निकाय चुनावों की रणभेरी
उत्तराखण्ड में निकाय चुनावों की घोषणा ने सियासी तापमान खासा गर्मा दिया है। इन चुनावों को 2027 के विधानसभा चुनाव से जोड़कर सेमीफाइनल करार दिया जा रहा है। ऐसे में नगर निगम और नगर पालिका सीटों में आरक्षण का मुद्दा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के लिए बड़ी चुनौती बन उभरा है। भाजपा भीतर विरोध के स्वर विद्रोह तक पहुंचते नजर आ रहे हैं। भारी दबाव में आए मुख्यमंत्री धामी को कई स्थानों पर आरक्षण बदलना पड़ा है। कांग्रेस भाजपा भीतर मची रार से उत्साहित तो है लेकिन खुद उसका घर नाना प्रकार के गुटों में बंट प्रदेश अध्यक्ष करण माहरा के लिए बड़ा संकट बन उभर चुका है। क्षेत्रीय दल पूर्व की भांति हाशिए पर हैं और दलबदल का खेला भी शुरू हो चला है
उत्तराखण्ड में नगर निकायों के चुनाव की घोषणा के साथ पिछले एक वर्ष से छाए राजनीतिक कुहासे के छटने बाद राजनीतिक सरगर्मियां तेज हो गई हैं। 23 जनवरी 2025 को मतदान और 25 जनवरी 2025 को चुनाव परिणाम आने के बाद किसकी जमीन कितनी मजबूत है, ये स्पष्ट हो जाएगा। भारतीय जनता पार्टी के पास 2018 की जीत को दोहराने की चुनौती है तो वहीं कांग्रेस के सामने हरिद्वार की एक मात्र मेयर सीट बचाने के साथ-साथ अन्य नगर निगमों में अपनी ताकत का एहसास कराने का संकट मुंह बाए खड़ा है। राज्य गठन के बाद से ही अभी तक हुए नगर निकाय चुनावों में मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में ही देखने को मिला है। सपा, बसपा सहित अन्य क्षेत्रीय ताकतंे इन चुनावों में भी हाशिए पर ही नजर आई हैं। वर्तमान में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष करन माहरा के समक्ष दमदार प्रदर्शन की गंभीर चुनौती है क्योंकि दोनों ही अपने-अपने दलों भीतर आंतरिक विरोध का सामना कर रहे हैं। केदारनाथ विधानसभा के उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत ने मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को एक राहत जरूर दी थी लेकिन नगर निकाय के चुनाव उनके लिए नई समस्या बन उभरे हैं। खासकर, आरक्षण की स्थिति ने भाजपा भीतर विरोध के स्वरों को जन्म दे मुख्यमंत्री धामी को भारी दबाव में ला दिया है। इस दबाव के चलते हल्द्वानी, अल्मोड़ा, कालाढूंगी, नैनीताल, श्रीनगर सहित कई अन्य नगर निकायों में आरक्षण को बदलना पड़ा। वहीं कांग्रेस के भीतर दावेदारों की लंबी फौज और अन्य दलों से आने वाले नेताओं को प्रत्याशी बनाने की मंशा ने पार्टी के अंदर कई धड़े बना दिए हैं। खासकर रूद्रपुर नगर निगम के मेयर के लिए राजकुमार ठुकराल, मीना शर्मा और किच्छा विधायक तिलकराज बेहड़ के तीन गुट बन गए हैं।
