Uttarakhand

आस्था और प्रकृति का अलौकिक संसार-1

उत्तराखण्ड एक आध्यात्मिक खोज-4

  •           श्वेता मासीवाल
    सामाजिक कार्यकर्ता
आपने कई स्थानों के नाम सुने होंगे जैसे ‘पाताल भैरवी’, ‘पाताल दुर्ग’ और जिस अद्भुत दिव्य स्थान का इस बार मानसिक रमण हम करेंगे वह है ‘पाताल भुवनेश्वर गुफा’ जो उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जनपद के गंगोलीहाट के निकट स्थित है। मैं जिस वयस में वहां गई थी उसमें वैसे भी दुनिया विचित्र लगती है। एक संकरा सा रास्ता और धरती से नब्बे फीट नीचे स्थित है ये अद्भुत गुफा जो कई गुफाओं का समूह है। पहले तो लगा ऐसा सम्भव ही नहीं है कि वहां की कलाकृतियां मानव निर्मित हों, फिर सहज भाव जगा कि जिस परमशक्ति  ने मानव का ही सृजन किया हो उसके लिए क्या असम्भव

हिंदू धर्म में संसार का वर्गीकरण कई दृष्टिकोणों से किया गया है। मुख्य रूप से भौतिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक आधार पर। भौतिक को ‘चर और अचर (Living and Non-living),  ‘पंच महाभूत’ जिसमें संसार को पांच तत्वों-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना हुआ माना गया है और तीसरा है ‘त्रिलोक’ जिसमें भूलोक के रूप में भौतिक संसार है, जहां हम वास करते हैं, स्वर्ग लोक, जहां देवताओं का वास है और पाताल लोक। इसी प्रकार आध्यात्मिक वर्गीकरण में ‘माया और ब्रह्मा’ तथा ‘सत्व’, ‘रजस’ और ‘तमस’ का वर्णन है। ‘उत्तराखण्ड एक आध्यात्मिक खोज’ की यात्रा के माहात्मय को समझने के लिए त्रैलोक्य को समझना आवश्यक है। विभिन्न हिंदू ग्रंथों में सामान्यतः त्रैलोक्य का वर्गीकरण कृतक, महर्लाेक और अकृतक त्रैलोक्य में किया गया है।

कृतक त्रैलोक्य नश्वर त्रैलोक्य है, जो नष्ट हो जाता है। इसमें तीन लोक हैं-भू लोक, भुवर्लाेक, स्वलोक। भू लोक वो जहां तक सूर्य चंद्रमा का प्रकाश जाता है। हमारी पृथ्वी समेत शेष सभी गृह इसी लोक में आते  हैं। पृथ्वी और सूर्य के मध्य के स्थान को भुवर्लाेक कहते हैं। इसमें सभी ग्रह मण्डल आदि आते हैं और स्वलोक सूर्य और धरती के मध्य चौदह योजना के अंतर को कहा जाता है। इसी के मध्य सप्तऋषि का मंडल है।

महर्लाेक, कृतक और अकृतक लोक के बीच स्थित है। यह प्रलय से अछूता स्थान है। जहां समय ठहरा हुआ है। महर्लाेक को कृतकाकृतक लोक भी कहा जाता है। अकृतक त्रैलोक्य अनश्वर त्रैलोक्य है, जो कभी नष्ट नहीं होता। इसमें तीन लोक हैं- जनलोक, तपलोक, और सत्यलोक। सत्यलोक को ब्रह्मालोक भी कहते हैं।

