पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-126

देवीलाल की बर्खास्तगी के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपनी राजनीतिक ताकत को बढ़ाने और अपनी सरकार का अस्तित्व बचाए रखने के लिए एक ऐसा दांव चला, जिससे भले ही न तो उनकी सरकार बच पाई और न ही उनकी राजनीति, लेकिन इस अकेले एक दांव ने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा को बदल डाला। यह दांव था- ‘सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था लागू करना। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अप्रैल, 1987 में राजीव गांधी के साथ गम्भीर मतभेद उभरने के बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा तो दिया था, लेकिन कांग्रेस पार्टी में वे बने रहे थे। उस दौरान गैर- भाजपाई विपक्षी दलों ने उन्हें अपने साथ लाने की भरपूर कोशिश की थी, किंतु वे किसी भी विपक्षी दल में शामिल होने के लिए राजी नहीं हुए थे। जनता दल के नेता जयपाल रेड्डी के अनुसार, उन्होंने वी.पी. सिंह से एक बार इस बाबत पूछा था कि क्योंकर राजीव गांधी के साथ मतभेद के बाद भी उन्होंने कांग्रेस नहीं छोड़ी थी। वी.पी. सिंह का उत्तर था- ‘यदि मैं विपक्ष में शामिल हो जाता हूं, तो मैं उन सभी सामाजिक समूहों से दूर हो जाऊंगा, जिनके साथ मेरी निकटता रही है।’

सामाजिक समूहों से वी.पी. सिंह का तात्पर्य उन जातियों से था, जो मुख्य रूप से कांग्रेस का वोट बैंक रहती आई थीं। इनमें मुख्य रूप से अनुसूचित जातियां, मुसलमान और स्वर्ण जातियां शामिल थीं। अनुसूचित जातियों के लिए संविधान में पहले से ही आरक्षण की व्यवस्था लागू थी। वी.पी. सिंह, जो स्वयं उच्च स्वर्ण जाति क्षत्रीय से आते थे, ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की दशकों पुरानी मांग को पूरा करने का फैसला किया। यह फैसला था- ‘1979 में तत्कालीन जनता पार्टी सरकार द्वारा सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ों को चित्रित करने और उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू करने के उद्देश्य से गठित मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का।’ बिहार के मुख्यमंत्री रहे बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता वाले इस आयोग ने विभिन्न धर्मों और पंथों की 3743 जातियों को सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक आधार पर पिछड़ा वर्ग घोषित करते हुए इनके लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश 1980 में सरकार को सौंपी थी। देवीलाल की बर्खास्तगी के बाद जनता दल टूटने की कगार पर जा पहुंचा था। वी.पी. सिंह सरकार की कथित किसान विरोधी नीतियों के खिलाफ देवीलाल ने 9 अगस्त को दिल्ली के बोट क्लब में विशाल किसान रैली के आयोजन की घोषणा कर वी.पी. सिंह को खासा विचलित करने का काम किया था। मंडल आयोग की रिपोर्ट में देश की कुल जनसंख्या में से आधे से अधिक (52.4 प्रतिशत) पिछड़ी जातियां चिन्हित की गई थीं, लेकिन चूंकि उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय मुताबिक कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता था, इसलिए मंडल आयोग ने इन पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की थी। आजादी के बाद से ही अनुसूचित जातियों के लिए 15 प्रतिशत और अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण लागू था।

उच्चतम न्यायालय ने 1963 में ‘एम.आर. बालाजी बनाम मैसूर’ राज्य मामले में अपना निर्णय सुनाते हुए किसी भी प्रकार के आरक्षण को 50 प्रतिशत से अधिक रखने पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस मुकदमे की बुनियाद में मैसूर राज्य (अब कर्नाटक) सरकार का 26 जुलाई, 1958 में लिया गया एक निर्णय था, जिसके अनुसार ब्राह्माणों को छोड़कर अन्य सभी जातियों को शैक्षणिक एवं सामाजिक स्तर पर पिछड़ा घोषित करते हुए राज्य की शिक्षण संस्थाओं में 75 प्रतिशत सीटें इस वर्ग के लिए आवंटित कर दी गई थीं। 1961 में इस आरक्षण को 75 प्रतिशत से घटाकर 68 प्रतिशत कर दिया गया था। उच्चतम न्यायालय ने मैसूर राज्य (अब कर्नाटक) की इस आरक्षण नीति पर अपना फैसला सुनाते हुए किसी भी प्रकार के आरक्षण को 50 प्रतिशत से अधिक न होने का निर्देश दिया था।

