कांग्रेस भीतर मंगलौर और बद्रीनाथ की जीत से उपजा अति आत्मविश्वास उसे केदारनाथ उपचुनाव की हार की ओर ले गया। इसी अहंकार में वो भूल गई कि मंगलौर और बद्रीनाथ उपचुनाव में भले ही उसे जीत मिली इसके पीछे असल में कांग्रेस की भूमिका कम स्थानीय मुद्दे ज्यादा प्रभावी थे। लेकिन केदारनाथ की पराजय को त्रिभुवन चौहान के 9300 वोट लाने से जोड़ देना एक सतही आकलन से ज्यादा कुछ नहीं है। कांग्रेस के अपने अंतर्विरोध के भी कई कारण हैं। भले ही कांग्रेस दावा करे कि उसने एकजुट होकर चुनाव लड़ा लेकिन वाकई में ऐसा था या ये दावे एकजुटता दिखाने के लिए थे? कांग्रेस ने अपनी हार की पटकथा उसी दिन लिख दी थी जब ‘केदारनाथ प्रतिष्ठा यात्रा’ की सूची से मनोज रावत का नाम नदारद था। ऐसे में कांग्रेसी नेताओं द्वारा हार का ठीकरा निर्दलीय प्रत्याशी पर फोड़ना वाजिब कैसे है? सवाल है कि क्या कांग्रेस अपनी इस पराजय पर ईमानदारी से आत्मचिंतन करेगी या सिर्फ आंकड़ों के सहारे फिर वही पुराने ढर्रे को अपनाएगी
‘‘केदारनाथ विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस की हार उत्तराखण्डियत की हार है, हमने जनता के बीच मनोज रावत के रूप में जनसरोकारों से जुड़ा प्रत्याशी उतारा था लेकिन जनता ने उसे हराकर भविष्य के लिए गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं जिस पर कांग्रेस पार्टी को गंभीरता से मंथन और आत्मचिंतन करना होगा’’
केदारनाथ विधानसभा उपचुनाव के परिणामों पर पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की उक्त प्रतिक्रिया कांग्रेस के अंदर या कहें उत्तराखण्ड कांग्रेस के नेताओं की उस दुविधा की एक बानगी भर है जिससे उसे केदारनाथ विधानसभा उपचुनाव की हार ने डाल दिया है। मंगलौर और बद्रीनाथ उपचुनावों में कांग्रेस की जीत ने पार्टी को आत्मविश्वास या कहें अति आत्मविश्वास से सराबोर कर दिया था। कांग्रेस पार्टी और कई राजनीतिक प्रवेक्षकों को मंगलौर और बद्रीनाथ उपचुनावों के परिणाम उत्तराखण्ड की राजनीतिक हवाएं बदलने का संकेत देते नजर आ रहे थे फिर ऐसा क्या हुआ कि केदारनाथ उपचुनाव में हवा बदली नजर आई। मनोज रावत के प्रत्याशी घोषित होने के बाद कांग्रेस बंटी नहीं और डटी भी रहीं लेकिन चुनाव परिणाम इसके माकूल नहीं रहे। अयोध्या और बद्रीनाथ की पराजय ने भाजपा के उस मूल हिंदुत्व पर चोट की थी जिसको वो अलम्बरदार मानी जाती है। इसलिए अपने केदारनाथ के किले को बचाना उसकी साख का सवाल बन गया था, वहीं कांग्रेस आत्मविश्वास के अतिरेक में एक नया अध्याय लिखने से चूक गई। शायद उसकी केदारनाथ जीत उत्तराखण्ड की राजनीति में टर्निंग प्वाइंट साबित हो सकती थी। लेकिन केदारनाथ सीट की हार ने उसके उस आत्मविश्वास को ठंडा कर दिया जो उसने मंगलौर और बद्रीनाथ उपचुनावों की जीत के बाद पाया था।

