Editorial

इंदिरा ही भारत है का दौर

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-85

छह मार्च को केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री को दबाव में लेने के लिए जेपी ने संसद घेराव कर दिया। इसी दिन शाम को एक विशाल जनसभा में उन्होंने इंदिरा गांधी से सीधे त्याग पत्र देने की अपील की। बिहार के भ्रष्ट मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर को हटाने और राज्य विधानसभा को भंग करने की मांग से शुरू हुआ आंदोलन अब ‘इंदिरा हटाओ’ में तब्दील हो चला था। जेपी समर्थक गांव-गांव, गली-गली इस नारे को बुलंद करने में जुट गए थे कि- ‘जनता का दिल बोल रहा है, इंदिरा का सिंहासन डोल रहा है।’ इसी दौरान वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता और इंदिरा के पूर्व सहयोगी मोरारजी देसाई 12 मार्च के दिन गुजरात में तत्काल विधानसभा चुनाव कराए जाने की मांग लेकर आमरण- अनशन पर जा बैठे थे। अंततः प्रधानमंत्री को न चाहते हुए भी गुजरात में चुनाव कराए जाने के लिए सहमत होना पड़ा था। मई 1974 में हुए चुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए सुखद नहीं रहे। 12 जून, 1975 को चुनाव नतीजों के साथ -साथ दो अन्य खबरें भी कांग्रेस, विशेषकर प्रधानमंत्री के लिए बड़ा आघात लेकर इसी दिन आई। इंदिरा गांधी के लिए इस दिन की पहली बुरी खबर उनके बेहद करीबी सहयोगी डीपी धर की मृत्यु का समाचार था। धर अपनी मृत्यु के समय सोवियत संघ में भारत के राजदूत थे। इंदिरा सरकार में मंत्री रह चुके धर उसी कथित ‘कश्मीरी माफिया’ का हिस्सा थे जिसकी कमान पीएन हक्सर के हाथों में रहा करती थी। 1971 में पाकिस्तान के दो फाड़ कर बांग्लादेश के गठन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। प्रधानमंत्री के लिए दूसरा खराब समाचार गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे रहे। मोरारजी देसाई और जयप्रकाश नारायण के समर्थकों द्वारा बनाए गए जनता पार्टी गठबंधन ने गुजरात की कुर्सी से कांग्रेस को बेदखल कर दिया था। अभी प्रधानमंत्री इन नतीजों के सदमे से उबरी भी नहीं थी कि इस दिन की सबसे बुरी और सीधे प्रधानमंत्री की सत्ता को चुनौती देने वाली खबर इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से आई। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने 1971 में हुए संसदीय चुनावों में बतौर कांग्रेस प्रत्याशी इंदिरा गांधी को रायबरेली संसदीय सीट से मिली जीत के खिलाफ फैसला देेते हुए उनके निर्वाचन को रद्द कर दिया था। इस चुनाव में संयुक्त समाजवादी पार्टी की तरफ से राजनारायण प्रत्याशी थे जिन्हें इंदिरा गांधी ने एक लाख से अधिक मतों के अंतर से पराजित किया था। राजनारायण बनारस राज परिवार से ताल्लुक रखते थे। आजादी के आंदोलन काल में वे 1934 में समाजवादी कांग्रेस पार्टी से जुड़ गए थे। ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान छात्र कांग्रेस के अध्यक्ष रहते उन्हें 1942 में गिरफ्तार कर लिया गया था। 1945 तक वे जेल में कैद रहे थे। आजादी उपरांत राजनारायण, आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण और डॉ राममनोहर लोहिया के साथ समाजवादी आंदोलन के साथ जुड़े रहे। 1971 में इंदिरा गांधी के हाथों मिली पराजय को राजनारायण ने अदालत में यह कहते हुए चुनौती दे डाली थी कि इंदिरा गांधी ने अपने पद का दुरुपयोग कर और सरकारी तंत्र की मदद से यह चुनाव जीता है। न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने इस याचिका पर अपना निर्णय सुनाते हुए इंदिरा गांधी को इस चुनाव दौरान अपने सरकारी निजी सचिव यशपाल कपूर की सहायता लेने और उत्तर प्रदेश सरकार के कर्मचारियों को अपने प्रचार में शामिल करने का दोषी मानते हुए अयोग्य सांसद घोषित कर दिया। उच्च न्यायालय ने कांग्रेस पार्टी को बीस दिन का समय नए प्रधानमंत्री का चुनाव करने के लिए देकर स्पष्ट कर दिया था कि इंदिरा अब प्रधानमंत्री पद में बने रहने के योग्य नहीं रह गई हैं। यह कांग्रेस और प्रधानमंत्री के लिए भारी सदमा था। निर्णय आने के साथ ही विपक्षी दलों ने एकसुर में प्रधानमंत्री के त्यागपत्र की बात उठानी शुरू कर दी थी। कांग्रेस में हालांकि इस मुद्दे पर कुछेक बड़े नेताओं की राय भी प्रधानमंत्री द्वारा त्याग पत्र दे दिए जाने के पक्ष में थी लेकिन इंदिरा गांधी से सीधे ऐसा कह पाने का साहस किसी ने नहीं दिखाया। संजय गांधी और उनके करीबी कांग्रेसियों ने अब पार्टी की कमान अपने हाथों में लेते हुए प्रधानमंत्री आवास के बाहर प्रायोजित भीड़ इकट्ठी कर ऐसा माहौल बनाना शुरू करा जिससे लगे कि आमजन पूरी ताकत से इंदिरा के समर्थन में है और उन्हें ही देश का नेतृत्व करते देखना चाहता है। ऐसे प्रायोजित जन समूहों को स्वयं प्रधानमंत्री संबोधित करने लगी थी। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ इन सभाओं में पूरी बेशर्मी से कहते-‘इंदिरा ही भारत है, भारत ही इंदिरा है।’ 20 जून 1974 को दिल्ली के बोट हाउस क्लब मैदान में कांग्रेस ने एक विशाल जनसभा आयोजित कर यह संदेश देने का प्रयास किया कि आमजन की निष्ठा आज भी प्रधानमंत्री संग बनी हुई है। देवकांत बरुआ ने इस जनसभा में चापलूसी की नई मिसाल पेश करते हुए कहा था-‘इंदिरा तेरी सुबह की जय, तेरी शाम की जय, तेरी नाम की जय, तेरे काम की जय।’

