- संतोष सिंह
चमोली जनपद में बदरीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग से 15 किलोमीटर दूरी पर बसा एक गांव है स्यूंण । यहां के निवासी कभी मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहते थे। इस गांव में एक किसान के घर जन्में बहादुर सिंह रावत ने स्यूंण के विकास का सपना देखा। इस सपने को साकार करने के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन गांव और ग्रामीणों के लिए समर्पित कर दिया। ग्रामीणों ने भी उनके इस संघर्ष का ईनाम रावत को 14 साल तक निर्विरोध ग्राम प्रधान बनाकर दिया। आज स्यूंण इलाके में न केवल सबसे पहले शौचालय निर्मित करने वाला गांव के रूप में जाना जाता है, बल्कि ‘मॉडल विलेज’ कहलाया जाता है
समाज सेवा का भाव मन में हो तो हर कठिन राह भी आसान होती चली जाती है। ऐसा ही कुछ कर दिखाया बहादुर सिंह रावत ने। उनमें समाजसेवा का भाव बचपन से ही भरा रहा। जिसके चलते आठवीं तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद समाज सेवा के लिए समर्पित हो गए। सभी सामाजिक कार्यों में वे बढ़-चढ़कर प्रतिभाग करते रहे। उन्होंने गांव में युवक मंगल दल का गठन किया। इसके बाद दो बार गांव के निर्विरोध प्रधान बनकर रिकॉर्ड कायम किया। उन्होंने पूरी ईमानदारी से पंचायत के विकास के लिए कार्य किया और ग्राम पंचायत बैठक में लोगों को एक-एक रुपए का हिसाब दिया। उत्तराखण्ड पृथक राज्य आंदोलन में भी सक्रिय रहे। गांव में जब कोई शौचालय का नाम नहीं जानता था तब बदरीनाथ हाइवे से 15 किमी दूर बसे सूदूरवर्ती गांव स्यूंण में शौचालय निर्माण कर मिशाल कायम की। उन्हें क्षेत्र के लोग घिंगराण-स्यूंण-डुमक मोटर मार्ग निर्माण के लिए लंबा संघर्ष के लिए याद करते हैं। उस दौरान सड़क की मांग को लेकर लोकसभा चुनाव तक का बहिष्कार किया। विभिन्न समाजिक संस्थाओं में कार्य करते हुए जल जंगल जमीन संरक्षण के लिए हमेशा संघर्षरत रहे। अब दर्जनों गांवों में जैविक खेती के लिए किसानों को प्रशिक्षण के साथ प्रोत्साहित कर रहे हैं।
ऐसे संघर्षशील बहादुर सिंह रावत का जन्म 1949 में चमोली जनपद के स्यूंण गांव के एक गरीब किसान परिवार में हुआ था। उनकी प्राथमिक शिक्षा गांव में और आठवीं तक की पढ़ाई गांव से 20 किमी दूर गडोर में हुई। आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण वे आगे की पढ़ाई नहीं कर पाए। जिसका मलाल उन्हें हमेशा होता रहा। इसके बाद उन्होंने समाज सेवा को अपना उद्देश्य बना लिया। सबसे पहले गांव में युवक मंगल दल का गठन किया जहां सचिव पद पर रहते हुए रावत ने सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर प्रतिभाग किया। इस दौरान उन्होंने ग्राम पंचायत स्यूंण को पृथक करने के लिए संघर्ष किया। 1979 में स्यूंण गांव बेमरू पंचायत से अलग हो गई। उनके इस संघर्ष को देखते हुए 1982 में ग्रामीणों द्वारा सर्वसम्मति से उन्हें निर्विरोध ग्राम प्रधान बना दिया। अब उनके ऊपर समाज की अधिक जिम्मेदारी आ गई। उन्होंने ग्राम प्रधान पद पर रहते हुए ईमानदारी से अनेकों विकास के कार्य किए। पंचायत के सभी परिवारों को एक सूत्र में बांधकर आगे बढ़ाया। अपनी पौराणिक और सांस्कृतिक धरोहरों का संरक्षण के लिए लोगों में जागरूकता जगाई।