केदारनाथ विधानसभा उपचुनाव के परिणामों ने कांग्रेस को एक हद तक निराश किया है, लेकिन क्या कांग्रेस अपनी इस पराजय पर ईमानदारी से आत्मविश्लेषण या आत्मचिंतन करेगी या सिर्फ आंकड़े समझकर या फिर समझाकर फिर वही पुराने ढर्रे को अपनाएगी। कांग्रेस नेताओं के बयानों से जो निकलकर सामने आया है उसमें हार का एक कारण निर्दलीय प्रत्याशी त्रिभुवन सिंह का 9 हजार से अधिक मत पाना है। ये कई कारणों में से एक कारण तो हो सकता है लेकिन कांग्रेस की पराजय का एक मात्र कारण मानकर कांग्रेस के नेता कई अन्य कारणों को नजरअंदाज कर रहे हैं। केदारनाथ विधानसभा की बात करें तो 2002 से 2022 तक के हुए 5 विधानसभा चुनावों में 3 बार भारतीय जनता पार्टी और 2 बार कांग्रेस ने बाजी मारी है। 2002 में जहां भाजपा को यहां 30 प्रतिशत वोट मिला था, वहीं कांग्रेस को 22 प्रतिशत वोट मिला था। 2007 में भाजपा को 33 प्रतिशत और कांग्रेस को 27 प्रतिशत मत मिले थे। 2012 के चुनाव में कांग्रेस और भाजपा दोनों के मत प्रतिशत में बढ़ोतरी हुई यहां पर लेकिन 42 प्रतिशत मतों के साथ ये सीट कांग्रेस ने जीती। भाजपा को तब 37 प्रतिशत वोट मिले थे। 2017 के विधानसभा चुनावों में यहां एक बड़ा फेरबदल देखने को मिला। अपनी पार्टी से बागी होकर निर्दलीय प्रत्याशी ने कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस को तीसरे नंबर पर धकेल दिया भले ही निर्दलीय प्रत्याशी जीत न पाए हों। 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा से बगावत कर निर्दलीय प्रत्याशी कुलदीप रावत जीत की दहलीज पर पहुंचते-पहुंचते रह गए। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी मनोज रावत 25 प्रतिशत वोट लाकर जीत तो गए लेकिन जीत का अंतर महज 869 वोटों का रहा। निर्दलीय प्रत्याशी कुलदीप रावत 23 प्रतिशत वोट लाकर दूसरे तो बगावत कर निर्दलीय चुनाव लड़ीं आशा नौटियाल 21.24 प्रतिशत मत लाकर तीसरे और भाजपा प्रत्याशी शैलारानी रावत 2067 प्रतिशत मत लाकर चौथे स्थान पर पहुंच गई। यही इतिहास 2022 में दोहराया गया। इस बार फिर शैलारानी भाजपा प्रत्याशी थीं, मनोज रावत कांग्रेस से और फिर निर्दलीय के रूप में कुलदीप रावत मैदान में थे। इस बार 36 प्रतिशत मत लाकर शैलारानी रावत विधायक बनीं, वहीं कुलदीप रावत 22.11 प्रतिशत मत पाकर दूसरे स्थान पर और मनोज रावत 20.68 प्रतिशत मत पाकर तीसरे स्थान पर रहे। वहीं 2024 का उपचुनाव फिर एक बार मजबूत निर्दलीय प्रत्याशी की उपस्थिति का गवाह बना जिसने केदारनाथ विधानसभा उपचुनाव के समीकरणों को प्रभावित किया। त्रिभुवन सिंह ने 17 प्रतिशत वोट के साथ 9 हजार से अधिक मत प्राप्त किए, भाजपा प्रत्याशी 43.74 प्रतिशत के साथ 23814 वोट पाकर कांग्रेस के मनोज रावत को 5 हजार से ज्यादा वोटों से हराकर जीत गई मनोज रावत को 13192 वोट 33.42 मत प्रतिशत के साथ मिले। ऊपर दिए आंकड़ों से पता चलता है कि निर्दलीय प्रत्याशी भले ही न जीत पाए हों लेकिन भाजपा और कांग्रेस की जीत में वो कभी न कभी बाधा जरूर बने हैं। कांग्रेस पार्टी का मंगलौर और बद्रीनाथ की जीत से उपजा आत्मविश्वास उसे केदारनाथ उपचुनाव की हार की ओर ले गया। शायद इन दो उपचुनाव की जीत ने कांग्रेस नेताओं में अहंकार का भाव जगा दिया था।