भारतीय जनता पार्टी की बात करें तो सरकार होने के बादवजूद उसे कई चुनौतियों से रूबरू होना पड़ रहा है। आरक्षण और प्रत्याशी चयन में जिस प्रकार भाजपा के नेता कई गुटों में बंटते दिखाई पड़ रहे हैं उससे साफ नजर आता है कि कांग्रेस की बीमारी ने अब भाजपा भीतर भी अपनी पकड़ मजबूत कर ली है। कभी खामोशी से पार्टी नेतृत्व के निर्णय को स्वीकारने वाला भाजपा कैडर अब मुखर हो चला है। यही कारण है कि नगर निकायों के आरक्षण की सूची आने के बाद भाजपा के अंदर जो हलचल मची उसने सरकार को यू-टर्न लेने को मजबूर कर दिया। खासकर हल्द्वानी नगर निगम को लेकर जो स्थिति बनी उससे सरकार बैकफुट पर आ गई। अन्य पिछड़ा वर्ग सीट घोषित होने के बाद जिस प्रकार भाजपा की अंदरूनी राजनीति गरमाई उसने भाजपा के कैडर को भी दो फाड़ कर दिया। ओबीसी सीट घोषित होने के बाद व्यापारी नेता नवीन वर्मा की भाजपा में एंट्री और वरिष्ठ नेता गजरात बिष्ट का प्रत्याशी के रूप में दावा करना, साथ ही भाजपा के एक बड़े कैडर का गजरात बिष्ट के समर्थन में आ जाना भाजपा के उन रणनीतिकारों की रणनीति को फेल कर गया जिसके चलते हल्द्वानी नगर निगम की सीट ओबीसी के लिए आरक्षित कर दी गई थी।
पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के करीबी गजराज बिष्ट का मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और कालाढूंगी से विधायक और पूर्व कैबिनेट मंत्री बंशीधर भगत से छत्तीस का आंकड़ा बताया जाता है। 2022 के विधानसभा चुनावों में निर्दलीय चुनाव लड़ने का मन बना चुके गजराज बिष्ट को मनाने के लिए भाजपा को पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को भेजना पड़ा था। भाजपा के अंदर से ही सवाल उठ रहे हैं कि 37 वर्षों से भाजपा से जुड़े गजराज बिष्ट की राह आखिर रोकी क्यों जा रही है। 2007 में भुवन चंद्र खण्डूड़ी को उत्तराखण्ड का मुख्यमंत्री बनाने के विरोध में गजराज बिष्ट ने भगत सिंह कोश्यारी के समर्थन में भारतीय जनता युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा तक दे दिया था। हल्द्वानी नगर निगम को ओबीसी आरक्षित करना बंशीधर भगत को भी रास नहीं आया। बताया जाता है कि आरक्षण घोषित होने के बाद बंशीधर भगत देहरादून में डेरा जमा कर बैठ गए थे। भले ही उन्होंने अपनी विधानसभा के विकास कार्यों के संबंध में जाने की बात कही हो। लेकिन सूत्र बताते हैं कि उनका दबाव काम कर गया और उन्हीं के दबाव में हल्द्वानी नगर निगम की सीट को अनारक्षित घोषित करना पड़ा। बताया जाता है कि बंशीधर भगत के दबाव के चलते कालाढूंगी की सीट भी अनुसूचित जाति से सामान्य महिला घोषित हो गई। शायद बंशीधर भगत तीसरी बार फिर से निवर्तमान मेयर जोगेंद्र रौतेला के लिए इच्छुक थे। सौम्य स्वभाव के जोगेंद्र रौतेला, बंशीधर भगत के करीबियों में शुमार होते हैं।
हल्द्वानी में भाजपा के अंदर दावेदारों की कमी नहीं है। लेकिन हाल के प्रकरणों ने भाजपा के अंदरूनी हालातों को सतह पर ला दिया है। इसमें मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को हल्द्वानी स्थित उन सिपहसलारों के चलते असहज स्थिति का सामना करना पड़ा जिन सिपहसलारों की एक मात्र योग्यता मुख्यमंत्री का करीबी होना है। ऐसों का जमीनी आधार शून्य है। इस पूरे प्रकरण में खुद को अगर कोई सबसे ज्यादा ठगा महसूस कर रहे हैं तो वो हैं व्यापारी नेता नवीन चन्द्र वर्मा जिनके लिए असहज स्थिति पैदा हो गई है। इन सब के चलते भाजपा की अंदरूनी राजनीति प्रभावित हुई है। अगर नगर निकाय चुनावों के दौरान बगावत की स्थिति देखने को मिले तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी के लिए ये नगर निकाय चुनाव चुनौती इस लिए भी है कि 2027 के विधानसभा चुनावों के लिए भी ये जमीन तैयार करेंगे।