उनका यह कार्यकाल 1982 से 1988 तक चला। उनके इस कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि जब लोग शौच के लिए गांव के आसपास की झाड़ियों और जंगलों में जाते थे जिससे बच्चों और बीमार लोगों को परेशानियां उठानी पड़ती थी। साथ ही गांव के आसपास गंदगी व दुर्गंध आती थी। तब रावत ने गांव में सार्वजनिक शौचालय बनाने का निर्णय लिया। यह उस समय की बात है जब बदरीनाथ हाइवे के आस-पास के गांवों में भी शौचालय की व्यवस्था नहीं थी। ऐसे में दशोली ब्लॉक के दूरस्थ और अंतिम गांव में शौचालय बनाने की कल्पना करना भी बेमानी जैसी थी। लेकिन बहादुर सिंह रावत के दृढ़ संकल्प और ग्रामीणों के सहयोग से उन्होंने सबसे पहले दूरस्थ गांव में 8 कमरों का शौचालय व 2 सार्वजनिक बाथरूम बनाए। उस वक्त बजट की कमी के चलते इसे बनाने में तीन वर्ष का समय लग गया। 1992 से शुरू हुआ शौचालय निर्माण का कार्य तीन वर्ष बाद 1995 में बनकर तैयार हुआ। उनके इस कार्य की हर उस व्यक्ति, अधिकारी और कर्मचारी ने प्रशंसा की जो स्यूंण गांव पहुंचे। तब यह कहा गया कि जनप्रतिनिधियों ने इससे प्रेरणा लेकर अपने गांव में भी शौचालय बनाने की नींव रखी। उनकी ईमानदारी व विकास कार्यों को देखते हुए ग्रामीणों ने उन्हें दोबारा निर्विरोध प्रधान बनाया। अपने दूसरे कार्यकाल में भी रावत ने गांव में वनीकरण, महिला सशक्तिकरण के साथ अनेकों विकास के कार्य किए। इसी दौरान उत्तराखण्ड पृथक राज्य के आंदोलन का आगाज हुआ। बहादुर सिंह रावत भी ‘कोदा, झंगौरा खाएंगे, उत्तराखण्ड बनाएंगे’ नारों के साथ 1994 में आंदोलन में कूद पड़े। उत्तराखण्ड पृथक राज्य आंदोलन के चलते उनका दूसरा कार्यकाल आगे बढ़ा और वे 1989 से 1996 तक एक बार प्रधान पद पर रहे। उनके अच्छे कार्यकाल को देखते हुए पंचायत द्वारा उन्हें तीसरी बार निर्विरोध प्रधान बनाया जा रहा था, लेकिन उन्होंने ईमानदारीपूर्वक अपनी बात रखते हुए इस पद पर गांव के अन्य युवा को भी मौका देने को कह दिया। अपने कार्यकाल में बहादुर सिंह रावत ने अनेक विकास के कार्य किए और जन आंदोलन में भाग लिया। उन्होंने पीपलकोटी से मठ-बेमरू-स्यूंण 15 किमी पैदल मार्ग को चौड़ीकरण व अश्व मार्ग के रूप में विकसित करने के लिए संघर्ष किया। साथ ही पैदल गदेरों पर पुल निर्माण कराया। उनके द्वारा स्यूंण और डुमक के बीच मैनागाड पर पुलिया निर्माण करवाया गया।
क्रांतिकारी विचार धारा के बहादुर सिंह रावत ने राज्य आंदोलन में भी सक्रियता से भाग लिया। वर्ष 2000 में उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद उन्हें राज्य आंदोलनकारी घोषित किया गया और आज उसकी पेंशन योजना का लाभ ले रहे हैं। समाज सेवा के लिए समर्पित रावत को 2005 में गांव का निर्विरोध सरपंच बना दिया गया। इस पद पर वे 9 वर्ष तक रहे। इस दौरान उन्होंने गांव में वनीकरण और लोगों के हकों के लिए सेंचुरी जोन के लिए भी लंबी लड़ाई लड़ी। उन्होंने सरपंचों का संगठन बनाया और सरकार व वनविभाग की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद की। जिसका परिणाम यह हुआ कि वन विभाग जिन सैकड़ों गांवों को सेंचुरी जोन में सम्मिलित कर उनके हक-हकूकों पर बंदिशें लगाने जा रहा था, वहीं विरोध के बाद विभाग को अपना निर्णय वापस लेना पड़ा। जनता में उनकी लोकप्रियता और ईमानदार छवि के चलते लोगों ने उन्हें 2007-08 में जिला पंचायत सदस्य के लिए अपना उम्मीदवार बनाया। यहां तक कि उनके चुनाव लड़ने के लिए लोगों ने चंदा तक किया। भले वो इस चुनाव में जीत नहीं पाए लेकिन कम वोटों के अंतर से दूसरे स्थान पर रहे। इस दौरान उन्होंने समाजिक संस्था जनदेश में भी 10 वर्ष तक जल, जंगल, जमीन पर कार्य किया। इस दौरान उन्होंने दर्जनों गांवों में पर्यावरण संरक्षण, जन-जागरूकता के साथ वनीकरण भी किया। शिक्षा के क्षेत्र में भी उनके द्वारा निरंतर कार्य किए। विगत 10 वर्षों से