की रिपोर्ट ने बाकी परतें भी हटा दी। इस आयोजन के प्रचार का कॉन्ट्रेक्ट जिस विदेशी कंपनी को दिया गया वह फर्जी निकली। सामान की खरीद-फरोख्त में सबसे ज्यादा हाथ साफ किया गया। जिन सामनों को किराए पर लिया गया उसके लिए इतना अधिक किराया दिया गया कि उतने में समान खरीद लिया जा सकता था लेकिन कमीशन की भूख में देश का भला कहां नजर आने वाला थì |