जल संरक्षण की अनूठी पहल
उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में सैकड़ों वर्षों से नौले-धारों से ही पानी की पूर्ति होती थी लेकिन अब परिस्थिातियां परिवर्तित हो रही है। नौले-धारे जल स्तर घटने के कारण सूखते जा रहे हैं। पहले पूर्वज पोखर, चाल, खाल बनाकर बारिश के जल संरक्षण का प्रयास करते रहते थे। पहले छोटे-छोटे खेतों में भी हल जोता जाता था जो कहीं न कहीं जल स्रोत के रूप में निकलता था, वही जल छोटी-छोटी नदियों का रूप लेता था। आज जब चारों तरफ पानी को लेकर हाहाकार मचा है ऐसे में जल संरक्षण हेतु चला ‘पानी बोओ, पानी उगाओ’ अभियान एक बड़ी उम्मीद जगाता नजर आ रहा है। इस अभियान के कर्ताधर्ता हैं, द्वाराहाट के कंडे गांव निवासी शिक्षक मोहन चंद्र कांडपाल। उनका यह अभियान पर्यावरण संरक्षण की दिशा में पूर्व में किए गए कार्यों की ही परिणति है। इस अभियान में स्थानीय लोगों का भी सहयोग मिल रहा है। पेड़ लगाए जा रहे हैं, लोग तालाब बनाने के लिए चंदा दे रहे हैं। अभी तक 15 लाख रुपए के काम जनता के सहयोग से किए जा चुके हैं। लेकिन केंद्र व राज्य सरकार को भी इसके लिए आगे आना होगा। कुल मिलाकर शिक्षक मोहन चंद्र कांडपाल ने हरित पर्यावरण के लिए जिस तरह ग्रीन केमेस्ट्री का प्रयोग किया है, वह वाकई काबिले तारीफ है आ ज जब चारों तरफ पानी को लेकर हाहाकार मचा है ऐसे में जल संरक्षण हेतु चला ‘पानी बोओ पानी उगाओ’ अभियान एक बड़ी उम्मीद जगाता है। इस अभियान के कर्ताधर्ता हैं, द्वाराहाट के कंडे गांव निवासी शिक्षक मोहन चंद्र कांडपाल। उनका यह अभियान पर्यावरण संरक्षण की दिशा में उनके द्वारा पूर्व में किए गए कार्यों की ही परिणिति है। वह पूर्व में क्षेत्र के 62 गांवों में महिला संगठन बनाकर सामाजिक कार्यों के अपने दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन कर चुके हैं। वह कई तरह के अभियानों को लेकर आगे चल रहे हैं। लेकिन जल संरक्षण की दिशा में ‘पानी बोओ पानी उगाओ’ अभियान एक नई आशा जगाता है।

अपने इन्हीं सामाजिक अभियानों के दौरान किए गए एक अध्ययन में उन्होंने पाया कि जहां जल स्रोतों के ऊपरी क्षेत्र के खेतों में हल जोता जाता है, वहां आज भी नौलों, धारों में पर्याप्त पानी है। जहां खेत बंजर हो गए वहां पर्याप्त मात्रा में नौले धारे सूख गए हैं। तब उन्होंने नारा दिया- ‘पानी बोओ, पानी उगाओ’। कांडपाल कहते हैं कि वर्ष 2007 में एक बुजुर्ग महिला ने जब यह कहा कि हम पानी बोएंगे नहीं तो नौलों-धारों में कहां से आएगा, सब अपने खेतों को बंजर छोड़कर महानगरों को निकल गए हैं। खेतों में अब बर्षा का पानी रूकता नहीं है। वह यूं ही बहकर बर्बाद हो जाता है। बुजुर्ग महिला का यही कथन शिक्षक कांडपाल को इस अभियान को चलाने के लिए प्रेरित कर गया। देखा जाए तो पहाड़ के लोग पहले से ही ऊंचे-ऊंचे स्थान पर खेती करके पहाड़ों पर पानी बोते रहे हैं। उनकी सोच थी कि खेत में पड़ने वाली प्रत्येक बूंद जमीन के अंदर जाएगी तो निश्चित ही कहीं न कहीं जल स्रोत के रूप में बाहर निकलेगी। शिक्षक कांडपाल को लगा कि इसके लिए लोगों को जागरूक किए जाने की जरूरत है। वह अपने अभियान में निकल पड़े और लोगों को समझाते रहे कि वह या तो अपने खेतों को हल से जोतें या फिर खेत में खाव बनाकर वर्षा जल को जमीन में बोएं। उनकी इस मुहिम को स्थानीय लोगों का साथ मिला। लोगों ने धन के साथ श्रमदान के जरिए पौध लगाने के साथ ही तालाब खोदने के काम किए जिसका परिणाम अब सामने दिखने लगा है।
कांडपाल ने वर्ष 1990 से ग्रामीण स्तर पर चौड़ी पत्तीदार पौधे लगाने व वर्षा के जल के संरक्षण हेतु खाव खोदने का कार्य शुरू कर दिया था। 2002 में उन्होंने पानी बोओ अभियान की शुरुआत की। पिछले तीस सालों से वह पर्यावरण संरक्षण के कार्यों में जुटे हैं। कोरानाकाल में उन्हांेने ‘चलो गांव की ओर’ अभियान शुरू किया। इसके तहत नदी किनारे चौड़ी पत्ती के पेड़ लगाए जा रहे हैं। क्षेत्र में मोहन कांडपाल की पहचान ‘पर्यावरण वाले मास्साब’ के रूप में है। उन्होंने वर्ष 2005 में रिस्कन नदी जो सूखने लगी थी, उसके आस-पास जल संरक्षण के तहत 5 हजार से अधिक खाव एवं खंतियां खुदवाई। इसके पीछे की सोच यह थी कि पहले ऊंची जगहों पर खेत बनते थे, खेती होती थी, उसमें बरसात का पानी टिकता था। खेतों के इनारे-किनारे पेड़ उगते थे, एक तरह से प्राकृतिक रूप से जल का संरक्षण होता था। भूमिगत जल की कमी भी नहीं रहती थी। चारों तरफ नमी भी रहती थी। अब खेत बंजर हो गए। उनकी पानी को सोखने की क्षमता कम हो गई।