भूलोक को कई भाग में विभक्त बताया गया है। इसमें इंद्रलोक पृथ्वी और पाताल का वर्णन है। मेरा विश्वास है कि पुराण वर्णित पाताल लोक कल्पना नहीं वरन् असल में इसका अस्तित्व है। नर्मदा नदी को पाताल की ही नदी के रूप में मान्यता प्राप्त है। कहा जाता है कि इस नदी और सागर के मध्य से पाताल को रास्ता जाता है। पाताल लोक के स्वामी शेष नाग हैं। आपने कई स्थानों के नाम सुने होंगे जैसे ‘पाताल भैरवी’, ‘पाताल दुर्ग’ और जिस अद्भुत दिव्य स्थान का इस बार मानसिक रमण हम करेंगे वह है ‘पाताल भुवनेश्वर गुफा’ जो उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जनपद के गंगोलीहाट के निकट स्थित है। मैं जिस वयस में वहां गई थी उसमें वैसे भी दुनिया विचित्र लगती है। एक संकरा सा रास्ता और धरती से नब्बे फीट नीचे स्थित है ये अद्भुत  गुफा जो दरअसल कई गुफाओं का समूह है। पहले तो लगा ऐसा संभव ही नहीं है कि वहां की कलाकृतियां मानव निर्मित हों, फिर सहज भाव जगा कि जिस परमशक्ति ने मानव का ही सृजन किया हो उसके लिए क्या असम्भव। एक पल के लिए सांसें रूक जाती हैं। इस संकरे रास्ते को देखकर कि भीतर जाकर अगर ये संकरा रास्ता किसी ने बंद कर दिया तो? लेकिन गहरा नीचे उतर कर रहस्य के जिस संसार में आप उतरते चले जाते हैं वो विस्मय के साथ-साथ आपको ये भी अवश्य यकीन दिलाता है कि कोई तो परमशक्ति है जो हमारी नजरों से परे होकर भी सर्वत्र व्याप्त है। ये संसार भी उसी तरह हमारे देखने महसूस करने की सीमाओं से परे विस्तृत है जिस प्रकार परमशक्ति। जैसे-जैसे वहां कोई हमें भीतर के रहस्यों से परिचित करवाता गया, मैं गहन सोच में पड़ गई कि ऐसे स्थान पर आना कलियुग में इतना सहज कैसे है, जबकि अलग- अलग युगों में दिव्य आत्माएं तक यहां बमुश्किल पहुंच पाई होंगी। इस बात का रहस्य बहुत बाद में खुला कि यूंही तो नहीं कहा है कि कलियुग में पाप अगर अधिक होगा तो सहज ही खोजने से ‘श्री हरि’ से मिलने का आशीर्वाद भी होगा। संभवतः यही कारण है कि कलियुग में ये स्थान आदिगुरु शंकराचार्य के प्रताप से देख पाना इतना आसान हो गया है।

चलते हैं इसके इतिहास की तरफ

 

स्कंध पुराण के मानसखंड में इस गुफा का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि यहां भगवान शिव समेत सभी तीर्थ निवास करते हैं। मान्यताओं अनुसार सर्वप्रथम इस स्थान को राजा ऋतुपर्ण ने त्रेता युग में खोजा था। कहा जाता है कि निषध देश के अत्यंत धर्मपरायण राजा नील जुए में अपना राज- पाठ अपने भाई पुष्कर के हाथों हार बैठे थे। उन्होंने अपनी पत्नी रानी दमयंती के साथ हिमालय की शरण ली। पत्नी की सुरक्षा को लेकर चिंतित नल उसे भी सुरक्षित स्थान पर छोड़ खुद गायब हो गए। दमयंती ने तब नील को खोजने के लिए अयोध्या के राजा रितुपर्ण की मदद मांगी थी।

राजा रितुपर्ण नल की खोज में हिमालय के उन इलाकों में गए, जहां नील ने शरण ली थी। वापस आते समय, एक सुंदर हिरण ने रितुपर्ण का ध्यान आकर्षित किया, उन्होंने हिरण का पीछा किया, लेकिन उसको रितुपर्ण पकड़ नहीं पाए। थके हुए रितुपर्ण ने एक पेड़ की छांव में विश्राम किया और एक स्वप्न देखा जिसमें हिरण अपना पीछा न करने की भीख मांग रहा था। जब नींद टूटी तो राजा रितुपर्ण ने अपनी चढ़ाई शुरू की और  एक गुफा में पहुंच गए जहां दरवाजे पर शेषनाग ने उनसे उसकी यात्रा के बारे में पूछा। संतुष्ट जवाब पाने के पश्चात् शेषनाग ने उन्हें गुफा में ऊर्जामयी कलाकृतिओं के दर्शन के प्रयोजन से दिव्य नेत्र भी दिए। गुफा में सुशोभित देवताओं की पत्थर की मूर्तियों पर राजा मुग्ध हो गए थे। ऐसा कहा जाता है कि रितुपर्ण की यात्रा के बाद द्वापर युग में पांडवों ने इस गुफा को खोजा और भगवान शिव के साथ चौपड़ खेला था। इसके बाद कलियुग में जगत गुरु आदिगुरु शंकराचार्य ने  करीब 819 ई में इस गुफा की खोज की और उन्होंने ही तत्कालीन राजा को इसकी जानकारी दी थी। इसके बाद राजाओं द्वारा ही गुफा में पूजा कार्य के लिए पुजारियों (भंडारी परिवार) को लाया गया था।

