Editorial

मानवाधिकारों का गहराता संकट

मेरी बात

वर्ष 1978 में अमेरिका के तीन नागरिकों ने एक गैर- सरकारी संगठन ‘हेलसिंकी वॉच’ का गठन विश्वभर में मानवाधिकारों की स्थिति सामने लाने के उद्देश्य से किया था। आज यह संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच (#Human rights watch) के नाम से जाना जाता है। इस संगठन को उसके उत्कृष्ट योगदान के लिए 1997 में नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया था। यह संगठन मुख्य रूप से विश्व भर में हो रहे मानवाधिकारों के उल्लंघन, विशेषकर सरकारों द्वारा राज्य सत्ता का दुरुपयोग कर अपने नागरिकों के अधिकारों में कटौती करने, लिंग भेद के प्रकरणों की छानबीन करने, युद्ध में नाबालिगों को इस्तेमाल करने तथा वैश्विक स्तर पर भ्रष्टाचार जैसे संवेदनशील मुद्दों पर अपनी तथ्यपरक रिपोर्ट प्रत्येक वर्ष जारी करता है। इस संगठन का जिक्र इसलिए क्योंकि इसने 11 जनवरी को जारी अपनी ‘वर्ल्ड रिपोर्ट 2024’ में भारत में मानवाधिकारों की स्थिति को लेकर खासी नकारात्मक बातें कही हैं। भारतीय विपक्षी राजनीतिक दल और मानवाधिकार कार्यकर्ता काफी अर्से से वर्तमान सत्ता प्रतिष्ठान पर इस प्रकार के आरोप लगाते आ रहे हैं। अब एक ख्याति प्राप्त अंतरराष्ट्रीय संगठन का इन आरोपों की पुष्टि करना वैश्विक स्तर पर भारत की साख को प्रभावित तो करता ही है, मोदी सरकार का नारा ‘सबका साथ-सबका विश्वास’ की विश्वसनियता पर भी गंभीर सवाल खड़े करता है।

ह्यूमन राइट्स वॉच ने अपनी ताजातरीन रिपोर्ट में मणिपुर में गत् वर्ष मैती-कुकी हिंसा से लेकर भाजपा सांसद और भारतीय कुश्ती संघ के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण सिंह के खिलाफ महिला पहलवानों का आंदोलन तथा जम्मू-कश्मीर के ताजा हालातों का जिक्र करते हुए कहा है कि मानवाधिकारों की रक्षा करने वाले लोकतांत्रिक देश के बतौर भारत का प्रदर्शन खासा निराशाजनक रहा है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में गत् वर्ष मानवाधिकारों के दमन और उत्पीड़न की कई घटनाएं हुई हैं। ऐसी घटनाओं की बाबत इस रिपोर्ट में विस्तार से चर्चा की गई है। विपक्षी नेताओं, पत्रकारों और सरकार के आलोचकों की गिरफ्तारी और कई मामलों में आतंक निरोधी कानूनों का इस्तेमाल, केंद्रीय जांच एजेंसियों के कथित दुरुपयोग का भी जिक्र इस रिपोर्ट में किया गया है। इस संगठन की एक वरिष्ठ अधिकारी मीनाक्षी गांगुली के अनुसार ‘भाजपा सरकार की भेदभाव पूर्ण और विभाजनकारी नीतियों के कारण अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा बढ़ी है, इससे डर का माहौल बना है और सरकार की आलोचना करने वालों में भय पैदा हुआ है।’

रिपोर्ट में बीबीसी के दफ्तरों में गत् वर्ष फरवरी में आयकर विभाग की छापेमारी का जिक्र करते हुए इसे प्रतिशोध की कार्यवाही बताया गया है। स्मरण रहे कि गत् वर्ष बीबीसी न्यूज चैनल द्वारा दो भागों में एक डाक्यूूमेंट्री फिल्म- ‘इंडियाः द मोदी क्वेश्चन’ का प्रसारण किया गया था। यह फिल्म भारत में खासी विवादित रही थी। इसमें गुजरात के मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी की कार्यशैली को मुस्लिम विरोधी बताया गया था। केंद्र सरकार ने आईटी कानून के अंतर्गत इस फिल्म को भारत में प्रतिबंधित कर दिया था। बीबीसी के भारत स्थित दफ्तरों में इस फिल्म के प्रसारण बाद ही छापे पड़े थे। ह्यूमन राइट्स वॉच ने अपनी रिपोर्ट में इसे बदले की कार्यवाही कहा है।