बहादुर सिंह रावत जनता हाईस्कूल स्यूंण-बेमरू में प्रबंधक के पद पर बने हुए हैं। फिलहाल वह तीन वर्षों से हिमाद समाजिक संस्था में कार्यक्रम समन्वयक के पद पर कार्य करते हुए दर्जन भर गांवों में जैविक खेती के लिए लोगों को प्रशिक्षण दे रहे हैं जिसका परिणाम है कि जोशीमठ ब्लॉक में उर्गमघाटी में बडगिंडा तल्ला, बडगिंडा मल्ला, पिलखी, खोली, देवग्राम, जखोला, किमाणा, डुमक सहित अन्य गांवों में जैविक खेती के लिए लोग जागरूक हो रहे हैं। इन गांवों के लोग अपनी परंपरागत रूप से की जा रही खेती को आगे बढ़ाते हुए जैविक खेती कर रहे हैं। बहादुर सिंह रावत कहते हैं कि आज रासायनिक खादों के उपयोग से अनेकों बीमारियां जन्म ले रही हैं। जबकि सरकार भी जैविक खेती के लिए प्रोत्साहित कर रही है। ऐसे में हमारे द्वारा दर्जनों गांवों में जैविक खेती के लिए महिलाओं को जागरूक करने के साथ प्रशिक्षित किया जा रहा है। जिसका लोगों को लाभ भी मिल रहा है।
रावत के अनुसार दूरस्थ गांव में उनका जन्म एक किसान परिवार में ऐसे समय में हुआ, जब लोग पूरी तरह खेती पर निर्भर थे। सरकार की कोई भी योजना और नेता, अधिकारी व कर्मचारी गांव तक नहीं पहुंचते थे। शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, बिजली, सड़क, नेटवर्क जैसे मूलभूत सुविधाओं से वंचित थे जिसके चलते बचपन से उनके मन में समाज सेवा का भाव पैदा हुआ। प्रधान पद पर रहते हुए हमें गांव के पैदल अश्व मार्ग, शिक्षा, पेयजल, बिजली, सड़क के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा जिसकी परिणति में जनता के सहयोग से आज गांव में सभी सुविधाएं उपलब्ध हो पाई हैं।
- उपलब्धियां:
युवक मंगल दल सचिव रहते हुए 1979 में स्यूंण गांव को बेमरू ग्राम सभा से पृथक पंचायत बनाने में अहम भूमिका रही।
1982 में ग्राम पंचायत स्यूंण के प्रथम निर्विरोध ग्राम प्रट्टाान जो सात वर्ष तक रहे।
दूसरी बार भी निर्विरोध प्रधान 1989 से 96 तक।
1994 में पृथक राज्य उत्तराखण्ड आंदोलन में सक्रिय भूमिका में रहते हुए मुजफ्फरनगर आंदोलन में भाग लिया।
बदरीनाथ हाईवे से 15 किमी दूर स्यूंण गांव में 1995 में आठ कमरों का सार्वजनिक शौचालय निर्माण और 2 महिला स्नानागार बना कर मिसाल पेश की। जिसका 2015 में गांव पहुंचने पर तत्कालीन सीडीओ मंगेश घिल्डियाल ने भी तारीफ की।
2005 से 14 तक निर्विरोध स्यूंण गांव के वन पंचायत सरपंच।
घिंगराण-बेमरू-स्यूंण-डुमक मोटर मार्ग के लिए अनेक धरना- प्रदर्शन के साथ ही 2009 में सड़क के लिए लोकसभा चुनाव बहिष्कार का नेतृत्व किया जिसमें 6 गांवों के लोगों द्वारा मतदान नहीं किया गया।
बदरीनाथ हाईवे से 15 किमी दूर स्यूंण गांव दूरस्थ क्षेत्र होने के चलते शिक्षक अधिकतर विद्यालय से नदारद रहते थे, जिसके चलते नौनिहालों का भविष्य चौपट हो रहा था। तब रावत ने ग्रामीणों की बैठक कर गांव के दो शिक्षित युवा को अपने संसाधनों से अलग विद्यालय चलाया गया। जिसके बाद शिक्षा विभाग हरकत में आया और शिक्षक गांव में ही रुकने लगे।
जनता हाईस्कूल स्यूंण-बेमरू के लिए संघर्षरत रहे, जहां 2015 से वर्तमान तक प्रबंधक पद पर बने हैं।
2005 से 2014 तक सरपंच रहते हुए जल, जंगल और जमीन के लिए संघर्षरत रहे। इस दौरान केदारनाथ वन प्रभाग द्वारा सेंचुरी जोन के नाम पर 45 गांवों के हक-हकूकों पर बंदिशें लगाई गई। इसके लिए उन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी। जिसके बाद विभाग को इन गांवों को सेंचुरी जोन से हटाना पड़ा।
2022-23 में सामाजिक कार्यों के लिए उन्हें गौरा देवी पुरस्कार दिया गया।