मुख्य गुफा द्वार से आप जब सरकते हुए नीचे उतरते हैं तब काफी नीचे जाकर आपको ये बताया जाता है कि आप धरती से 10 फीट नीचे हैं तथा लगभग 100 मीटर के दायरे में स्थित कलाकृतियों के आपको दर्शन करवाए जाते हैं। नीचे उतरते ही पताल लोक के स्वामी शेषनाग के फन के दर्शन होते हैं। आगे इनके मुख के भीतर जाकर बाकी कलाकृतियों के दर्शन होने का अहसास होता है। इस पड़ाव पर ऐसा लगता है कि किसी फंतासी वाले स्थान पर आ गए हैं या किसी स्वप्न में हैं। इसके आगे की कलाकृतियों की कथाएं इतनी रोमांचक हैं कि आप किस्से किवदंतियों और मान्यताओं के भंवर में खो जाते हैं। यहां शेषनाग की विष ग्रंथियां दिखाई जाती हैं और वाकई ऐसा लगता है जैसे वो किसी सर्पगृही के अंग ऊतक का हिस्सा हों। जब इससे आगे आप बढ़ते हैं तो आपको बताया जाता है कि आप शेषनाग के मेरुदंड के ऊपर ही चल रहे हैं और हैरानी है कि वाकई ऐसा ही लगता है। इसके आगे एक छोटा गड्ढा-सा दिखाई देता है जो अपने आप में किसी और लोक को जाता सा दिखता है (पाताल के भी कई तल होने की पुष्टि भी यही से हो जाती है)।

कहा जाता है ये वो स्थान है जहां राजा जन्मेजय ने अपने पिता परीक्षित की मृत्यु का बदला हेतु पाताल के सभी नागों को यहां जला कर भस्म कर दिया था लेकिन तक्षक नाग बच गए थे। अचंभा ये होता है कि तक्षक महासर्प की छवि यहां साफ- साफ दिखती है और लगता है वो प्रत्यक्ष रूप में आज भी वही हैं, साथ ही वासुकी नाग की छवि भी दिखती है। वासुकी नाग वही हैं जिनके शरीर को रस्सी बनाकर देव और असुरों के मध्य समुद्र मंथन हुआ था। पौराणिक कथा अनुसार हस्तिनापुर के राजा जन्मेजय के पिता राजा परीक्षित एक समय शिकार खेलते हुए ऋषि शमीक के आश्रम चले गए थे। वहां ध्यान मग्न शमीक ने उन पर ध्यान नहीं दिया तो गुस्से में परीक्षित उनके गले में मरा सांप डालकर लौट आए। जब उनके पुत्र ऋषि श्रृंगी को इसका पता चला तो उन्होंने परीक्षित को सात दिन में तक्षक नाग के काटने से मृत्यु का श्राप दे दिया इसके बाद राजा परीक्षित ने सात दिन भागवत सुनते हुए अंतिम दिन तक्षक नाग के काटने से मृत्यु को प्राप्त किया। राजा जन्मेजय ने तक्षक सहित सभी नागों को भस्म करने का संकल्प लेकर सर्प यज्ञ किया। यज्ञ शुरू होते ही सारे सांप तड़पते, पुकारते, उछलते और पूंछ से एक-दूसरे को लपेटते हुए आग में गिरने लगे। जब वासुकी नाग भी इस यज्ञ से तड़प उठे तो उन्होंने अपनी बहन जरत्कारू से नागों की रक्षा की विनती की। इस पर जरत्कारू ने अपने ज्ञानी पुत्र आस्तिक को यज्ञ स्थल भेजा। बालक आस्तिक ने यज्ञ स्थल पर जाकर यज्ञ के साथ यजमान, ऋत्विज, सभासद व अग्नि की स्तुति की। इससे सभी उन पर प्रसन्न हो गए। उसी समय यज्ञ की आहुतियों से तक्षक नाग भी इंद्र देव के साथ वहां प्रगट हो गया। जैसे ही तक्षक यज्ञ कुंड में गिरने लगा, आस्तिक ने उसे रास्ते में रोक जन्मेजय से यज्ञ समाप्ति का वरदान मांग लिया। इस पर पहले तो जन्मेजय ने यज्ञ समाप्ति की जगह आस्तिक को अन्य वस्तु मांगने का प्रलोभन दिया, पर जब वे नहीं माने तो जन्मेजय ने ब्राह्माण बालक की इच्छा पूरी करना तय कर यज्ञ समाप्त कर दिया। इस तरह तक्षक व वासुकी सहित सांपों की कई प्रजातियां यज्ञ कुंड में भस्म होने से बच गईं, पाताल भुवनेश्वर  ही वह स्थान है जहां राजा जन्मेजय ने यह यज्ञ किया था।

क्रमशः
(लेखिका रेडियों प्रजेंटर, एड फिल्म मेकर तथा
 वत्सल सुदीप फाउंडेशन की सचिव हैं)

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