जो हमें डराते हैं, वे हमसे ज्यादा डरे हुए होते हैं। यह बात जनता बरक्स सत्ता पर सबसे ज्यादा लागू होती है। जब सत्ता का मतलब दहशत और लालसा हो जाए तो वही होता है जो इन दिनों नजर आ रहा है। नक्सली लिंक के आधार पर आरोप में 5 सामाजिक कार्यकर्ताओं को देश के अलग-अलग हिस्सों से गिरफ्तार किया गया। हैदराबाद से तेलगू कवि वरवर राव, मुंबई से वेरनोन वोन्जल्विस और अरुण परेरा, फरीदाबाद ट्रेड यूनियनिस्ट सुधा भारद्वाज और दिल्ली से गौतम नवलखा को गिरफ्तार किया गया। इस कार्रवाई का वामपंथी पार्टियों समेत बड़े तबके ने विरोध किया है।
इन गिरफ्तारियों के तार भीमा-कोरेगांव हिंसा और पीएम की हत्या की साजिश से जोड़े गए हैं। पुणे पुलिस के मुताबिक गिरफ्तारियां पिछले साल हुई एल्गार परिषद (दलितों के समर्थन में मीटिंग) की फंडिंग के सिलसिले में हुई हैं। इस परिषद के अगले दिन महाराष्ट्र में भीमा-कोरेगांव में हिंसा फैल गई थी। इस केस की जांच के दौरान पुलिस को सुराग लगा था कि नक्सली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रोड शो में, हत्या की साजिश रच रहे हैं। याद रहे 29 दिसंबर 2017 को पुणे के वड् गांव में दलित समुदाय के गोविंद महाराज की समाधि पर हमला हुआ था। जिसका आरोप हिन्दू एकता मोर्च पर लगा और प्राथमिकी दर्ज हुई। 31 दिसंबर 2017 को इसके खिलाफ पुणे में एल्गार परिषद में बैठक हुई, जिसके भाषणों को पुलिस ने सांप्रदायिक तनाव वाला माना। इसके बाद एक जनवरी 2018 को दलित पुणे के भीमा कोरेगांव में शौर्य दिवस मनाने एकत्रित हुए और इसी दौरान सवर्णों- दलितों में हिंसक झड़प हुई जिसमें एक शख्स की जान चली गई और हिंसा का विस्तार हुआ। पुलिस की सक्रियता पर सियासी हलकों में हलचल है। बुद्धिजीवी भी रोष में हैं। मशहूर लेखिका अरुंधति राय ने कहा है कि बेतुके आरोपों पर गिरफ्तारियां हो रही हैं, यह देश कहां जा रहा है। मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट का कहना है- भीमा-कोरेगांव हिंसा मामले में गिरफ्तार पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को छह सितंबर तक घर में नजरबंद रखने का आदेश दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा- असहमति लोकतंत्र का सेफ्टी वॉल्व है। इसके पहले इतिहासकार रोमित थापर और अन्य चार शिक्षाविदों ने सर्वोच्च न्यायालय में दी गई अपनी याचिका में कहा कि महाराष्ट्र पुलिस द्वारा की गई इस गिरफ्तारी का मकसद विरोध की आवाज दबाना और लोगों के दिमाग में डर बैठाना है।
खास बात यह कि इन गिरफ्तारियों को ‘शहरी नक्सली तंत्र’ से जोड़ा गया। हत्या की साजिश में शामिल होने का आरोप कितना पुख्ता है, यह जांच के बाद पता चलेगा। लेकिन इस बात की भी तस्दीक करनी चाहिए कि पुलिस ने इन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने में इतनी जल्दीबाजी क्यों दिखाई? सुप्रीम कोर्ट ने सहमति वाली बात कर इस तरफ संकेत दिया कि पुलिस किसी भी सूरत में इस तरह काम न करें जिससे लगे कि उसका इस्तेमाल असहमति की आवाज को दबाने के लिए हो रहा है।
इन गिरफ्तारियां पर हुई सियासत को भी किसी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता। वह चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष। जिस तरह से गृहराज्य मंत्री किरण रिजिजू के इन गिरफ्तारियों के बचाव में आए और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को नक्सिलियों का समर्थन न करने की हिदारयत दी वह हैरान करने वाला है। वैसे कांग्रेस के शासनकाल में भी आवाजों को दबाने की कोशिश होती रही है। इमरजेंसी इसका सबसे बड़ी नजीर है। इमरजेंसी के बाद से असहमति के स्वर को दबाने की निरंतर कोशिशें होती रही हैं। मामला सरकार का नहीं, सत्ता का है। सत्ता का चरित्र ऐसा हो गया है कि वह असहमति के स्वर को पसंद नहीं करती। उसे सवाल करने वाले भी अच्छे नहीं लगते। वह सिर्फ अपनी जय-जयकार चाहती है। हम नागरिक से कब भक्त में तब्दील हो गए, हमारा जनतंत्र कैसे राजतंत्र की ओर खिसकने लगा यह हमें पता ही नहीं चला। सत्तर के दशक में जब कांग्रेस के बड़े नेता आरके धवन ने चाटुकारिता की तमाम सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए नारा दिया-‘इंडिया इज इंदिरा’, इंदिरा इज इंडिया’। उस चाटुकारिता का ही नतीजा था कि इंदिरा गांधी अधिनायकवाद की तरफ बढ़ गईं।
इन दिनों एक बार फिर से कुछ-कुछ वही माहौल बनता मालूम हो रहा है। इतिहासकार रोमिला थापर ने भी कहा है कि देश में पिछले चार सालों में भय का माहौल बना है। यह माहौल आपातकाल की तुलना में ज्यादा डराने वाला है। पिछले चार सालों में अल्पसंख्यकों, दलितों और मुसलमानों के प्रति जिस तरह का बर्ताव किया जा रहा है, वह दुःखद है। यह भी दुखद है कि प्रचंड बहुमत वाली सरकार इस तरह के माहौल के प्रति न तो चिंतित नजर आती है, न ही इस पर अंकुश लगाने के प्रति उसकी गंभीरता या तत्परता दिखाई देती है।