इंदिरा गांधी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी जिस पर 24 जून, 1974 को न्यायमूर्ति वीआर कृष्णन अÕयर ने अंतरिम आदेश देते हुए उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक तो लगा दी लेकिन साथ ही यह भी निर्णय दिया कि इंदिरा गांधी बतौर प्रधानमंत्री पद पर बनी रह सकती हैं लेकिन उन्हें संसद में वोट देने का अधिकार नहीं होगा। इस निर्णय को कांग्रेस ने प्रधानमंत्री की जीत बतौर प्रचारित किया तो वहीं विपक्षी दलों ने नैतिकता का प्रश्न उठा इंदिरा गांधी से इस्तीफा देने की अपील करी। जयप्रकाश नारायण ने दिल्ली के रामलीला मैदान में दिन 25 जून को एक विशाल जनसभा आयोजित करने की घोषणा कर प्रधानमंत्री की चिंताएं बढ़ाने का काम कर दिया था। केंद्र सरकार की खुफिया एजेंसियों ंने उन्हें जानकारी दी थी कि 25 की रैली में जेपी पुलिस और सेना से विद्रोह करने की अपील कर सकते हैं। मोरारजी देसाई ने भी संकेत दिए थे कि विपक्षी दल प्रधानमंत्री के आवास को घेर उन्हें नजरबंद करने की योजना बना रहा है ताकि उन पर त्याग पत्र देने का दबाव बनाया जा सके। मोरारजी का मानना था कि इंदिरा इस नजरबंदी को झेल नहीं पाएंगी और त्यागपत्र देने के लिए विवश हो जाएंगी।’ विपक्षी दलों की योजना से चिंतित प्रधानमंत्री ने 25 जून की सुबह अपने करीबी सलाहकार और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर को तलब कर उनसे कहा-सिद्धार्थ हमें ऐसा नहीं होने देना होगा। मुझे भारत एक बच्चे-सा महसूस होता है और जैसा हम कई बार बच्चे को उठा हिलाते-डुलाते हैं, हमें भारत को भी हिलाना होगा। आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी के संयुक्त सचिव रहे बिशन टंडन का लेकिन मानना है कि प्रधानमंत्री ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय बाद ही हर कीमत पर सत्ता में बने रहने का मन बना लिया था। टंडन ने अपनी डायरी में 12 जून 1975 के घटनाक्रम पर टिप्पणी करते हुए लिखा- ‘ . . .यदि मैं प्रधानमंत्री को समझ सकता हूं तो वे और चाहे कुछ करें, कुर्सी कभी नहीं छोड़ेंगी। अपने को सत्ता में रखने के लिए वे गलत से गलत काम करने में भी नहीं हिचकिचाएंगी।’

