पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-118
वैश्विक स्तर पर अपनी मजबूत छाप छोड़ने में तो राजीव सफल हो रहे थे, लेकिन देश के भीतर उनकी और उनके नेतृत्व वाली सरकार भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोपों की जद में आकर लड़खड़ाने लगी थी। प्रेस के एक बड़े वर्ग द्वारा निशाने पर रखे जाने से व्यथित और क्रोधित राजीव ने 1989 के अंत में एक ऐसा कानून संसद में पेश कर दिया, जिसके चलते उन्हें राहत के बजाय चौतरफा निंदा का शिकार होना पड़ा। यह विधेयक प्रेस की स्वतंत्रता को रोकने के उद्देश्य से लाया गया था, जिसमें यह व्यवस्था की गई थी कि आपत्तिजनक और तथ्यहीन समाचार प्रकाशित किए जाने पर सम्बंधित समाचार-पत्र के सम्पादक एवं संस्थान के मालिकों को जेल भेजा जा सकता है। लोकसभा ने तुरत-फुरत इस कानून को अपनी सहमति भी दे डाली थी। राज्यसभा में इस विधेयक पर बहस के दौरान पत्रकारों और सम्पादकों द्वारा इसका भारी विरोध किया गया। अखबारों ने हड़ताल पर चले जाने का ऐलान कर राजीव सरकार पर बड़ा दबाव बना डाला। अंग्रेजी दैनिक ‘द स्टे्टसमैन’ के प्रबंध सम्पादक ने कड़े शब्दों में इस कानून की आलोचना करते हुए कहा था- ‘इस विधेयक का उद्देश्य भ्रष्ट लोगों के उस समूह को बचाना भर है, जिनके कारनामों को प्रेस इन दिनों सामने लाने का काम कर रहा है…इरादा प्रेस को डराने का है। ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ के सम्पादक अरुण शौरी ने भी इस कानून के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करते हुए कहा था- ‘हम इसका संसद में विरोध करेंगे। हम प्रेस के जरिए भी इसका विरोध करेंगे। हम अदालतों में भी इसका विरोध करेंगे। इस विरोध के जरिए ही हम जनता को भी इसकी बाबत शिक्षित करने का काम करेंगे।’
भारी दबाव के चलते राजीव सरकार ने स्वयं ही इस कानून को वापस लेने का निर्णय ले लिया था।
देश के भीतर राजीव गांधी की छवि भले ही धूमिल होने लगी थी, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस युवा भारतीय नेता का कद बढ़ रहा था। उनकी वैश्विक छवि को और ज्यादा चमकाने का काम दिसम्बर, 1988 – जनवरी, 1989 में उनकी चीन यात्रा ने कर दिखाया था। दिसम्बर, 1988 के अंतिम सप्ताह में राजीव चीन की राजकीय यात्रा पर गए। चीन के साथ युद्ध के पश्चात् यह किसी भी प्रधानमंत्री की पहली यात्रा थी। 34 बरस पूर्व जवाहरलाल नेहरू की चीन यात्रा के बाद दोनों देशों के मध्य प्रधानमंत्री के स्तर की कोई यात्रा नहीं हुई थी, जिसके चलते राजीव के इस चीन दौरे को तब खासा महत्वपूर्ण करार दिया गया था। चीन के शीर्ष नेता 84 वर्ष वर्षीय देंग शियाओ पिंग के साथ राजीव की मुलाकात बेहद सौहार्दपूर्ण माहौल में हुई। देंग ने राजीव को ‘मेरे युवा दोस्त’ कहकर पुकारा और कहा- ‘आप युवा हैं, आप ही भविष्य हैं।’ इस यात्रा के दौरान दोनों पक्षों ने सीमा विवाद के मुद्दे पर खामोशी बनाए रखी एवं अन्य विवादित मुद्दों को भी वार्ता का हिस्सा नहीं बनने दिया गया। राजीव ने बीजिंग के तियानानमेन चौक में लोकतंत्र समर्थक चीनी युवाओं के नरसंहार पर खामोशी अख्तियार कर चीन सरकार के इस अत्याचार को एक तरह से अपना अघोषित समर्थन देकर मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत विश्वभर के संगठनों की नाराजगी मोल लेने का काम किया था। यह नरसंहार उनकी चीन यात्रा के छह माह पूर्व हुआ था, जिसमें चीनी सेना के हाथों कई हजार लोकतंत्र के समर्थक मार डाले गए थे। बकौल निकोलस न्यूजेंट- ‘राजीव बीजिंग के तियानानमेन चौक पर लोकतंत्र के समर्थक प्रदर्शनकारियों के नरसंहार की निंदा करने में विफल रहे। तब इसकी तुलना 1956 में हंगरी के विद्रोह के सोवियत दमन की निंदा करने में नेहरू की विफलता और 1968 में जब सोवियत सेना ने चेकोस्लोवाकिया पर हमला किया था, तब उनकी मां (इंदिरा गांधी) द्वारा उसका विरोध न किए जाने से की गई थी। शायद राजीव का मानना था कि ऐसा करने से चीन के साथ सुधर रहे सम्बंधों की गति खतरे में पड़ जाएगी। चीन के साथ संग सम्बंध सुधारने का प्रयास राजीव सरकार की महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक था।’