विश्वनाथ प्रताप सिंह ने देवीलाल की प्रस्तावित किसान रैली को विफल करने और खुद के लिए एक विशाल प्रतिबद्ध वोट बैंक तैयार करने के इरादे से सरकारी मालखाने में धूल फांक रही मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने का फैसला ले लिया। 7 अगस्त, 1990 को संसद में प्रधानमंत्री ने इसकी औपचारिक घोषणा की और 13 अगस्त को इस बाबत सरकारी अध्यादेश जारी कर दिया गया था। संसद में मंडल आयोग लागू किए जाने का असर देवीलाल की रैली पर स्पष्ट नजर आया और वे जनता दल को तात्कालिक तौर पर विभाजित कर पाने में सफल नहीं हुए, लेकिन एक नई समस्या वी.पी. सिंह सरकार के समक्ष आ खड़ी हुई। यह समस्या थी, मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने के खिलाफ उच्च कहलाई जाने वाली जातियों का आंदोलन, जिसने शीघ्र ही पूरे देश को अपनी गिरफ्त में ले लिया। केंद्र सरकार के इस फैसले से नाराज छात्रों ने शिक्षण संस्थानों का बहिष्कार करना और चक्का जाम का आह्वान कर अपने प्रतिरोध को विस्तार देने का काम कर दिखाया, लेकिन वी.पी. सिंह अपने फैसले पर अडिंग रहे। 19 सितम्बर, 1990 के दिन दिल्ली विश्वविद्यालय के एक छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह करने का प्रयास कर इस आंदोलन को बेहद हिंसक बना डाला। 65 प्रतिशत जल चुके राजीव की जान हालांकि बच गई और वह मंडल विरोधी आंदोलन का चेहरा बनकर उभरा। उसके आत्मदाह के प्रयास ने वी.पी. सिंह की छवि को मध्यम वर्ग की निगाहों में खासा गिरा डाला। (65 प्रतिशत जल जाने के कारण यह नवयुवक अगले कई बरसों तक जीवन-मृत्यु के बीच संघर्ष करता रहा। वर्ष 2004 में अंततः उसकी मृत्यु हो गई थी।)

3 अक्टूबर, 1990 को उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार के इस निर्णय पर रोक लगाकर मंडल विरोधी आंदोलन को शांत करने का काम किया। उच्चतम न्यायालय के इस फैसले के चलते वी.पी. सिंह जिस नए वोट बैंक का निर्माण करने चले थे, वह वोट बैंक- अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत बन नहीं पाया। नतीजा रहा 1991 में हुए मध्यावधि चुनावों में जनता दल की हार।

वी.पी. सिंह के घोर विरोधी और जनता दल के नेता चंद्रशेखर अब खुलकर वी.पी. सिंह सरकार का तख्ता पलटने की बिसात बिछाने लगे थे। उन्होंने दूसरे बागी नेता चौधरी देवीलाल के साथ एक बार फिर से हाथ मिला लिया था। 30 दिसम्बर, 1990 को राष्ट्रीय मोर्चा के सांसदों की एक बैठक में चंद्रशेखर के समर्थकों, जिनका नेतृत्व यशवन्त सिंहा कर रहे थे, ने वी.पी. सिंह के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाकर उन्हें संसदीय दल के नेता पद से हटाने का प्रयास किया, लेकिन वे सफल नहीं हो पाए। जनता दल के अध्यक्ष एस.आर. बोम्मई ने चंद्रशेखर के 22 लोकसभा और 7 राज्यसभा सांसद समर्थकों को पार्टी से निष्कासित कर राष्ट्रीय मोर्चा गठबंधन, विशेषकर जनता दल के भीतर चल रहे सत्ता संघर्ष को सार्वजनिक करने का काम कर दिखाया। अब वी.पी. सिंह सरकार पूरी तरह बाहर से समर्थन दे रहे वामपंथी दलों और भाजपा के रहमोकरम पर निर्भर हो गई थी। वामपंथी दलों के साथ वी.पी. सिंह का तालमेल ठीक था। संकट भारतीय जनता पार्टी बनने लगी थी, जिसने अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण को लेकर अब अपनी रणनीति और राजनीति तेज करनी शुरू कर दी थी। पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने जून, 1989 में पालमपुर (हिमाचल प्रदेश) में आयोजित अपनी बैठक में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित कर विश्व हिंदू परिषद् द्वारा अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण को अपना पूरा समर्थन दिए जाने का ऐलान किया था। लालकृष्ण आडवाणी तब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। दिसम्बर, 1989 में हुए आम चुनाव में पहली बार भाजपा ने राम मंदिर के निर्माण को अपने चुनावी घोषणा-पत्र में स्थान दिया था। वी.पी. सिंह सरकार के गठन के बाद कुछ अर्से तक भाजपा ने इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया था। बकौल देबाशीष मुखर्जी- ‘1989 के मध्य में अपनी पालमपुर राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भाजपा ने विवादित स्थल पर विश्व हिंदू परिषद् द्वारा नए राम मंदिर के निर्माण के बगैर न्यायालय का फैसला शुरू किए जाने के संकल्प को अपना समर्थन देने की बात कही थी।