कांग्रेस के लिए तो हर चुनाव चुनौती ही साबित होता रहा है। 2018 में हरिद्वार नगर निगम को छोड़कर कांग्रेस और कहीं भी अपना मेयर नहीं बनवा पाई थी। कभी उत्तराखण्ड की नगर निकायों में एक छत्र राज करने वाली कांग्रेस आज पिछड़ी नजर आती है। सिर्फ चुनावों के समय तैयारी करने की आदी कांग्रेस की मशीनरी भाजपा के सर्वकालिक कैडर से इस लिए पिछड़ती है कि उसके वापस नेताओं की कमी तो नहीं है लेकिन जीत दिलाने वाले कार्यकर्ताओं की हमेशा कमी नजर आती है। नगर निकाय चुनावों में प्रदेश अध्यक्ष करन माहरा जीत का दावा तो जरूर करते हैं लेकिन प्रदेश अध्यक्ष के रूप में नगर निकाय चुनावों में उनका स्पष्ट स्टैंड क्या है ये वो स्पष्ट नहीं करते। रूद्रपुर नगर निगम में उनकी असमंजसता ये बयां करती है। रूद्रपुर नगर निगम में राजकुमार ठुकराल को कांग्रेस में शामिल करने पर वो सब कुछ कांग्रेस आलाकमान पर छोड़ देते हैं। वहां पूर्व नगर पालिका अध्यक्ष मीना शर्मा और तिलकराज बेहड़ की भूमिका पर वो चुप्पी साध जाते हैं। कमोबेश यही स्थिति अन्य नगर निकायों की है। रामनगर नगर पालिका में एक लंबे समय से स्थापित कांग्रेस को अपने पुराने चेहरों के इतर किसी खास नेता की पसंद पर भरोसा करना पड़ रहा है तो ये समझ जाना चाहिए कि कांग्रेस जनता से तो दूर हो रही है। चर्चा तो ये भी है कि अल्मोड़ा नगर निगम की सीट को भी महिला से ओबीसी में लाने के पीछे कांग्रेस के एक बड़े नेता की भूमिका ज्यादा है जो निवर्तमान नगर पालिकाध्यक्ष प्रकाश जोशी की पत्नी को कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में नहीं देखना चाहते थे।
हालांकि हर नगर निगम और नगर पालिका में कांग्रेस में दावेदारों की कमी नहीं है लेकिन नेताओं की पसंद नापसंद के बीच कांग्रेस सही उम्मीदवार के चयन का जोखिम उठा पाएगी इसमें संदेह है। शायद कांग्रेस नेतृत्व की यहीं पर असली परीक्षा होगी और यही 2027 के विधानसभा चुनावों के लिए कांग्रेस की दिशा तय करेगा। कांग्रेस के एक पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष का कहना है कि ‘इन दिनों कांग्रेस के अंदर 2027 के लिए पार्टी में कब्जे की होड़ चल रही है जिससे नेताओं को बचना चाहिए। अब आपस में संघर्ष नहीं सद्भाव की जरूरत है। पार्टी अगर नेताओं की निजी पसंद नापसंद को छोड़कर अच्छे प्रत्याशी नगर निकाय चुनावों में उतारती है तो कार्यकर्ता भी उत्साहित होता है। शायद नगर निकाय चुनावांे ने एक अच्छा अवसर दिया है। अब ये पार्टी नेतृत्व पर है कि ये उसका उपयोग कर पार्टी को पुनर्जीवित करने में करती है।’ कुल मिलाकर उत्तराखण्ड नगर निकाय चुनावों की अधिसूचना जारी होने के साथ नगर निकायों में चुने हुए प्रतिनिधियों का बैठना तो तय हो गया है लेकिन मतदाता की मंशा किस ओर है ये 25 जनवरी के चुनाव परिणामों से ही पता चलेगा।