राजीव की चीन यात्रा ने दोनों देशों के मध्य बेहद सर्द हो चुके सम्बंधों को दुरुस्त करने का काम किया था। उनकी यह यात्रा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का केंद्र बनी थी। 1991 में राजीव की दुखद हत्या के पश्चात् बीजिंग विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्रोफेसर जिन डिंगान ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखा था- ‘चीन के नागरिकों के लिए राजीव गांधी की इतनी दुखद मृत्यु एक सदमे के समान है। वे बहुत युवा थे और भारत तथा विश्वभर के लिए अभी उन्हें बहुत काम करना था। उन्होंने अपने जीवनकाल में भारत और चीन के मध्य मित्रता स्थापित करने में शानदार योगदान दिया। आइए, उनकी याद में दोनों देशों के बीच दोस्ती को बढ़ावा देने के लिए हाथ-से-हाथ मिलाकर आगे बढें।’
आम चुनाव नजदीक आते-आते विपक्षी दलों ने वी.पी. सिंह के नेतृत्व में पहले सितम्बर, 1988 में एक ‘नेशनल फ्रंट’ नाम से संयुक्त मोर्चा गठित किया और अक्टूबर, 1988 में जनता पार्टी से टूटकर अलग हुए दलों ने एक बार फिर से एकजुट होकर नया राजनीतिक दल ‘जनता दल’ गठित कर वी.पी. सिंह को उसका राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिया था।
1989 आम चुनाव का वर्ष था। राजीव गांधी की स्वच्छ छवि बोफोर्स तोप सौदे में कथित दलाली व उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार के कई अन्य मामलों के चलते धूमिल हो चली थी तो वी.पी. सिंह गरीबों के मसीहा और बेहद ईमानदार राजनेता के तौर पर अपनी छवि चमकाने में सफल होने लगे थे। जुलाई 1989 में विपक्षी दलों के सौ सांसदों ने राजीव सरकार पर बोफोर्स तोप सौदे की निष्पक्ष जांच न कराने और इस प्रकरण पर भारत के महालेखाकार (कैग) की रिपोर्ट को आधार बनाकर संसद से इस्तीफा देने की घोषणा कर एक नया राजनीतिक संकट राजीव के समक्ष खड़ा कर दिया। वी.पी. सिंह ने राजीव सरकार को घेरने की इस राजनीति में मुख्य भूमिका अदा की थी। कांग्रेस के खिलाफ पहली बार ऐसी विपक्षी एकता देखने को मिली थी। दक्षिणपंथी, समाजवादी और वामपंथी दलों का एक होना कांग्रेस के खिलाफ जबर्दस्त माहौल बना पाने में सफल रहा था। देशभर में तब नारा गूंजने लगा- ‘बोफोर्स चोर, कमीशनखोर, राजीव गांधी गद्दी छोड़।’
एक तरफ कांग्रेस-विरोधी राजनीतिक दलों के बीच एकजुटता में तेजी आने लगी थी, तो दूसरी तरफ भारतीय कॉरपोरेट जगत में भी इस राजनीति से दूर खासा अजीबो-गरीब खेल खेला जा रहा था। बतौर वित्तमंत्री वी.पी. सिंह के निशाने पर रहे औद्योगिक समूह रिलायंस और उसके प्रतिद्वंद्वी औद्योगिक घराने बॉम्बे डाइंग की प्रतिस्पर्धा अब इन दो समूहों के मालिकों के मध्य निजी लड़ाई में बदलकर अपराध की दुनिया में दस्तक देने लगी थी। जुलाई, 1989 में बॉम्बे डाइंग के मालिक नुस्ली वाडिया की हत्या की साजिश रचने के आरोप में बम्बई (अब मुम्बई) पुलिस ने रिलायंस समूह के एक वरिष्ठ अधिकारी कीर्ति अम्बानी को गिरफ्तार कर आर्थिक और राजनीतिक जगत में भारी हलचल पैदा करने का काम कर दिखाया। मुम्बई पुलिस के अनुसार, कीर्ति अम्बानी ने नुस्ली वाडिया की हत्या कराने के लिए दो भाड़े के हत्यारों को ‘सुपारी’ दी थी। अम्बानी समूह पर इस प्रकार के आरोप पहले भी लगते रहे थे। 1982 में रिलायंस के प्रतिद्वंद्वी कपड़ा व्यापारी ‘ओर्के समूह’ के पंकज मेहरा पर बम्बई (अब मुम्बई) के निकट जानलेवा हमला हुआ था। 1986 में धीरूभाई अम्बानी के कटु आलोचक और ऑल इंडिया क्रीम्पर्स एसोशिएशन के अध्यक्ष जमनादास मुर्जानी पर अज्ञात हमलावरों ने तलवार से हमला किया था।’