अब स्थानीय लोगों को साथ लेकर 40 किमी लंबी रिस्कन नदी को भी बचाने का प्रयास कर रहे हैं। ग्रामीणों के साथ मिलकर नदी किनारे चौड़े पत्ते लगाए जा रहे हैं। पिछले 34 सालों में वह ग्रामीणों के सहयोग से 1 लाख से अधिक पौधे रोपित कर चुके हैं, जो जंगल का आकार ले चुके हैं। 5 हजार से अधिक खाव एवं खंतियां बना चुके हैं। पर्यावरण अलख जगाने के लिए शुरुआती स्तर में उन्होंने पर्यावरण शिक्षण एवं ग्रामोत्थान समिति (सीड) नाम से एक संस्था बनाई जिसमें स्थानीय लोगों के साथ ही अध्यापकों, व्यवसायियों को जोड़ा। उन्होंने विद्यार्थियों को पर्यावरण संरक्षण में साथ लेने के लिए पर्यावरण चेतना मंच बनाया। शिक्षक कांडपाल ने उत्तराखण्ड में चले ‘नशा नहीं, रोजगार दो’ आंदोलन में भी प्रतिभाग किया था। उन्होंने अपने शुरुआती सामाजिक अभियानों में 42 गांवों में बालवाड़ी, 18 गांवों में पर्यावरण शिक्षा सुविधा केंद्र के साथ ही अपने विद्यालय में व्यावहारिक ज्ञान मंच भी चलाया। उनका मानना था कि कम उम्र में ही पर्यावरण शिक्षा में शामिल होने पर जीवन में स्थाई प्रभाव पड़ता है। तब बच्चों ने छोटी-छोटी नर्सरियां व पौधशालाएं लगाई। फिर इन पौधों को अपने खेतों में लगाया। बाद में महिला मंगल दलों का गठन हुआ। इन महिला मंगल दल से जुड़ी महिलाओं ने गांव में चारे व जल संरक्षण करने वाले पौधे लगाए। क्षेत्र में महिला एकता व किशोरी एकता परिषदों का गठन भी किया गया।

मोहन कांडपाल कहते हैं कि अगर समय पर जागरूकता नहीं आई तो भविष्य में भीषण पेयजल संकट पैदा हो जाएगा। नौले, धारों के सूखने का प्रभाव गैर बर्फीली नदियों पर पड़ रहा है। उनका जल स्तर घट रहा है। पानी का प्रबंधन ठीक से नहीं हो पाने के कारण समस्या पैदा हो रही है। पलायन ने भी इस समस्या को बड़ा बना दिया है। उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में सैकड़ों वर्षों से नौले-धारों से ही पानी की पूर्ति होती थी लेकिन अब नौले-धारे जल स्तर घटने के कारण सूखते जा रहे हैं। पहले पूर्वज पोखर, चाल, खाल बनाकर बारिश के जल संरक्षण का प्रयास करते रहते थे। पहले छोटे-छोटे खेतों में भी हल जोता जाता था जो कहीं न कहीं जल स्रोत के रूप में निकलता था, वहीं जल जल छोटी-छोटी नदियों का रूप लेता था। वह कहते हैं कि हमने रिस्कन नदी पर इस अभियान के तहत काम किया। जिसके तहत करोड़ों लीटर पानी जमीन में बोया गया। 40 किमी. लंबी रिस्कन नदी करीब 45 गांवों की जीवन दायिनी है लेकिन हमारे प्रयास जारी हैं। हमें स्थानीय लोगों का सहयोग मिल रहा है। लोग तालाब बनाने के लिए चंदा दे रहे हैं। रिस्पना नदी को बचाने के लिए आगे आ रहे हैं। पेड़ लगाए जा रहे हैं। अभी तक 15 लाख रुपए के काम जनता के सहयोग से किए जा चुके हैं। लेकिन केंद्र व राज्य सरकार को भी इसके लिए आगे आना होगा। कुल मिलाकर शिक्षक मोहन चंद्र कांडपाल ने हरित पर्यावरण के लिए जिस तरह से ‘पानी बोओ, पानी उगाओ’ जैसी ग्रीन केमेस्ट्री का प्रयोग किया है, वह वाकई काबिले तारीफ है।