इसी अहंकार में वो भूल गए कि मंगलौर और बद्रीनाथ उपचुनाव भले ही वो जीते इस जीत के पीछे असल में कांग्रेस की भूमिका कम स्थानीय फैक्टर ज्यादा प्रभावी थे। मंगलौर में जीत का अंतर महज 5 सौ वोटों के आस-पास वहीं बद्रीनाथ में राजेंद्र भंडारी के दलबदल को लोगों ने पसंद नहीं किया। मंगलौर और बद्रीनाथ को छोड़ दें तो उत्तराखण्ड में अमूमन उपचुनाव के परिणाम सत्ताधारी दल के पक्ष में जाते रहे हैं भले ही वो कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की। केदारनाथ में कांग्रेस की पराजय को त्रिभुवन सिंह के 9300 वोट ले आने से जोड़ देना एक सतही आकलन से ज्यादा कुछ नहीं है। कांग्रेस के अपने अंतर्विरोध के भी कई कारण हैं। भले ही पार्टी दावा करे कि उसने एकजुट होकर चुनाव लड़ा लेकिन क्या वाकई में ऐसा था या ये दावे सतही तौर पर एकजुटता दिखाने के लिए थे? शायद कांग्रेस ने अपनी हार की पटकथा उसी दिन लिख दी थी जब ‘केदारनाथ प्रतिष्ठा यात्रा’ की सूची से मनोज रावत का नाम नदारद था। ऐसे में केदारनाथ से दो बार प्रत्याशी रहे और एक बार के विधायक की उपेक्षा से नकारात्मक संदेश जाना ही था। रूद्रप्रयाग में गुटबाजी प्रत्यक्ष रूप से देखी गई। रही सही कसर पर्यवेक्षकों की नियुक्ति और उनके रिपोर्ट भेजने ने पूरी कर दी। पहले पर्यवेक्षक के रूप में भुवन कापड़ी और वीरेंद्र जाती की नियुक्ति की जाती है लेकिन कुछ समय बाद प्रभारी शैलजा के हस्तक्षेप से गणेश गोदियाल और लखपत बुटोला के नाम जोड़े जाते हैं। गणेश गोदियाल के द्वारा पर्यवेक्षकों की रिपोर्ट को सीधे केंद्र को भेज देना भी प्रदेश नेतृत्व को रास नहीं आया इसके विरोध में प्रदेश प्रवक्ता सीधे गणेश गोदियाल पर सवाल उठाते हुए सार्वजनिक बयान देते दिखे। ये सब कहीं पार्टी के अंदर नहीं सार्वजनिक रूप से चल रहा था। ऐसे में एकजुटता की बातें बेमानी हो जाती हैं।
ऐसा नहीं है कि केदारनाथ उपचुनाव के लिए कांग्रेस के पास मुद्दों की कमी थी। लेकिन उसकी प्रचार की नकारात्मक शैली को शायद मतदाताओं ने पसंद नहीं किया। एक निर्दलीय को अपनी पराजय के लिए जिमम्ेदार बताकर कांग्रेस उस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकती कि वो खुद को केदारनाथ के मतदाता के सामने उस विश्वसनीय विकल्प के रूप में क्यों नहीं पेश कर पाई। जिस निर्दलीय को मिले वोटों से जीतने की अपेक्षा रख रही थी। उन 9 हजार मतदाताओं ने उस पर भरोसा न कर निर्दलीय प्रत्याशी पर ज्यादा भरोसा किया। क्योंकि वो 9 हजार मतदाता अगर भाजपा के पक्ष में नहीं था तो वो कांग्रेस के पक्ष में भी नहीं था। कागजों पर गणित बैठाना आसान है उसके लिए महज एक ड्राइंग रूम में टेबल की जरूरत होती है जिस पर आप आंकड़े गढ़ सकते हैं। जब आप बड़े कैनवास पर या कहें जमीनी हकीकत पर जाते हैं तो वहां कागजी गणित गौण हो जाता है।