सिद्धार्थ शंकर कानून के विशेषज्ञ थे। उन्होंने प्रधानमंत्री को सलाह दी कि संविधान के अनुच्छेद 352 को आधार बना केंद्र सरकार देश में आपातकाल लागू कर सकती है। अनुच्छेद 352 में कहा गया है- ‘यदि राष्ट्रपति संतुष्ट हो जाता है कि गंभीर आपात विद्यमान हैं जिसमें युद्ध या बड़ा आक्रमण या सशस्त्र विरोध के कारण भारत या उसके राज्य क्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा संकट में है तो वह उद्घोषणा में विनिर्दिष्ट किया जाए, इस आशय (आपातकाल) की घोषणा कर सकेगा।’

सिद्धार्थ शंकर ने बाहरी और आंतरिक संकट और खतरे की व्याख्या करते हुए प्रधानमंत्री को समझाया था कि 1971 में बांग्लादेश गठन के समय घोषित आपातकाल बाहरी खतरे की आशंका चलते लगाया गया था, अब लेकिन खतरा देश के भीतर से है, इसलिए पूर्ण आपातकाल घोषित किया जा सकता है। आपातकाल लागू के पीछे केंद्र सरकार के हाथों असीमित अधिकार पाने की लालसा थी। संविधान के अनुच्छेद 353 में स्पष्ट कहा गया है कि आपातकाल के दौरान उन विषयों को जो सामान्य स्थितियों में राज्य सरकारों के अधीन होते हैं, केंद्र सरकार अपने अधीन कर सकती है। सिद्धार्थ शंकर ने प्रधानमंत्री की सारी दुविधाओं को समाप्त करने का काम कर डाला। जयप्रकाश के आह्नान पर 25 जून की शाम दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में भारी समूह एकत्रित हो गया था। जयप्रकाश के साथ इस रैली को जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी, इंदिरा के पूर्व सहयोगी मोरारजी देसाई और कांग्रेस के युवा नेता चंद्रशेखर ने भी संबोधित किया था। जेपी ने रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता का पाठ करते हुए इंदिरा गांधी से तत्काल इस्तीफा देने की मांग कर डाली। उन्होंने कहा- ‘सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है, दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’

जेपी ने सशस्त्र सुरक्षा बलों और पुलिस से सरकार के गलत आदेश न मानने की अपील तक इस रैली में कर डाली। उन्होंने सरकार को चुनौती देते हुए कहा कि यदि सरकार चाहे तो उन पर देशद्रोह का मुकदमा चला सकती है। सरकारी कर्मचारियों से जेपी ने अपने कर्तव्य समझने की अपील करी और छात्रों से कहा कि वे शिक्षण सत्र का बहिष्कार कर जेल जाने की तैयारी करें। जेपी के ओजस्वी भाषण से ओत-प्रोत जनसमूह ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ के उद्घोष करने लगा था। इंदिरा गांधी दिल्ली के इस ऐतिहासिक मैदान का महत्व भली-भांति समझती थी। इसी मैदान में उनके पिता की मृत्यु पश्चात् एक विशाल शोकसभा आयोजित की गई थी। इसी मैदान में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की उपस्थिति में 27 जनवरी, 1963 में स्वर कोकिला लता मंगेश्कर ने ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ गीत गाया था। इस गीत को सुन चीन के हाथों मिली शर्मनाक पराजय से दुखी नेहरू की आंखों में आंसू आ गए थे। नेहरू ने उनसे तब कहा था ‘लता तुमने आज मुझे रूला दिया।’ दो साल बाद 1965 में इसी मैदान में एक विशाल जनसमूह को संबोधित करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान-जय किसान’ का नारा दिया था।’

क्रमशः

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