कीर्ति अम्बानी की गिरफ्रतारी के तुरंत बाद केंद्र सरकार ने यह मामला सीबीआई के हवाले कर दिया। ऐसा किए जाने के पीछे कारण केंद्र सरकार द्वारा रिलायंस समूह को बचाने की मंशा का होना था। ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ समूह के एस- गुरुमूर्ति अनुसार- ‘इस देश में अम्बानी अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें यह विकल्प उपलब्ध है कि कौन-सी जांच एजेंसी उनके खिलाफ मामलों की जांच करे, इसका चुनाव वे स्वयं कर सकते हैं। कोई भी समझदार सरकार इस हद तक (किसी को बचाने के लिए) नहीं जा सकती है। मुझे विश्वास हो चला है कि ऐसे आपराधिक कृत्य को दबाने के लिए कोई न कोई सरकार को ब्लैकमेल कर रहा है।’
इस मामले का सच आज तक सामने नहीं आ पाया है और यह मुकदमा बीते 34 बरसों से अदालतों में घिसट-सिसक रहा है। इस साजिश के मुख्य आरोपी कीर्ति अम्बानी की इस दौरान 2017 में मृत्यु भी हो गई है।
नवम्बर, 1989 में आम चुनाव से ठीक पहले देशभर में साम्प्रदायिक तनाव तेजी से फैलने लगा था। उत्तरी भारत में, विशेष रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठन विश्व हिंदू परिषद् और बजरंग दल ने अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के नाम पर धार्मिक ध्रुवीकरण तेज कर दिया था। उद्देश्य था- भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में हिंदू मतदाता को आकर्षित करना। ध्रुवीकरण के इस खेल को राम मंदिर निर्माण के लिए देशभर से ईंटों को इकट्ठा किए जाने की रणनीति बनाकर खेला गया। इन ईंटों को ‘रामशिला’ का नाम दिया गया था। बिहार के भागलपुर में 24 अक्टूबर, 1989 के दिन इन ‘रामशिलाओं’ को लेकर एक विशाल जुलूस ने शहर के मुस्लिम बाहुल्य इलाके तातरपुर में प्रवेश किया। जिला पुलिस अधीक्षक के.एस. द्विवेदी के साथ भारी पुलिस बल इस जुलूस के साथ चल रहा था। तातरपुर पहुंचकर जुलूस में शामिल भीड़ ने उत्तेजक नारेबाजी शुरू कर दी। ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान, मुल्ला भागो पाकिस्तान’ और ‘बाबर की औलादों, भागो पाकिस्तान या कब्रिस्तान’ सरीखे जहरीले साम्प्रदायिक नारों का जवाब मुस्लिम पक्ष ने जुलूस पर पत्थरबाजी और देसी बमों के धमाके कर दिया, जिससे पूरे इलाके में दंगे भड़क उठे थे। हालात इस कदर बिगड़े कि पूरे इलाके को सेना के हवाले करना पड़ा था। इन दंगों में 1000 से अधिक लोग मारे गए, जिनमें से 900 मुसलमान थे। वजाहत हबीबुल्लाह ने अपनी पुस्तक में इन दंगों की बाबत लोमहर्षक जानकारी साझा की है- ‘26 अक्टूबर तक सेना को तैनात कर दिया गया था, किंतु दंगे दो महीने तक जारी रहे। जम्मू-कश्मीर लाइट व इंफेंट्री रेजिमेंट के मेजर जी.पी.एस. विर्क चंदेरी और राजपुर इलाके का निरीक्षण करने जब 27 अक्टूबर को चंदेरी पहुंचे तो उन्हें एक तालाब के निकट 125 बेहद डरे हुए मुसलमान एक इमारत में पनाह लिए मिले। मेजर विर्क ने उनकी सुरक्षा के लिए स्थानीय पुलिस को तैनात किया और इन लोगों से वादा किया कि अगली सुबह वे फौज की टुकड़ी लेकर आएंगे। अगले दिन जब प्रातः 9ः30 बजे मेजर विर्क सेना की टुकड़ी के साथ वहां पहुंचे तो उन्हें वह इमारत खाली मिली। तालाब के निकट मल्लिका बानो नामक एकमात्र जीवित महिला पाई गई, जिसकी एक टांग काट दी गई थी। मेजर विर्क ने 61 सडे़-गले शव तालाब से बरामद किए।’
भागलपुर कांड की जांच के लिए बने जांच आयोग के तीन सदस्यों में से दो ने पांच बरस तक इस मामले की पड़ताल के बाद वहां के तत्कालीन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के.एस. द्विवेदी को इन दंगों के लिए जिम्मेदार करार दिया था, लेकिन तीसरे सदस्य ने अन्य दो सदस्यों से ठीक उलट रिपोर्ट जारी करते हुए इन दंगों का इल्जाम पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई पर डालते हुए स्थानीय प्रशासन को पूरी तरह से पाक-साफ करार दिया। दंगों में आरोपी बनाए गए 10 आरोपियों को 16 बरस बाद वर्ष 2005 में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। इन आरोपियों में एक भी पुलिसकर्मी शामिल नहीं था। 2018 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस कांड के खलनायक बनकर उभरे आईपीएस अधिकारी के.एस. द्विवेदी को राज्य पुलिस बल का मुखिया बनाकर न्याय की आस को पूरी तरह समाप्त करने का काम किया था।
क्रमशः