हालांकि एक उपचुनाव का परिणाम भविष्य के चुनावों की भविष्यवाणी के रूप में तो नहीं देखा जा सकता वो सब उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है। लेकिन क्या ये उपचुनाव कांग्रेस के लिए भविष्य की ओर कुछ इशारा करता है? क्या कांग्रेसी दीवार पर लिखी उस साफ इबारत को पढ़ नहीं पा रहे या फिर पढ़ना नहीं चाहते ‘‘जो साफ कहती है कि कांग्रेस की समस्या उसके अंदर से ही उपजी है और उसका समाधान भी कांग्रेस के अंदर से ही आना है। लेकिन सवाल पहल कौन करेगा? क्योंकि आंकड़ों की बाजीगरी से हार के कारणों पर धुंध तो फैलाई जा सकती है मगर उन आंकड़ों की हकीकत की सच्चाई जमीन पर ही जाकर तलाशी जा सकती है, महज बयानबाजी से नहीं।
बात अपनी-अपनी
कांग्रेस ने असाधारण रूप से एकताबद्ध होकर चुनाव लड़ा। हमसे उम्मीदवार की घोषणा करने में देरी जरूर हुई। भाजपा ने धनशक्ति, पुलिसशक्ति, प्रशासनशक्ति, शराबशक्ति का उपयोग ही नहीं किया, बल्कि कूट रचना करके भाजपा विरोधी वोटों को बांट दिया और जीत चुरा ली। इस चुनाव के परिणाम कांग्रेस के लिए मंथन के कई बिंदु खड़ा करते हैं। साथ-साथ उत्तराखण्ड और केदारखंड के लोगों को सारे चुनाव का व्यापक विवेचन करना चाहिए। हमारा उम्मीदवार एक छोटी-मोटी मानवीय कमजोरी के अलावा सोच, समझ, समर्पण और संघर्ष चारों बिंदुओं में श्रेष्ठ उम्मीदवार था और जिन सवालों को वहां के लोग उठा रहे थे वह उन पर निरंतर संघर्ष करते रहे हैं। केदारनाथ में मनोज रावत और कांग्रेस की हार के साथ ये उत्तराखण्डियत और केदारखण्डियत की भी हार है।
हरीश रावत, पूर्व मुख्यमंत्री उत्तराखण्ड
कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा, लेकिन चुनाव में सत्ता का पूरा दुरुपयोग हुआ। हमारी लड़ाई सत्ता के साथ थी। इस चुनाव में जन विरोध निर्णय के रूप में सामने नहीं आया। सत्तारूढ़ पार्टी ने चुनाव जीतने के लिए सभी हथकंडे अपनाए।
मनोज रावत, कांग्रेस प्रत्याशी, केदारनाथ
जिन लोगों ने निर्दलीय प्रत्याशी को वोट दिलाने के लिए उसके समर्थन में प्रचार किया उनको आत्मवोकल करना चाहिए क्योंकि जनता को वे ऐसा प्रोजेक्शन देते हैं कि भाजपा का शासन एक कुशासन है। भाजपा के शासन में युवाओं के हितों पर कुठाराघात हो रहा है। भाजपा दमनकारी है वहीं दूसरी ओर जो एक प्रत्याशी भाजपा को हराने में सक्षम था आप उसी के लिए गड्ढ़े खोदने चले गए। इसका कहीं न कहीं ये संदेश जाता है कि आप सत्ता के हाथों में खेले हैं। केदारनाथ की जनता का ये दुर्भाग्य है कि उन्होंने एक ऐसी महिला प्रत्याशी को चुना जो लम्बे समय तक भाजपा महिला मोर्चा की प्रदेश अध्यक्ष होने के बावजूद महिलाओं के सरोकारों के लिए कभी खड़ी दिखाई नहीं दी। इस पर केदारनाथ की जनता एक बार जरूर सोचे।
गरिमा महरा दसौनी, प्रदेश प्रवक्ता, उत्तराखण्ड कांग्रेस