नवम्बर, 1989 में चुनाव  प्रचार के दौरान भाजपा ने इस मुद्दे को जमकर उठाया और इसके नाम पर वोट हासिल किए, लेकिन वी.पी. सिंह की सरकार बनने के बाद भाजपा ने इस मुद्दे पर चर्चा करनी बंद कर दी। वी.पी. सिंह कहते हैं कि जब कभी भी मैंने अयोध्या मुद्दे पर भाजपा नेताओं से बात करनी चाहती, तो मुझे कह दिया गया कि यह विश्व हिंदू परिषद् का मसला है, आप उनसे ही बात करें। मुझे भाजपा ने इस मुद्दे पर कोई सहायता नहीं की।’

जून, 1990 के बाद यकायक ही भाजपा राम मंदिर के निर्माण को लेकर अति सक्रिय हो उठी थी। जनता दल और राष्ट्रीय मोर्चा में चल रहे घमासान ने सम्भवतः भाजपा नेतृत्व को आगाह कर दिया था कि यह सरकार कभी भी गिर सकती है और मध्यावधि चुनाव हो सकते हैं। मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने का फैसला भी भाजपा को रास नहीं आया था। उसके समक्ष अपने कोर वोट बैंक को बचाए रखने का संकट मंडल के चलते आ खड़ा हुआ था। नए सामाजिक समीकरणों को ध्वस्त करने के उद्देश्य से मंडल की काट के लिए भाजपा नेतृत्व ने कमंडल की राजनीति को तेज करने का निर्णय लेते हुए राम मंदिर के निर्माण के लिए पूरे देश में लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में ‘राम रथयात्र’ निकालने का फैसला किया। दस हजार किलोमीटर की इस रथयात्र की शुरुआत जनसंघ के नेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जन्मशताब्दी 25 सितम्बर, 1990 के दिन गुजरात के सोमनाथ मंदिर से हुई। यात्रा ‘उत्तेजक धार्मिक उन्माद’ के साथ आरम्भ हुई। जैसे-जैसे यह यात्र आगे बढ़ी, देशभर में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ने लगा था। आडवाणी का रथ प्रतिदिन लगभग 300 किलोमीटर चलता और आडवाणी प्रतिदिन 6 स्थानों पर रैलियों को सम्बोधित कर उग्र हिंदुत्व को धार देने का काम करते थे। गुजरात में उन्होंने ऐसी लगभग 50 सभाओं को सम्बोधित किया था। उनके भाषणों का असर हिंदुओं पर खूब गहरा दिखने लगा था। एक गांव जैतपुर नवागढ़ में तो स्थानीय युवाओं ने उन्हें एक बर्तन भरकर अपना खून भेंट कर राम मंदिर के निर्माण में अपनी सहभागिता का वचन दिया था। ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ का नारा इस रथयात्र के दौरान पूरे देश में गूंजने लगा था। वरिष्ठ पत्रकार नलिन वर्मा के अनुसार- ‘मैं उस समय हिंदुस्तान टाइम्स में एक युवा रिपोर्टर था, मुझे बिहार और उसके कुछ हिस्सों में धनुष-बाण लिए राम की रंगीन तस्वीर से सजी एक टोयोटा एसयूवी में आडवाणी की यात्रा को कवर करने का काम सौंपा गया था। उनका रथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और विश्व हिंदू परिषद् (वीएचपी) के स्वयंसेवकों से भरी कई अन्य खुली छत वाली जीपों और ट्रकों के साथ एक काफिले में चला, जो समवेत स्वर में  ‘जय श्रीराम’ का नारा लगा रहे थे।

क्रमशः 

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