गत् वर्ष जुलाई में हरियाणा के नूंह शहर में हुई हिंसा का भी इस रिपोर्ट में जिक्र किया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि हरियाणा सरकार ने इस हिंसा के लिए मुसलमानों को दोषी मानते हुए एकतरफा कार्यवाही की थी। मणिपुर में मैतई और कुकी समुदायों के बीच कई महीनों तक चली हिंसा की बाबत भी इस रिपोर्ट में विस्तार से चर्चा की गई है। रिपोर्ट में मणिपुर के मुख्यमंत्री एन ़बिरेन सिंह की कार्यशैली पर कठोर टिप्पणी की गई है। इससे पूर्व संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी मणिपुर की स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए वहां हुई हिंसा में महिलाओं और लड़कियों संग यौन हिंसा का विशेष रूप से जिक्र किया था। जम्मू-कश्मीर के हालातों पर भी इस रिपोर्ट में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। बकौल ह्यूमन राइट्स वॉच वहां अभिव्यक्ति की आजादी और आम जनता द्वारा विरोध-प्रदर्शनों पर पाबंदी गंभीर मानवाधिकारों की श्रेणी में आता है। दिसंबर माह में सैन्य बलों द्वारा आतंकी हमले के बाद 9 सिविलियों को पूछताछ के लिए ले जाने और उनमें से तीन की सैन्य हिरासत के दौरान कथित उत्पीड़न चलते मौत की बाबत भी इस रिपोर्ट में चिंता व्यक्त की गई है। भारतीय कुश्ती संघ के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण सिंह पर नामी-गिरामी महिला पहलवानों द्वारा यौन उत्पीड़न के आरोपों का उल्लेख भी इस रिपोर्ट में है। रिपोर्ट में कहा गया है कि केंद्र सरकार ने बृजभूषण सिंह को बचाने की कोशिश की और महिला पहलवानों के साथ दिल्ली पुलिस ने न केवल दुव्यवहार किया बल्कि उनके शांतिपूर्ण प्रदर्शन को भी जबरन खत्म कराया।

यह रिपोर्ट भारत में आम चुनाव से ठीक पहले जारी की गई है। बीते कई वर्षों से भारत में मानवाधिकारों की स्थिति को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आलोचना का शिकार होते रहे हैं। गत् वर्ष उनकी पहली अमेरिकी राजकीय यात्रा के दौरान भी यह मुद्दा वहां की संसद के कुछ सदस्यों ने उठाने का प्रयास किया था। प्रधानमंत्री की इस यात्रा से ठीक पहले अमेरिकी सिनेट के 70 सदस्यों ने राष्ट्रपति जो बाइडन को एक पत्र लिखकर मांग की थी कि राष्ट्रपति भारतीय प्रधानमंत्री के साथ अपनी बातचीत में भारत में मानवाधिकारों के संकट का मुद्दा अवश्य उठाएं। इस पत्र की भाषा बेहद कठोर थी। इसमें कहा गया था-  A series of independent, credible reports reflect troubling signs in India towards the shrinking of political space, the rise of religious intolerence, the targeting of civil society organizations and journalists and growing  restrictions on press freedom and internet access’ प्रधानमंत्री मोदी की कटु आलोचकों में शुमार अमेरिकी सांसद रशीदा तैयब ने मोदी की इस यात्रा का बहिष्कार यह कहते हुए तब किया था कि ‘भारतीय प्रधानमंत्री का अतीत मानवाधिकरों के हन्न,लोकतंत्र विरोधी कार्यवाही, मुसलमानों को निशाने पर रखने और पत्रकारों के उत्पीड़न से भरा हुआ है इसलिए मैं अमेरिकी संसद में उनके संबोधन का बहिष्कार करूंगी।’

हालांकि भारत सरकार इस प्रकार के आरोपों को सिरे से नकारती आई है और विभिन्न वैश्विक मंचों पर उसके द्वारा इस प्रकार के आरोपों को बेबुनियाद करार दिया जाता रहा है लेकिन ऐसे समय में जब भारत एक बड़ी आर्थिक ताकत बन उभर चुका है और जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत को विश्व गुरु बनाने का अपना सपना साकार करने के लिए सतत् प्रयत्नशील हों, अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा भारतीय लोकतंत्र पर अविश्वास व्यक्त करना और भारत में बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों के हनन् की बात करना निःसंदेह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र बतौर हमारी प्रतिष्ठा और लोकतंत्र के स्वास्थ पर प्रतिकूल असर डालता है। यहां यह भी विचारणीय है कि आपातकाल के बाद पहली बार इस प्रकार की बातें तेजी से उठने लगी हैं। मोदी के आलोचक वर्तमान समय को आपातकाल से कहीं ज्यादा घातक करार दे रहे हैं। समाज के एक बड़े तबके का मानना है कि बीते कुछ वर्षों से हम अघोषित आपातकाल के माहौल में जी रहे हैं। लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबसूरती और शक्ति अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का होना है। हमारे मुल्क का हश्र पाकिस्तान सरीखा न होने के पीछे लोकतंत्र की इस शक्ति का होना ही तो है। सत्ता यदि अपनी आलोचना के डर से इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दमन पर उतारू होती है तो इसके नतीजे भयावह हो सकते हैं। प्रधानमंत्री मोदी वर्तमान समय में सबसे लोकप्रिय नेता हैं। उनकी प्रति आम जनता का विश्वास लेकिन तभी बना रह सकता है जब वे जनता जनार्दन के मन की बात को खुले हृदय से सुने, फिर चाहे वह उनके खिलाफ उठ रहे स्वर ही क्यों न हों। हम विश्वगुरु बन सकते हैं लेकिन यह तभी संभव है जब लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति हमारी निष्ठा अक्षृण रहे। हमें याद रखना होगा कि हमारी ताकत हमारे लोकतंत्रिक मूल्य और आदर्श हैं। इनके प्रति यदि हमारी निष्ठा कमजोर हुई तो यह हमारे लिए बेहद आत्मघाती होगा।

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